पुनर्जन्म-22
हम अपने आध्यत्मिक जीवन के प्रारंभिक काल में सबसे बड़ी गलती एक ही करते हैं कि मन और इंद्रियों को बुद्धि के माध्यम से नियंत्रित करने का प्रयास करते हैं। इन्द्रियां भी असत है,मन भी असत है और बुद्धि भी असत है।भला आप असत से असत को कैसे नियंत्रित कर सकते हैं? एक उद्दंड बालक को किसी भी हालत में डंडे के जोर से नियंत्रित नहीं किया जा सकता।हमारी इस प्रकार की सोच ही पूर्णतया गलत है।ऐसे जिद्दी बालक की जिद्द को महत्व न देकर, केवल उसकी उपेक्षा करके ही उसे शांत किया जा सकता है।इसी प्रकार आप मन को भी महत्व देना बन्द कर दें। मन की हाँ में हाँ मिलाना छोड़ दें। अपने मूल स्वभाव को पहचान कर उसमें स्थित हो जाइए, मन स्वतः ही शांत हो जाएगा और आप भी तत्क्षण आनंद को उपलब्ध हो जाओगे।मन के अमन हो जाने का नाम ही तो आनंद है ।
मन का पोषण भी तो हम ही करते हैं, उससे सुख पाने की कामना करके । तात्कालिक क्षण मात्र के सुख के उपरांत जब दुःख मिलता है तब कहते हैं कि मन और इंद्रियों पर नियंत्रण करो। क्यों पोषण करते हो आप इस विजातीय मन का?हम सत चित आत्मा ही हैं और आत्मा सच्चिदानंद परमात्मा का अंश है।ऐसे में परमात्मा और हम सजातीय हुए कि नहीं हुए? हुए न। मन, बुद्धि, अहंकार, इन्द्रियां,शरीर आदि सब कुछ असत है, विजातीय है।फिर विजातीय से क्यों जाकर चिपकना, अगर चिपकना ही है तो अपने सजातीय परमात्मा से चिपको।
गीता में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को दूसरे अध्याय में स्थितप्रज्ञ होने का कहते है, बुद्धि को निश्चयात्मक कर 'स्व' में स्थित होने को कहते हैं, परंतु अर्जुन ने उनकी बात मानी क्या ? नहीं मानी, अगर मानी होती तो गीता केवल दो अध्याय में ही सिमट कर रह जाती, अठारह अध्याय की नहीं होती।अर्जुन नहीं समझा, तब श्री कृष्ण ने उसको मन और इंद्रियों पर नियंत्रित स्थापित करने को कहा, काम को मार डालने का कहा, ज्ञान से कर्मों को नष्ट करने का कहा परंतु अर्जुन को नहीं समझना था, सो नहीं समझा।अंततः भक्ति योग के मार्ग से होते हुए शरणागति पर जाकर भगवान की बात समाप्त हुई।इस प्रकार गीता में कर्म, ज्ञान और भक्ति- ये तीन मार्ग बतलाये हैं भगवान श्री कृष्ण ने 'स्व' में स्थित होने के लिए।तीनों रास्ते सही हैं, चलने के लिए जो उपयुक्त लगे अपने लिए चुन लीजिए ।प्रत्येक रास्ते पर चलकर आप 'स्व' तक पहुंचकर उसमें स्थित हो सकते हैं।
क्रमशः
प्रस्तुति -डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्
हम अपने आध्यत्मिक जीवन के प्रारंभिक काल में सबसे बड़ी गलती एक ही करते हैं कि मन और इंद्रियों को बुद्धि के माध्यम से नियंत्रित करने का प्रयास करते हैं। इन्द्रियां भी असत है,मन भी असत है और बुद्धि भी असत है।भला आप असत से असत को कैसे नियंत्रित कर सकते हैं? एक उद्दंड बालक को किसी भी हालत में डंडे के जोर से नियंत्रित नहीं किया जा सकता।हमारी इस प्रकार की सोच ही पूर्णतया गलत है।ऐसे जिद्दी बालक की जिद्द को महत्व न देकर, केवल उसकी उपेक्षा करके ही उसे शांत किया जा सकता है।इसी प्रकार आप मन को भी महत्व देना बन्द कर दें। मन की हाँ में हाँ मिलाना छोड़ दें। अपने मूल स्वभाव को पहचान कर उसमें स्थित हो जाइए, मन स्वतः ही शांत हो जाएगा और आप भी तत्क्षण आनंद को उपलब्ध हो जाओगे।मन के अमन हो जाने का नाम ही तो आनंद है ।
मन का पोषण भी तो हम ही करते हैं, उससे सुख पाने की कामना करके । तात्कालिक क्षण मात्र के सुख के उपरांत जब दुःख मिलता है तब कहते हैं कि मन और इंद्रियों पर नियंत्रण करो। क्यों पोषण करते हो आप इस विजातीय मन का?हम सत चित आत्मा ही हैं और आत्मा सच्चिदानंद परमात्मा का अंश है।ऐसे में परमात्मा और हम सजातीय हुए कि नहीं हुए? हुए न। मन, बुद्धि, अहंकार, इन्द्रियां,शरीर आदि सब कुछ असत है, विजातीय है।फिर विजातीय से क्यों जाकर चिपकना, अगर चिपकना ही है तो अपने सजातीय परमात्मा से चिपको।
गीता में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को दूसरे अध्याय में स्थितप्रज्ञ होने का कहते है, बुद्धि को निश्चयात्मक कर 'स्व' में स्थित होने को कहते हैं, परंतु अर्जुन ने उनकी बात मानी क्या ? नहीं मानी, अगर मानी होती तो गीता केवल दो अध्याय में ही सिमट कर रह जाती, अठारह अध्याय की नहीं होती।अर्जुन नहीं समझा, तब श्री कृष्ण ने उसको मन और इंद्रियों पर नियंत्रित स्थापित करने को कहा, काम को मार डालने का कहा, ज्ञान से कर्मों को नष्ट करने का कहा परंतु अर्जुन को नहीं समझना था, सो नहीं समझा।अंततः भक्ति योग के मार्ग से होते हुए शरणागति पर जाकर भगवान की बात समाप्त हुई।इस प्रकार गीता में कर्म, ज्ञान और भक्ति- ये तीन मार्ग बतलाये हैं भगवान श्री कृष्ण ने 'स्व' में स्थित होने के लिए।तीनों रास्ते सही हैं, चलने के लिए जो उपयुक्त लगे अपने लिए चुन लीजिए ।प्रत्येक रास्ते पर चलकर आप 'स्व' तक पहुंचकर उसमें स्थित हो सकते हैं।
क्रमशः
प्रस्तुति -डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्
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