पुनर्जन्म-21
आवागमन से मुक्ति -
हम प्रवेश करते हैं, इस श्रृंखला के अतिमहत्वपूर्ण भाग में। पुनर्जन्म की प्रक्रिया को जानना केवल असत को जानना है और पुनर्जन्म से बच निकलना बिना सत को जाने संभव नहीं है।हम सब प्रायः पुनर्जन्म में जाने के लिए ही कर्म करते हैं, उससे बचने के लिए नहीं।संसार बनाया प्रकृति ने, प्रकृति बनाई परमात्मा ने।वह प्रकृति को बनाकर उसमें आसक्त नहीं हुआ,उसमें लिप्त नहीं हुआ और न ही उसका कर्ता बना।इधर एक हम है, जोकि कहलाते उसी के अंश है परंतु आसक्ति के वशीभूत होकर प्रकृति के इस संसार में स्वयं का अपना एक अलग संसार बना बसा लेते हैं।
स्वयं का बनाया संसार ही हमें दुखी करता है क्योंकि हम उस संसार से सुख प्राप्त करना चाहते हैं। इस प्रकार सुख की चाहना ही हमें संसार बंधन में बांध देती है।फिर उस चाहना,उस कामना को पूरी करने के लिए कर्म, कामना पूरी होते ही किसी नई कामना का जन्म और अहंता, ममता,आसक्तियों और नए कर्मों का फांस गले में आ पड़ता है। खूब छटपटाते हैं, मुक्त होने के लिए परंतु असहाय होकर कोल्हू के बैल बने घूमते रहते हैं।कोई रास्ता दिखलाई नहीं पड़ता क्योंकि सत होकर भी असत की, असत से ही चाहना करने लगे हैं ।संसार से चाहना कभी किसी की पूरी नहीं होती क्योंकि जो कल था, वह आज नहीं है, जो आज है वह कल नहीं रहेगा।परिवर्तन होना संसार का नियम है जबकि हम अविनाशी है।हम अपने इस अविनाशी स्वरूप को भुला बैठे हैं।असत को पाकर असत तो खुश हो सकता है परन्तु सत नहीं।हमारा मन खुश हो सकता है क्योंकि वह असत है।मन असत है उसका एक दिन मिटना निश्चित है, फिर सत होकर हम क्यों उससे चिपके हुए हैं? हम सत होकर उस असत मन से चिपक गए हैं, तभी तो वह समाप्त नहीं हो रहा है।जिस दिन आप अपने सत्य स्वरूप में स्थित हो जाएंगे,मन स्वतः ही समाप्त हो जाएगा।
क्रमशः
प्रस्तुति -डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्
आवागमन से मुक्ति -
हम प्रवेश करते हैं, इस श्रृंखला के अतिमहत्वपूर्ण भाग में। पुनर्जन्म की प्रक्रिया को जानना केवल असत को जानना है और पुनर्जन्म से बच निकलना बिना सत को जाने संभव नहीं है।हम सब प्रायः पुनर्जन्म में जाने के लिए ही कर्म करते हैं, उससे बचने के लिए नहीं।संसार बनाया प्रकृति ने, प्रकृति बनाई परमात्मा ने।वह प्रकृति को बनाकर उसमें आसक्त नहीं हुआ,उसमें लिप्त नहीं हुआ और न ही उसका कर्ता बना।इधर एक हम है, जोकि कहलाते उसी के अंश है परंतु आसक्ति के वशीभूत होकर प्रकृति के इस संसार में स्वयं का अपना एक अलग संसार बना बसा लेते हैं।
स्वयं का बनाया संसार ही हमें दुखी करता है क्योंकि हम उस संसार से सुख प्राप्त करना चाहते हैं। इस प्रकार सुख की चाहना ही हमें संसार बंधन में बांध देती है।फिर उस चाहना,उस कामना को पूरी करने के लिए कर्म, कामना पूरी होते ही किसी नई कामना का जन्म और अहंता, ममता,आसक्तियों और नए कर्मों का फांस गले में आ पड़ता है। खूब छटपटाते हैं, मुक्त होने के लिए परंतु असहाय होकर कोल्हू के बैल बने घूमते रहते हैं।कोई रास्ता दिखलाई नहीं पड़ता क्योंकि सत होकर भी असत की, असत से ही चाहना करने लगे हैं ।संसार से चाहना कभी किसी की पूरी नहीं होती क्योंकि जो कल था, वह आज नहीं है, जो आज है वह कल नहीं रहेगा।परिवर्तन होना संसार का नियम है जबकि हम अविनाशी है।हम अपने इस अविनाशी स्वरूप को भुला बैठे हैं।असत को पाकर असत तो खुश हो सकता है परन्तु सत नहीं।हमारा मन खुश हो सकता है क्योंकि वह असत है।मन असत है उसका एक दिन मिटना निश्चित है, फिर सत होकर हम क्यों उससे चिपके हुए हैं? हम सत होकर उस असत मन से चिपक गए हैं, तभी तो वह समाप्त नहीं हो रहा है।जिस दिन आप अपने सत्य स्वरूप में स्थित हो जाएंगे,मन स्वतः ही समाप्त हो जाएगा।
क्रमशः
प्रस्तुति -डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्
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