Friday, March 7, 2014

जीवन का अर्थ |

                           जीवन परमात्मा का प्रसाद होता है। इसे यों भी कह सकते हैं कि जीवन पूर्ण परमात्मा की आंशिक अभिव्यक्ति है। इसलिए हम मानते हैं कि हमारे अंतर्मन में परमात्मा निवास करता है। परमात्मा प्राणरूप में हमारे सूक्ष्म और स्थूल शरीर का संचालन करता है। इसलिए जीवात्मा को परमात्मा भी कहते हैं। हमारी आत्मा का कोई स्वरूप नहीं होता, यह अतिसूक्ष्म है, शक्तिरूप है। लेकिन जब कभी बाहर का प्रभाव अंतर्मन पर पड़ने लगता है, तो आत्मा की दिव्यता कम होने लगती है। इसीलिए हमारे साधक साधना करते हैं ताकि बाहर की विकृति अंतर्मन को दूषित न कर सके।
                        सच कहा जाए, तो हमारा जीवन एक महोत्सव है। यह आनंदस्वरूप है, केवल ध्यान रखने की आवश्यकता है कि हमारे आनंद के सागर में विकारों की लहरें न उठें। इसलिए पतंजलि संयम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा और समाधि ( अष्टांग योग ) के अभ्यास की बात कहते हैं। ऐसा इसलिए, क्योंकि अगर जीवन को रसपूर्ण बनाना है, तो साधना की अग्नि में उसे तपाना पड़ेगा, तभी जीवन को दिव्य बनाया जा सकता है। सामान्यत: लोग अपने ही विकारों से जीवन की दिव्यता को धूमिल बना लेते हैं क्योंकि सारे विकार स्व अर्जित होते हैं। अगर थोड़ी सी सतर्कता बरती जाए, तो हमारा जीवन आनंदपूर्ण बन सकता है।
                     अनेक लोग अकारण निराशावादी बन जाते हैं, कई लोग तनावग्रस्त और चिंतित रहने लगते हैं। अगर इनके कारणों पर विचार किया जाए तो इनके तनाव और चिंता का कोई प्रबल कारण नहीं दिखता। अकारण चिंतित होकर कई लोग अपने जीवन के आनंद से वंचित रह जाते हैं। इसलिए प्रसन्न रहने का अभ्यास किया जाना चाहिए। संसार में न केवल दुख है और न सुख ही सुख है। हमारा दृष्टिकोण जैसा होता है, संसार उसी तरह दिखने लगता है। आशावादी व्यक्ति को चारों ओर प्रकृति की मुस्कान दिखती है और निराशावादी व्यक्ति को इस संसार में केवल कांटे ही दिखते हैं। हमें जीने का नजरिया बदलना होगा, हमें जीवन जीने की विधि सीखनी होगी, तभी हम जीवन का सार्थक उपयोग कर सकते हैं। जीवन का एक-एक पल कीमती है, आनंदपूर्ण है। जीवन जीने की यह कला सीख लेना ही आपके जीवन का सही अर्थ है |
                     || हरिः शरणम् ||

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