पुनर्जन्म-24
कामना के त्याग के बाद 'स्व' में स्थित होने का दूसरा महत्वपूर्ण साधन है, सहजता।इसे सहज योग भी कहा जाता है।सहज योग यानि अपने स्वभाव में जीना।अपने स्वभाव में स्थित होना बड़ा कठिन है क्योंकि हम अपने स्वभाव से पहले ही बहुत दूर निकल आये हैं।सहज योग को कबीर ने गोविंद से मिलन का मार्ग बताया है। हो रहा है, उसे देखो, किसी प्रकार का प्रयास न करो, विश्राम में रहो।केवल साक्षी बनकर रहो।
विश्राम का अर्थ कर्म न करने से नहीं है, आपको कर्म तो करने ही पड़ेंगे। साक्षी होने का अर्थ है मेरी कोई इच्छा नहीं है,सब कुछ परमात्मा की इच्छानुसार हो रहा हैअर्थात परमात्मा की इच्छा को ही अपनी इच्छा मानो।आप कर्म अवश्य करें, आपकी इच्छानुसार सफलता मिले अथवा नहीं, जो भी मिले उसे परमात्मा की इच्छा मानें।सफल हों तो अधिक खुश होना नहीं है,असफल हों तो दुःखी नहीं होना है। आचार्य श्री गोविंदराम शर्मा कहते हैं कि परमात्मा की इच्छा में अपनी इच्छा मिला दो।इस प्रकार हमें सहज भाव से अपने स्वभाव में स्थित रहकर केवल साक्षी की भूमिका निभाना है।
इस श्रृंखला को समाप्त करते हुए पुनः एक बार इस बात का स्मरण करूंगा कि हम सब परमात्मा(सत) के अंश है, प्रकृति (असत) में आकर स्थित हो गए हैं। हमें प्रकृति के स्वभाव व गुणों से प्राप्त होने वाले छद्म सुखों दुःखों का त्याग करना होगा,सहज भाव से जीवन जीते हुए साक्षी बनना होगा फिर स्वतः ही 'स्व' में स्थित हो जाएंगे।यही परम आनंद की अवस्था होगी। 'स्व' को पहचानने का अर्थ है 'स्व' का ज्ञान हो जाना अर्थात आत्म ज्ञान को उपलब्ध हो जाना।इसी को आत्मबोध कहा जाता है और परमात्मा की प्राप्ति भी।हम स्वयं पुनः सत, चित, आनंद स्वरूप परमात्मा हो जाएंगे, इसी मानव जीवन में । इसीलिए ऐसी मुक्ति प्राप्त कर लेने को जीवन मुक्त होना भी कहा जाता है।
भज गोविन्दम् में आदिगुरू शंकराचार्य कहते हैं-
पुनरपि जननं पुनरपि मरणं,
पुनरपि जननी जठरे शयनम् |
इह संसारे बहु दुस्तारे,
कृपया पारे पाहि मुरारे ||21||
अर्थात बार-बार जन्मना, बार-बार मरना बार-बार मां के गर्भ में शयन, इस संसार से पार जाना बहुत ही कठिन है | हे कृष्ण ! हे मुरारी !! मुझे इस आवागमन से मुक्त कर दे |
प्रस्तुति -डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
पुनर्जन्म पर यह श्रृंखला मुख्य रूप से "योगवासिष्ठ" ग्रंथ के अध्ययन पर आधारित है । साथ ही आचार्यजी श्री गोविंदराम शर्मा से गत दिनों मिले सान्निध्य की अवधि में उनके साथ की गई आध्यात्मिक चर्चाओं से इस विषय पर किये गए लेखन को धार मिली है। हो सकता है, प्रस्तुतिकरण में कुछ त्रुटि रही हो, उसके पीछे मेरी कम समझ ही उत्तरदायी है। आप सबको इस विषय पर किये गए चिंतन से लाभ मिला होगा।नई श्रृंखला प्रारम्भ करने से पूर्व कुछ समय के लिए विश्राम ले रहा हूँ।शीघ्र ही पुनः मिलेंगे।हरि:शरणम्।
कामना के त्याग के बाद 'स्व' में स्थित होने का दूसरा महत्वपूर्ण साधन है, सहजता।इसे सहज योग भी कहा जाता है।सहज योग यानि अपने स्वभाव में जीना।अपने स्वभाव में स्थित होना बड़ा कठिन है क्योंकि हम अपने स्वभाव से पहले ही बहुत दूर निकल आये हैं।सहज योग को कबीर ने गोविंद से मिलन का मार्ग बताया है। हो रहा है, उसे देखो, किसी प्रकार का प्रयास न करो, विश्राम में रहो।केवल साक्षी बनकर रहो।
विश्राम का अर्थ कर्म न करने से नहीं है, आपको कर्म तो करने ही पड़ेंगे। साक्षी होने का अर्थ है मेरी कोई इच्छा नहीं है,सब कुछ परमात्मा की इच्छानुसार हो रहा हैअर्थात परमात्मा की इच्छा को ही अपनी इच्छा मानो।आप कर्म अवश्य करें, आपकी इच्छानुसार सफलता मिले अथवा नहीं, जो भी मिले उसे परमात्मा की इच्छा मानें।सफल हों तो अधिक खुश होना नहीं है,असफल हों तो दुःखी नहीं होना है। आचार्य श्री गोविंदराम शर्मा कहते हैं कि परमात्मा की इच्छा में अपनी इच्छा मिला दो।इस प्रकार हमें सहज भाव से अपने स्वभाव में स्थित रहकर केवल साक्षी की भूमिका निभाना है।
इस श्रृंखला को समाप्त करते हुए पुनः एक बार इस बात का स्मरण करूंगा कि हम सब परमात्मा(सत) के अंश है, प्रकृति (असत) में आकर स्थित हो गए हैं। हमें प्रकृति के स्वभाव व गुणों से प्राप्त होने वाले छद्म सुखों दुःखों का त्याग करना होगा,सहज भाव से जीवन जीते हुए साक्षी बनना होगा फिर स्वतः ही 'स्व' में स्थित हो जाएंगे।यही परम आनंद की अवस्था होगी। 'स्व' को पहचानने का अर्थ है 'स्व' का ज्ञान हो जाना अर्थात आत्म ज्ञान को उपलब्ध हो जाना।इसी को आत्मबोध कहा जाता है और परमात्मा की प्राप्ति भी।हम स्वयं पुनः सत, चित, आनंद स्वरूप परमात्मा हो जाएंगे, इसी मानव जीवन में । इसीलिए ऐसी मुक्ति प्राप्त कर लेने को जीवन मुक्त होना भी कहा जाता है।
भज गोविन्दम् में आदिगुरू शंकराचार्य कहते हैं-
पुनरपि जननं पुनरपि मरणं,
पुनरपि जननी जठरे शयनम् |
इह संसारे बहु दुस्तारे,
कृपया पारे पाहि मुरारे ||21||
अर्थात बार-बार जन्मना, बार-बार मरना बार-बार मां के गर्भ में शयन, इस संसार से पार जाना बहुत ही कठिन है | हे कृष्ण ! हे मुरारी !! मुझे इस आवागमन से मुक्त कर दे |
प्रस्तुति -डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
पुनर्जन्म पर यह श्रृंखला मुख्य रूप से "योगवासिष्ठ" ग्रंथ के अध्ययन पर आधारित है । साथ ही आचार्यजी श्री गोविंदराम शर्मा से गत दिनों मिले सान्निध्य की अवधि में उनके साथ की गई आध्यात्मिक चर्चाओं से इस विषय पर किये गए लेखन को धार मिली है। हो सकता है, प्रस्तुतिकरण में कुछ त्रुटि रही हो, उसके पीछे मेरी कम समझ ही उत्तरदायी है। आप सबको इस विषय पर किये गए चिंतन से लाभ मिला होगा।नई श्रृंखला प्रारम्भ करने से पूर्व कुछ समय के लिए विश्राम ले रहा हूँ।शीघ्र ही पुनः मिलेंगे।हरि:शरणम्।
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