Thursday, February 28, 2019

रामकथा-कुछ अनछुए प्रसंग-4

रामकथा-कुछ अनछुए प्रसंग-4
        व्यक्ति का विरह में विकल होना मंच पर अभिनय होता है और मंच के अतिरिक्त विकल होना अभी तक विवेक का जाग्रत न होना प्रदर्शित करता है।विरह के प्रसंग से व्यक्ति विभोर,विह्वल अथवा विकल-इन तीनों में से एक दशा को प्राप्त हो सकता है।विकलता वह मानसिक दशा है जिसमें हम अभिनय को वास्तविकता समझ बैठते हैं और अभिनीत पात्र और अभिनय कर्ता के अंतर को भूला बैठते हैं। हम यह नहीं समझ पाते कि अभिनीत पात्र और उस पात्र की भूमिका निभाने वाले अलग अलग हैं,एक नहीं है। हम सामने दिखाई पड़ने वाले दृश्य को ही वास्तविक समझ बैठते हैं। दूसरी अवस्था, विह्वलता व्यक्ति की  वह मानसिक दशा होती है जिसमें वह अभिनय को अभिनय समझते हुए भी उस अभिनय को वास्तविकता के अधिक निकट अनुभव कर, अपना विवेक अल्प समय के लिए खो देता है। इस अवस्था में थोड़ी देर बाद व्यक्ति अपनी सामान्य अवस्था में आ जाता है। तीसरी दशा भी अभिनय में डूब जाना है। वह मन की भाव विभोर अवस्था है परंतु इसमें अभिनय करने वाले कलाकार की वास्तविकता को हम भूलते नहीं है बल्कि उसके अभिनय को देखकर आनन्दित होते हैं। सोचते हैं, वह प्रभु! आपकी लीला अपरम्पार है।भगवन!आप भी क्या क्या खेल रचते,खेलते और खिलाते हैं? मन की इन तीन स्थितियों को ध्यान में रखते हुए हम विरह के इस प्रसंग की चर्चा में आगे बढ़ेंगे।
     राम कथा में सीता हरण पहला अवसर था, जब सीता राम से अलग होकर बहुत दूर चली गयी थी।सीता प्रकृति है,राम पुरुष।दोनों एक से ही प्रकट हुए हैं,परम ब्रह्म से।"यदा यदा ही धर्मस्य ...." पृथ्वी का भार कम करने के लिए।अवतार लेकर आ तो गए परंतु वापिस जाना भी तो है।मनुष्य रूप में है, बिना किसी आधार के सीधे सीधे छोड़कर तो  कैसे जा सकते हैं? अवतार लेने के लिए कर्म का सहारा लिया था,उन कर्मों के फल को भोगने की आड़ में ।अब सब काम करके वापिस जाने के लिए भी तो कोई कर्म करना होगा जिससे वैकुंठ लौट सके।सीता हरण हो गया,तब यह निश्चित हो गया था कि अब रावण आदि राक्षसों से धरा पूर्णरूप से रिक्त कर दी जाएगी।राम ब्रह्म है, सोचते हैं वापिस जाने के लिए कुछ तो लीला करो, कर्म करने का नाटक तो करो,जिससे उनका फल भोगते हुए वैकुंठ लौटा जा सके।राम जानते थे सीता कहाँ है, कौन ले गया है?फिर भी पेड़ पौधों से रोते हुए पूछ रहे हैं,क्योंकि मनुष्य रूप में भगवान है। मनुष्य के रूप में हैं तो पत्नी विरह में रोना भी पड़ेगा और भगवान होते हुए, सब कुछ जानते समझते हुए भी सीता की खोज करने का नाटक करते हैं क्योंकि उन्हें अभी  अपने भक्तों जटायु आदि का उद्धार भी तो करना है।बस, कथा चलती जा रही है, केवल 'क्या' हो रहा है बताने के लिए नहीं बल्कि यह बताने के लिए कि ऐसा 'क्यों' हो रहा है?
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Wednesday, February 27, 2019

रामकथा -कुछ अनछुए प्रसंग-3

रामकथा-कुछ अनछुए प्रसंग-3
गोस्वामीजी से बढ़कर रामकथा कोई कह ही नहीं सकता।वे मानस के लेखन को प्रारम्भ करते हुए कहते हैं-
बुध बिश्राम सकल जन रंजनि।रामकथा कलि कलुष बिभंजनि।।
रामकथा कलि पंनग भरनी।पुनि बिबेक पावक कहुँ अरनी।।
रामकथा कलि कामद गाई।सुजन सजीवनि मूरि सुहाई।।
-मानस1/31/5-7
रामकथा बुद्धिमानों को विश्राम देने वाली,सब मनुष्यों को प्रसन्न करने वाली और पापों का नाश करने वाली है।यह कलियुगरूपी सांप के लिए मोरनी है और विवेक रूपी अग्नि को प्रकट करने वाली अरणि(मथनी)है। यह कथा सब मनोरथों को पूरा करनेवाली कामधेनु गौ है और सज्जनों के लिए संजीवन बूटी है।
       गोस्वामीजी रामकथा का उद्देश्य प्रारम्भ में ही स्पष्ट कर देते हैं। जब इस कथा से विवेक उत्पन्न होता है तो फिर कथा के प्रसंग को पढ़ सुनकर विकल कैसे हो सकते हैं? विकल करते हैं विरह के प्रसंग।अगर विरह की कथा हमें विकल करती है तो इसका एक ही अर्थ है, हममें अभी तक विवेक जाग्रत नहीं हुआ है।अतः इस कथा को सुनकर विकल होना हमें उसके उद्देश्य से दूर कर देता है। तो आइए,ऐसी पावन कथा के भीतर डुबकी लगाने हेतु विरह प्रसंग के भीतर प्रवेश करते हैं।
        राम और कृष्ण, दोनों ही परम ब्रह्म के अवतार हैं, इसमें कोई संदेह नहीं है।जब परम ब्रह्म अवतार लेता है तो उसे इस भौतिक संसार में मनुष्य के रूप में आकर जीना पड़ता है। फिर भी वह अपना वास्तविक स्वरूप भूलता नहीं है।इसीलिए उसके मनुष्य के जीवन को लीला(नाटक) कहा जाता है।हम भी उसी परम ब्रह्म के अंश है परंतु हम मनुष्य बनकर इस जीवन को एक लीला न समझकर सत्य समझ बैठे हैं। यही अंतर है परमात्मा और हममें। राम मनुष्य होकर भी पत्नी अपहरण में दिखावे के तौर पर रोते अवश्य हैं परंतु भीतर से वे रोते नहीं हैं।हम रामकथा में सीता के विरह में राम को बिलखते देखकर बाहर और भीतर,दोनों ही ओर से रोने लगते हैं परंतु मनुष्य राम केवल बाहर से दिखावे के लिए रोते हैं, भीतर के परम् ब्रह्म राम तो निश्चल बने रहते हैं।राम को मनुष्य के रूप में लीला पत्नी विरह में  रोते हुए मनुष्य की करनी होती है जबकि परम ब्रह्म राम जानते हैं कि यह वास्तविक सीता नहीं है बल्कि माया की सीता है।हम भी मानस/रामायण पढ़ते हुए जानते हैं कि यह सीता न होकर उसकी छाया मात्र है, केवल माया है, फिर भी राम के स्थान पर स्वयं को रखकर उस विरह को स्वयं का विरह अनुभव कर रोने लगते हैं।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Tuesday, February 26, 2019

रामकथा-कुछ अनछुए प्रसंग-2

रामकथा-कुछ अनछुए प्रसंग-2
        राम कहानी मनुष्य जिसका नाम राम है की एक कहानी है जबकि राम कथा भगवान राम के अवतरण की लीला का वृतांत है।राम के जीवन की कहानी कुछ वाक्यों को कहकर समाप्त हो सकती है जबकि रामकथा कई युगों तक कहने,सुनने और लिखने से भी समाप्त नहीं हो सकती।राम कथा बतलाती है कि ब्रह्म ने राम के रूप में अवतार क्यों लिया, क्यों उनको युवावस्था की दहलीज पर पैर रखते ही वैराग्य हो गया, सीता विवाह और धनुष भंग क्यों हुआ? क्यों राज्याभिषेक के बदले उनका वन गमन हुआ,गंगा नदी के पार जाने में केवट की ही सहायता क्यों लेनी पड़ी,चित्रकूट जहां भरत मिलाप भी हुआ था,उनकी चरण रज से पवित्र हुआ वह स्थान आज भी क्यों पवित्र माना जाता है, गोदावरी के तट पर आज भी लताएं सीता के चरण को छूने की लालसा में क्यों दोहरी हुई जा रही है? मारीच बना था स्वर्णमृग, आखिर क्यों? क्या रहस्य है, इसके पीछे? सीताहरण, राम का विरह, शबरी से मिलन,भक्त (हनुमान) का भगवान से मिलन, सुग्रीव से मित्रता, बाली दलन,लंका दहन,लखन मूर्च्छा,रावण मरण, राज्याभिषेक,सीता परित्याग आदि सभी मार्मिक कथाओं में बहुत से रहस्य छुपे हैं। अतः रामकथा पढ़ सुन कर उस पर मनन करना आवश्यक है।
      राम की कहानी तो केवल इन चार वाक्यों में भी कही जा चुकी है-
आदौ राम तपोवनादिगमनं, हत्वा मृगा काञ्चनम्।
वैदेही हरणं जटायु मरणं, सुग्रीव सम्भाषणम् ।।
बाली निर्दलनं समुद्र तरणं, लंकापुरी दाहनम् ।
पश्चात् रावण कुम्भकरण हननं, एतेदि रामायणं ।।
      परंतु राम कथा को केवल इतने से वाक्यों में नहीं कहा जा सकता।उसके लिए तो चिंतन, मनन, सत्पुरुषों से चर्चा और सत्संग की आवश्यकता होती है।कहानी केवल सुनी जाती है जबकि कथा गुणी (गुणों में वृद्धि)जाती है।कहानी हमारे मन को खुश कर सकती है, मन का रंजन (मनोरंजन) कर सकती है जबकि कथा मन को विश्राम देती है, हमें परम विश्राम की अवस्था (परमात्मा) तक ले जा सकती है।जीवन मुक्त केवल कहानियां सुनकर नहीं हुआ जा सकता । जीवन के रहते मुक्ति मिलती है, कथा को मन से सुनकर और उसे जीवन में उतारकर। तो कल से चलते हैं, इस रामकहानी को यहीं पर छोड़कर रामकथा की ओर ।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Monday, February 25, 2019

रामकथा-कुछ अनछुए प्रसंग-1

रामकथा-कुछ अनछुए प्रसंग -1
सनातन धर्म में विभिन्न कथाओं के माध्यम से परमब्रह्म और  उससे स्फुटित होने वाले जीवन को बहुत ही अच्छे तरीके से समझाया गया है।ग्रंथों में कई कथाएं वर्णित है और कुछ ग्रंथ तो केवल एक ही कथा पर आधारित है। परम ब्रह्म से मिले अपने जीवन को हम कैसे जियें जिससे कि हमारा जीवन श्रेष्ठ बन सके, इन कथाओं के माध्यम से सीखा जा सकता है।परम ब्रह्म जब भी अवतार लेते हैं, तब उनके जीवन को देखकर हमें कुछ दुविधाएं  या यूं कहूँ कि मन में कुछ शंकाएं उत्पन्न हो जाती है।कहानियाँ शंका पैदा नहीं करती और न ही कुछ सोचने को मजबूर कर सकती क्योंकि कहानी घटना में "क्या हुआ था?" केवल इतना ही बतलाती है।जबकि कथा, कहानी से एकदम विपरीत होती है। कथा घटनाक्रम  "क्यों हुआ था?" यह बतलाती है इसलिए व्यक्ति कथा सुन/पढ़कर उस पर  मनन करता है। यही मनन कई बार कथा में वर्णित  घटना के बारे में शंका उत्पन्न कर सकता है। कहानी सदैव काल्पनिक ही होती है, जबकि कथा सत्य घटना पर आधारित। कथा में वर्णित सत्य को स्वीकार करना कहानी की कल्पना को स्वीकार करने की तुलना में मनुष्य के लिए जरा मुश्किल होता है। इसलिए कथा को सुन पढ़कर मन में प्रश्न उठना स्वाभाविक है।आज से मैं ऐसी ही एक कथा से उठे कुछ प्रश्नों और शंकाओं का समाधान करने का प्रयास करने जा रहा हूँ।
        कृष्ण कथा से अधिक प्रश्न रामकथा को पढ़कर मन में उठते हैं। कारण, कृष्ण द्वापर के अंतिम भाग में हुए थे, इस कारण से वे हमें आज इस कलियुग के पूर्व भाग में अधिक विश्वसनीय लगते हैं क्योंकि कलियुग के प्रारम्भ  और द्वापर के अंत में विशेष समयान्तर नहीं है। कृष्ण हमारे अधिक पास है, राम की तुलना में।राम त्रेता में हुए जबकि हम कलियुग में है। इस बीच मे पूरा द्वापर बीत चुका है। इन दोनों युगों में बहुत अधिक समयांतर है।कलियुग में राम काल्पनिक लग सकते हैं परंतु त्रेता युग में जाकर देखेंगे तो वे ही वास्तविक नज़र आएंगे।इसी कारण से रामकथा मन में अधिक प्रश्न उत्पन्न करती है क्योंकि हम त्रेता को कलियुग के परिपेक्ष्य में देखने की गलती कर रहे हैं।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Sunday, February 24, 2019

रामकथा-कुछ अनछुए प्रसंग

परम ब्रह्म परमात्मा ने इस संसार में कई बार मनुष्य रूप में अवतार लिया है और मनुष्य रूप को धारण कर उनको भी उन्हीं परिस्थितियों से गुजरना पड़ा जिन परिस्थितियों से दो चार हम भी आये दिन होते रहते हैं। अवतारी परम पुरुष को हम मनुष्य मानें अथवा भगवान, इन दोनों के मध्य झूलती मानसिकता उनके प्रति द्वंद्व उत्पन्न करती है।भगवान मानें तो श्रद्धा पैदा होकर सिर उनके चरणों में झुक जाता है और अगर उन्हें मनुष्य मानें तो फिर उनके जीवन के बारे में कुछ शंकाएं पैदा हो जाती है।मनुष्य का मन किसी एक बात को सहज ही स्वीकार नहीं कर सकता । यही वह कारण है जिससे शंका और श्रद्धा, दोनों में से किसी एक ओर हम नहीं जा सकते।
      राम भी मनुष्य है, कृष्ण भी है और हम भी मनुष्य ही है।वह कौन सी बात है जो राम और कृष्ण को तो ब्रह्म की श्रेणी में ले जाती है और हमें नहीं।इस प्रश्न का उत्तर मिलते ही किसी भी अवतारी के जीवन के प्रति उत्पन्न दुविधाएं समाप्त हो जाती है और राम कृष्ण ही नही प्रकृति की सभी कृतियों के प्रति हमारी श्रद्धा हो जाती है। यह श्रद्धा होती है, उस परमात्मा के प्रति जो हम सबका कारण है, हम सब तो उनके कार्य मात्र हैं। ऐसी ही कुछ दुविधाओं से उपजे प्रश्न आदरणीय श्री कन्हैयालाल जी शर्मा, नई दिल्ली ने मुझे भेजे हैं, जो भगवान श्री राम के जीवन से सम्बन्धित है।उनको मैं सीधे ही इसका समाधान भेज सकता था परंतु मुझे लगा कि उनके मन में जैसे प्रश्न उठे हैं,हम सबके भी मन में यदा कदा उठते होंगे, तो क्यों न एक लघु श्रृंखला के रूप में इन प्रश्नों पर विचार कर लिया जाए। कल से राम कथा में  विस्मृत हुए कुछ प्रसंगों पर चर्चा करते हुए हम अपनी शंकाओं को श्रद्धा में परिवर्तित करने का प्रयास करेंगे ।
।। हरि:शरणम्।।

Saturday, February 9, 2019

पुनर्जन्म-24

पुनर्जन्म-24
     कामना के त्याग के बाद 'स्व' में स्थित होने का दूसरा महत्वपूर्ण साधन है, सहजता।इसे सहज योग भी कहा जाता है।सहज योग यानि अपने स्वभाव में जीना।अपने स्वभाव में स्थित होना बड़ा कठिन है क्योंकि हम अपने स्वभाव से पहले ही बहुत दूर निकल आये हैं।सहज योग को कबीर ने गोविंद से मिलन का मार्ग बताया है। हो रहा है, उसे देखो, किसी प्रकार का प्रयास न करो, विश्राम में रहो।केवल साक्षी बनकर रहो। 
         विश्राम का अर्थ कर्म न करने से नहीं है, आपको कर्म तो करने ही पड़ेंगे। साक्षी होने का अर्थ है मेरी कोई इच्छा नहीं है,सब कुछ परमात्मा की इच्छानुसार हो रहा हैअर्थात परमात्मा की इच्छा को ही अपनी इच्छा मानो।आप कर्म अवश्य करें, आपकी इच्छानुसार सफलता मिले अथवा नहीं, जो भी मिले उसे परमात्मा की इच्छा मानें।सफल हों तो अधिक खुश होना नहीं है,असफल हों तो दुःखी नहीं होना है। आचार्य श्री गोविंदराम शर्मा कहते हैं कि परमात्मा की इच्छा में अपनी इच्छा मिला दो।इस प्रकार हमें सहज भाव से अपने स्वभाव में स्थित रहकर केवल साक्षी की भूमिका निभाना है।
    इस श्रृंखला को समाप्त करते हुए पुनः एक बार इस बात का स्मरण करूंगा कि हम सब परमात्मा(सत) के अंश है, प्रकृति (असत) में आकर स्थित हो गए हैं। हमें प्रकृति के स्वभाव व गुणों से प्राप्त होने वाले छद्म सुखों दुःखों का त्याग करना होगा,सहज भाव से जीवन जीते हुए साक्षी बनना होगा फिर स्वतः ही 'स्व' में स्थित हो जाएंगे।यही परम आनंद की अवस्था होगी। 'स्व' को पहचानने का अर्थ है 'स्व' का ज्ञान हो जाना अर्थात आत्म ज्ञान को उपलब्ध हो जाना।इसी को आत्मबोध कहा जाता है और परमात्मा की प्राप्ति भी।हम स्वयं पुनः सत, चित, आनंद स्वरूप परमात्मा हो जाएंगे, इसी मानव जीवन में । इसीलिए ऐसी मुक्ति प्राप्त कर लेने को जीवन मुक्त होना भी कहा जाता है।
      भज गोविन्दम् में आदिगुरू शंकराचार्य कहते हैं-
                 पुनरपि जननं पुनरपि मरणं,
                 पुनरपि जननी जठरे शयनम् |
                 इह संसारे बहु दुस्तारे,
                  कृपया पारे पाहि मुरारे ||21||
अर्थात बार-बार जन्मना, बार-बार मरना बार-बार मां के गर्भ में शयन, इस संसार से पार जाना बहुत ही कठिन है | हे कृष्ण ! हे मुरारी !! मुझे इस आवागमन से मुक्त कर दे |
प्रस्तुति -डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।
 पुनर्जन्म पर यह श्रृंखला मुख्य रूप से "योगवासिष्ठ" ग्रंथ के अध्ययन पर आधारित है । साथ ही आचार्यजी श्री गोविंदराम शर्मा से गत दिनों मिले सान्निध्य की अवधि में उनके साथ की गई आध्यात्मिक चर्चाओं से इस विषय पर किये गए लेखन को धार मिली है। हो सकता है, प्रस्तुतिकरण में कुछ त्रुटि रही हो, उसके पीछे मेरी कम समझ ही उत्तरदायी है। आप सबको इस विषय पर किये गए चिंतन से लाभ मिला होगा।नई श्रृंखला प्रारम्भ करने से पूर्व कुछ समय के लिए विश्राम ले रहा हूँ।शीघ्र ही पुनः मिलेंगे।हरि:शरणम्।

Friday, February 8, 2019

पुनर्जन्म-23

पुनर्जन्म-23
अब प्रश्न यह उठता है कि 'स्व' में स्थित कैसे हुआ जाय? 'स्व' में स्थित होने के लिए कौन से प्रयास करने होंगे ? समस्या यही तो है कि हमें प्रयास करने की आदत पड़ गयी है।नदी बह रही है, उसमें बह रही वस्तु को पकड़ने के लिए प्रयास करना पड़ता है।संसार प्रतिपल बह रहा है, उसको आप पकड़ना चाहते हैं तो प्रयास करना पड़ेगा।परंतु जो अविनाशी है, अक्षर है, उसको पकड़ने में प्रयास की नहीं विश्राम लेने की आवश्यकता होगी। परमात्मा जो कि अक्षर अविनाशी है, को पाने के लिए भी प्रयास करते हैं, कितने बड़े मूर्ख हैं हम? पकड़ना और त्यागना दो ऐसे शब्द हैं, जिनके अर्थ को जानना महत्वपूर्ण है।पकड़ोगे उसको जो दूर जा रहा हो,दूर जाने वाला पकड़ में नहीं आएगा और अगर कभी थोड़ा बहुत पकड़ में आ भी गया तो नित्य पकड़ा हुआ नहीं रह सकता,एक दिन छूट ही जायेगा। हमें त्यागना भी उसी को पाने के प्रयास को है जिसे प्रयास करके भी सदैव के लिए अथवा हो सकता है कभी भी पकड़ा न जा सके।पकड़ने में प्रयास करना पड़ता है जबकि त्यागने में किसी भी प्रकार के प्रयास की आवश्यकता नहीं है।अतः मन और इंद्रियों से भोगों को पकड़ने का प्रयास मत करो, वे सब आपको संतुष्ट नहीं कर सकेंगे।करना है तो भोगों को प्राप्त करने की कामना का त्याग करें फिर मन और इंद्रियों को नियंत्रण में करने का प्रयास भी नहीं करना पड़ेगा।आपकी कामना, चाहना कभी पूरी नहीं होगी क्योंकि एक के पूरी होने से पहले नई चाहना उत्पन्न हो जाएगी। चाहना के बंधन से मुक्त होने का यह एक मार्ग होगा कि मन में किसी प्रकार की चाहना ही न बने।फिर ये मन, इन्द्रियां, बुद्धि आदि को नियंत्रित करने की बातें बेमानी हो जाएगी क्योंकि इनको वश में करने के लिए बहुत प्रयास करना पड़ता है और अंत में यह प्रयास प्रायः असफल ही सिद्ध होता है।
कल समापन कड़ी
प्रस्तुति -डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Thursday, February 7, 2019

पुनर्जन्म-22

पुनर्जन्म-22
     हम अपने आध्यत्मिक जीवन के प्रारंभिक काल में सबसे बड़ी गलती एक ही करते हैं कि मन और इंद्रियों को बुद्धि के माध्यम से नियंत्रित करने का प्रयास करते हैं। इन्द्रियां भी असत है,मन भी असत है और बुद्धि भी असत है।भला आप असत से असत को कैसे नियंत्रित कर सकते हैं? एक उद्दंड बालक को किसी भी हालत में डंडे के जोर से नियंत्रित नहीं किया जा सकता।हमारी इस प्रकार की सोच ही पूर्णतया गलत है।ऐसे जिद्दी बालक की जिद्द को महत्व न देकर, केवल उसकी उपेक्षा करके ही उसे शांत किया जा सकता है।इसी प्रकार आप मन को भी महत्व देना बन्द कर दें। मन की हाँ में हाँ मिलाना छोड़ दें। अपने मूल स्वभाव को पहचान कर उसमें स्थित हो जाइए, मन स्वतः ही शांत हो जाएगा और आप भी तत्क्षण आनंद को उपलब्ध हो जाओगे।मन के अमन हो जाने का नाम ही तो आनंद है ।
       मन का पोषण भी तो हम ही करते हैं, उससे सुख पाने की कामना करके । तात्कालिक क्षण मात्र के सुख के उपरांत जब दुःख मिलता है तब कहते हैं कि मन और इंद्रियों पर नियंत्रण करो। क्यों पोषण करते हो आप इस विजातीय मन का?हम सत चित आत्मा ही हैं और आत्मा सच्चिदानंद परमात्मा का अंश है।ऐसे में परमात्मा और हम सजातीय हुए कि नहीं हुए? हुए न। मन, बुद्धि, अहंकार, इन्द्रियां,शरीर आदि सब कुछ असत है, विजातीय है।फिर विजातीय से क्यों जाकर चिपकना, अगर चिपकना ही है तो अपने सजातीय परमात्मा से चिपको।
      गीता में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को दूसरे अध्याय में स्थितप्रज्ञ होने का कहते है, बुद्धि को निश्चयात्मक कर 'स्व' में स्थित होने को कहते हैं, परंतु अर्जुन ने उनकी बात मानी क्या ? नहीं मानी, अगर मानी होती तो गीता केवल दो अध्याय में ही सिमट कर रह जाती, अठारह अध्याय की नहीं होती।अर्जुन नहीं समझा, तब श्री कृष्ण ने उसको मन और इंद्रियों पर नियंत्रित स्थापित करने को कहा, काम को मार डालने का कहा, ज्ञान से कर्मों को नष्ट करने का कहा परंतु अर्जुन को नहीं समझना था, सो नहीं समझा।अंततः भक्ति योग के मार्ग से होते हुए शरणागति पर जाकर भगवान की बात समाप्त हुई।इस प्रकार गीता में कर्म, ज्ञान और भक्ति- ये तीन मार्ग बतलाये हैं भगवान श्री कृष्ण ने 'स्व' में स्थित होने के लिए।तीनों रास्ते सही हैं, चलने के लिए जो उपयुक्त लगे अपने लिए चुन लीजिए ।प्रत्येक रास्ते पर चलकर आप 'स्व' तक पहुंचकर उसमें स्थित हो सकते हैं।
क्रमशः
प्रस्तुति -डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्

Wednesday, February 6, 2019

पुनर्जन्म-21

पुनर्जन्म-21
आवागमन से मुक्ति -
   हम प्रवेश करते हैं, इस श्रृंखला के अतिमहत्वपूर्ण भाग में। पुनर्जन्म की प्रक्रिया को जानना केवल असत को जानना है और पुनर्जन्म से बच निकलना बिना सत को जाने संभव नहीं है।हम सब प्रायः पुनर्जन्म में जाने के लिए ही कर्म करते हैं, उससे बचने के लिए नहीं।संसार बनाया प्रकृति ने, प्रकृति बनाई परमात्मा ने।वह प्रकृति को बनाकर उसमें आसक्त नहीं हुआ,उसमें लिप्त नहीं हुआ और न ही उसका कर्ता बना।इधर एक हम है, जोकि कहलाते उसी के अंश है परंतु आसक्ति के वशीभूत होकर प्रकृति के इस संसार में स्वयं का अपना एक अलग संसार बना बसा लेते हैं।
      स्वयं का बनाया संसार ही हमें दुखी करता है क्योंकि हम उस संसार से सुख प्राप्त करना चाहते हैं। इस प्रकार सुख की चाहना ही हमें संसार बंधन में बांध देती है।फिर उस चाहना,उस कामना को पूरी करने के लिए कर्म, कामना पूरी होते ही किसी नई कामना का जन्म और अहंता, ममता,आसक्तियों और नए कर्मों का फांस गले में आ पड़ता है। खूब छटपटाते हैं, मुक्त होने के लिए परंतु असहाय होकर कोल्हू के बैल बने घूमते रहते हैं।कोई रास्ता दिखलाई नहीं पड़ता क्योंकि सत होकर भी असत की, असत से ही चाहना करने लगे हैं ।संसार से चाहना कभी किसी की पूरी नहीं होती क्योंकि जो कल था, वह आज नहीं है, जो आज है वह कल नहीं रहेगा।परिवर्तन होना संसार का नियम है जबकि हम अविनाशी है।हम अपने इस अविनाशी स्वरूप को भुला बैठे हैं।असत को पाकर असत तो खुश हो सकता है परन्तु सत नहीं।हमारा मन खुश हो सकता है क्योंकि वह असत है।मन असत है उसका एक दिन मिटना निश्चित है, फिर सत होकर हम क्यों उससे चिपके हुए हैं? हम सत होकर उस असत मन से चिपक गए हैं, तभी तो वह समाप्त नहीं हो रहा है।जिस दिन आप अपने सत्य स्वरूप में स्थित हो जाएंगे,मन स्वतः ही समाप्त हो जाएगा।
क्रमशः
प्रस्तुति -डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्

Tuesday, February 5, 2019

पुनर्जन्म-20

पुनर्जन्म-20
पुनरागमन(Re entry) -
       प्रत्येक जीवात्मा के मनुष्य शरीर को त्यागने के पश्चात कलन के आधार पर पुनः इस संसार में लौटना निश्चित है। नए शरीर को लेकर जीवात्मा के इस प्रकार संसार में लौटने को पुनर्जन्म अथवा उसका पुनरागमन कहा जाता है। पूर्व मानव देह त्यागने के उपरांत नई देह प्राप्त करने में कितना समय लगता है, यह कलन पर निर्भर करता है। कलन के अनुसार निर्धारित क्रम में सबसे पहले जिस प्राणी की देह मिलनी है, वह अगर तत्काल उपलब्ध न हो तो उसमें कुछ समय लग सकता है ।तब तक जीवात्मा को अंतरिक्ष में इंतज़ार करना पड़ता है। देह मिलने का क्रम जो कलन के अनुसार निश्चित किया जा चुका है, वह किसी भी साधारण परिस्थिति में टूट नहीं सकता ।
        मनुष्य के अतिरिक्त अन्य सभी प्राणियों में एक देह से दूसरी देह को प्राप्त करने में जीवात्मा को कोई समय नही लगता क्योंकि इन समस्त प्राणियों की योनियां केवल भोग योनियां हैं।कलन के अनुसार उनको मिलने वाले विभिन्न शरीरों का क्रम पहले ही निश्चित किया जा चुका होता है।मनुष्य की योनि भोग और कर्म, दोनों प्रकार की योनि है अर्थात मनुष्य देह पाकर पूर्व मानव जन्म के शेष रहे कर्मों के फलों को भोगना और अपनी इच्छानुसार नये कर्म करना, दोनों एक साथ किये जा सकते हैं। मनुष्य देह की प्राप्ति से पूर्व गर्भ काल के 9 महीनों की अवधि में जीवात्मा अनेकों बार गर्भ में प्रवेश करती है और बाहर निकल आती है। गर्भावस्था के पूर्ण हो जाने पर ही उस शरीर के बारे में पूर्णतया संतुष्ट होने के उपरांत ही जीवात्मा उसमें एक जीवन के लिए प्रवेश करती है ।
       पुनरागमन की एक अन्य विधि परकाया प्रवेश भी है, जिसमें योगी अपनी जर्जर होती देह को त्याग कर अपने सामने उपलब्ध हुए युवा शरीर में अपनी जीवात्मा को प्रवेश करा लेता है । ऐसी क्षमता प्राप्त कर पाना बड़ा ही दुर्लभ है।ऐसा होना केवल तभी सम्भव है, जब योग की उच्चावस्था पर योगी पहुंच चुका होऔर उसको मानव जीवन में परमार्थ के लिए परमात्मा की इच्छानुसार दीर्घावधि तक बने रहना आवश्यक होता है।
     मनुष्य योनि भोग और कर्म योनि के साथ साथ योग योनि भी है । मनुष्य शरीर मिलने का मूल उद्देश्य ही योग है, परमात्मा से योग। मनुष्य योनि में रहते हुए व्यक्ति मोक्ष को प्राप्त हो सकता है। इस शरीर में जीवन के रहते हुए भी व्यक्ति परम जीवन अर्थात मोक्ष को उपलब्ध हो सकता है। ऐसी अवस्था को 'जीवन मुक्ति' कहा जाता है अर्थात व्यक्ति जीवन मुक्त हो जाता है।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Monday, February 4, 2019

पुनर्जन्म-19

पुनर्जन्म-19
गमन(Departure/Exit) -
       मनुष्य जीवन के रहते ही संचित कामनाओं, कर्मों आदि का आकलन और गणना होती रहती है। शरीर के जर्जर होने अथवा किसी दुर्घटना में क्षत विक्षत हो जाने या फिर आत्महत्या कर लेने पर जीवात्मा को तुरंत ही यह शरीर छोड़ देना पड़ता है।ऐसा होते ही चैतन्य शरीर अचेतनता को प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार आत्मा के सूक्ष्म शरीर के साथ स्थूल शरीर को छोड़ देने को ही जीवात्मा का शरीर से गमन करना कहा जाता है ।
      कई बार ऐसी स्थिति आती है जब चिकित्सक किसी व्यक्ति को brain dead घोषित कर देते हैं, ऐसा होने पर जीवात्मा की स्थिति क्या होती है, वह शरीर में ही रहती है अथवा शरीर छोड़ चुकी होती है ? ऐसे व्यक्ति के शरीर के सभी अंग जैसे हृदय, यकृत,फेंफड़े और गुर्दे आदि सुचारू रूप से कार्य करते रहते हैं परंतु मस्तिष्क मर जाता है अर्थात मस्तिष्क की चेतना समाप्त हो जाती है। शास्त्रों के अनुसार ऐसे व्यक्ति के स्थूल शरीर को जीवात्मा छोड़ चुकी होती है। आत्मा का इस प्रकार गमन करने के बाद दो परिणाम हो सकते हैं।प्रथम तो वह जीवात्मा कोई दूसरा शरीर प्राप्त कर चुकी होती है अथवा वह स्वर्गादि लोक में से किसी एक लोक में जाकर कलन के अनुसार वहां के भोगों को भोगने लगती है।
      Brain dead घोषित करने पर चिकित्सक उस व्यक्ति के परिवार जनों को अंगदान करने की सलाह देते हैं।अंगदान से किसी एक या अधिक व्यक्तियों के जीवनकाल को बढ़ाया जा सकता है जिनमें वे अंग क्रियाशील न रहे हो परंतु मस्तिष्क पूर्ण रूप से स्वस्थ हो। जिस व्यक्ति को brain dead व्यक्ति का अंग लगा हो उस पर इसका क्या प्रभाव पड़ता है, क्या उस व्यक्ति में अंगदाता के अंग देने से कोई परिवर्तन आता है ? वैज्ञानिक इस पर शोध कर रहे हैं। हृदय के अतिरिक्त अन्य अंगों के प्रत्यारोपण से कोई परिवर्तन नहीं आता, परंतु हृदय प्रत्यारोपण में चौंकाने वाले परिणाम सामने आये हैं,जो हमारे ऋषि मुनियों के द्वारा कही गयी बात को सत्य सिद्ध कर रहे हैं। एक शराब के आदी (alcohol addict)व्यक्ति को एक brain dead हुए सदैव शराब से दूर रहने वाले व्यक्ति का हृदय प्रत्यारोपित किया गया। हृदय प्रत्यारोपण किये गए व्यक्ति के पूर्णरूप से स्वस्थ होने पर पाया गया कि शराब के नशे का आदी वह व्यक्ति अब उसी प्रकार शराब से घृणा करने लगा जैसी शराब के प्रति घृणा उस हृदय देने वाले व्यक्ति को जीवित रहते थी। मन का विस्तार हृदय तक होता है, ऐसा शताब्दियों पहले ऋषियों ने कह दिया था, वही बात आज सत्य साबित हो रही है। भौतिक शरीर से गमन के बाद कामनाओं, ममता और कर्म के फल को पाने के लिए वापिस यहीं इसी संसार में एक नए शरीर के साथ लौटना होगा, पुनर्जन्म लेकर । इस प्रकार पुनरागमन की प्रक्रिया से ही तो यह संसार निरंतर गतिमान बना हुआ है।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

पुनर्जन्म-18

पुनर्जन्म-18
        विभिन्न प्राणियों की देह में भ्रमण करने का क्रम अनवरत तब तक चलता है जब तक व्यक्ति का मानस पटल किसी कामना,कर्म व आसक्ति के अंकित होने से वंचित नहीं हो जाता। ज्योंहि मन शुद्ध हुआ, आत्मा को फिर नए शरीर की आवश्यकता ही नहीं रहती और वह अपने मूल स्वरूप को प्राप्त हो जाती है।परंतु ऐसा होना तब तक संभव नहीं है,जब तक मनुष्य के जीवन में उसके मन में अहंता, ममता,आसक्ति,कर्ता भाव, विषयभोग की कामनाएं आदि बनी रहेगी।
    गुरु नानक अपने शिष्यों के साथ एक शहर के बाजार से गुज़र रहे थे । उसी समय एक दूकान का मालिक बोरे में रखे धान में मुंह मार रहे बकरे को लकड़ी से पीटकर भगाने का प्रयास कर रहा था। यह देखकर गुरु नानक को हंसी आ गयी। शिष्यों ने उनसे हंसी आने का कारण पूछा । गुरु नानक ने कहा कि इस बकरे को देख रहे हो न, वह इस दूकान पर बैठे हुए व्यक्ति का बाप है।इसके बाप की आसक्ति इस दूकान में थी। देह त्याग के बाद यह अपनी आसक्ति के कारण बकरा बनकर यहां पहुंच गया है।रात को इसी दूकान के बाहर बैठता है। भूख लगी तो कुछ खाने को यहीं आ जाता है।उसके लड़के को,जोकि अब इस दूकान का मालिक है,पता नहीं है कि यह बकरा इसका बाप ही है और वह इसको पीटकर दूर भाग रहा है । इसका बकरा बना बाप भी यह नहीं समझता है कि अब यह दूकान उसकी नहीं है और बार बार लौटकर वापिस अपनी दूकान समझकर यहां आ जाता है।
 यह दृष्टांत स्पष्ट करता है कि आसक्ति कई जन्म तक नहीं छूटती है । इसकी प्रक्रिया है-आसक्ति की भावना,उसका अंकन, संचयन, कलन और अंततः बकरे के शरीर की प्राप्ति । वही जीवात्मा,वही दूकान और वही पुत्र।अंतर केवल इतना कि न दूकान उसको अपना समझती है और न ही उसका लड़का। वास्तव में सत्य भी यही है कि इस संसार में कोई किसी का नहीं है । यह केवल एक यात्रा है जिसमें केवल चलते जाना है, ठहरना कहीं नहीं है, सब कुछ पीछे छूट जाना है।ऐसी ही भ्रांति लेकर हम सब जी रहे हैं कि यह मेरा लड़का, यह मेरी दूकान ।इससे पहले की देह छोड़ने के बाद बकरा बनना पड़े,पहले ही यह जीवन रहते मुक्त हो जाएं, जीवन मुक्त।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।

Saturday, February 2, 2019

पुनर्जन्म-17

पुनर्जन्म-17
कलन(Calculus)-
      कहा जाता है कि जर्जर देह को छोड़ने के बाद जीव जाता है, चित्रगुप्त के पास जो कि हमारे कर्मों का लेखा जोखा रखते हैं । यह चित्रगुप्त कौन है?हमारे चित्त में गुप्त रूप से अंकित चित्र के रूप में शेष रही हमारी कामनाएं,पीछे छूटी गई ममता व आसक्तियां तथा फलित होने से शेष रह गए कर्म हैं । वह चित्त और उससे संलग्न चैतन्य आत्मा ही चित्रगुप्त है।
       चित्त में अंकित भावन और उस अंकन के संचयन को देखने से पता चलता है कि कौन कौन सी बातें इस मनुष्य जीवन की उसके मानस (मन के)पटल पर अंकित हुई है।इन सबका अवलोकन कर लेने के उपरांत ही आत्मा निर्णय करती है कि कौन सी कामना किस प्राणी के शरीर को प्राप्त किये जाने से पूरी होगी? पूर्वजन्म में किये गए कौन से कर्म का क्या फल प्राप्त होगा और उन फलों को कौन कौन से प्राणी के शरीरों को प्राप्त कर भोगना होगा? इसी प्रकार जिस प्राणी अथवा वस्तु में ममता अथवा आसक्ति शेष रह गयी है, उस व्यक्ति अथवा वस्तु तक कौन से प्राणी का शरीर प्राप्त कर सुगमता से पहुंचा जा सकता है? इन सब की गणित चलती रहती है और फिर इन तीनों (कामना, ममता/आसक्ति और कर्मफल) की पूर्णता को प्राप्त करने के लिए मिलने वाली योनियों का एक निश्चित क्रम तय किया जाता है।इस क्रम में अंतिम स्थान पर पुनः मानव शरीर मिलना निश्चित होता है। कहने का अर्थ है कि सभी भोग योनियों को भोगने के बाद अंत में मनुष्य देह मिलना निश्चित है। इस प्रकार सभी योनियों के अंत में जब मानव योनि मिलती है, तब उसका एक मात्र उद्देश्य संसार में आवागमन से मुक्त होना ही है। परंतु मनुष्य अपने उद्देश्य एक बार फिर भूल जाता है और आवागमन के चक्र से मुक्त नहीं हो पाता।
    यह संचयन का कलन (calculus) कब होता है ? हमारे मन मे एक धारणा बैठी हुई है कि यह कलन देह की मृत्यु के बाद प्रारम्भ होता है। नहीं, चित्त में अंकित भावन के संचयन का कलन आत्मा मनुष्य शरीर में रहते हुए करती रहती है तभी तो देह के जर्जर होते ही वह चित्त(मन), बुद्धि और अहंकार के साथ शरीर छोड़ देती है और अंतरिक्ष में विचरण करने लगती है।चित्त, मन, बुद्धि और अहंकार सूक्ष्म शरीर कहलाते हैं और आत्मा कारण शरीर कहलाती है । आत्मा सूक्ष्म शरीर को लेकर (जीवात्मा) कलन के अनुसार निश्चित किये गए क्रम में विभिन्न प्राणियों के शरीर प्राप्त करती और छोड़ती रहती है और अंत में पुनः मनुष्य शरीर को प्राप्त कर लेती है।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।। हरि:शरणम्।।

Friday, February 1, 2019

पुनर्जन्म-16

पुनर्जन्म-16
    चित्त में स्मृतियां बनने और उसके संचित होने का कारण है, स्वयं को कर्ता और भोक्ता मान लेना। कर्ता और भोक्ता होना अहंता और ममता पैदा करता है।यह कार्य मैंने किया, उसको मैं सबक सीखा दूंगा, मैं और अधिक धन का संग्रह करूंगा, यह/वह सुख भोगूँगा, पुत्र अथवा पत्नी मेरे प्रिय हैं उनको कभी भी अपने से अलग नहीं होने दूंगा आदि कई कारण है जो स्मृति बन कर मन में संचित हो जाते हैं।सभी के पीछे एक मात्र अहं और मम अर्थता 'मैं' और 'मेरा' भाव का होना है।
       जब आप कर्ता बनोगे तो यह निश्चित है कि भोक्ता भी आपको ही बनना होगा कोई दूसरा उस कर्म का भोक्ता बन ही नहीं सकता।कुछ सांसारिक सुख चाहोगे तो कर्म करने होंगे और ऐसे में कर्मों का फल मिलना अवश्यम्भावी है, वह भी अभी नहीं बल्कि भावी जीवन  में मिलने हैं। सुख की चाहना ही दुःख के द्वार खोलती है।मनुष्य को कर्मों के अनुसार ही भावी जीवन में फल प्राप्त होंगे और उन्हीं योनियों में मिलेंगे, जिन योनियों की उसने इस जीवन में रहते चाहना की है।इस सारी प्रक्रिया को, संचित भावन की गणना जिससे भावी योनि और कर्म फल मिलने निश्चित होते हैं, उसको कलन (calculus) कहा जाता है।कलन अर्थात गणना करना। तो आइए, चलते हैं इन सब कर्मों, स्मृतियों और अंकित हो गई कामनाओं, आसक्तियों आदि के साथ एक मात्र गणक चित्रगुप्त के पास, अपने द्वारा संचित की गई समस्त सामग्रियों का आकलन करने ।
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
।।हरि:शरणम्।।