Saturday, March 29, 2014

तीर्थ स्थल-दिव्य स्थल |

                     जब कभी इस असीम ब्रह्मांड में ऊर्जा का संग्रह किया जाता है और जब किसी स्थान पर उसे केंद्रित कर दिया जाता है तो वह स्थान दिव्य बन जाता है। इन्हीं दिव्य स्थानों पर दिव्य आत्माओं का अवतरण होता है। इसलिए ऐसे स्थानों को दिव्यभूमि, तीर्थस्थल या तीर्थस्थान कहा जाता है।
                      कोई भी महापुरुष साधना से अनंत परमात्मशक्ति प्राप्त कर लेता है। वह संसार में व्याप्त दिव्य शक्तियों को एकत्रकर उन्हें अपने शरीर में केंद्रित कर लेता है और फिर वह अपनी शक्ति को निकटवर्ती वातावरण में प्रसारित करता है। इसीलिए हमारे देश में जहां कहीं भी तीर्थस्थान हैं वहां का वातावरण वृक्ष आदि सब कुछ ऊर्जावान बन जाते हैं। उनमें दिव्यता का बोध होने लगता है।
                     जैसे भगवान बुद्ध की साधना से गया का बोधिवृक्ष, साईंबाबा के आश्रम के निकट स्थित मीठे नीम का पेड़ आदि। इसी तरह महावीर ने जहां साधना की उसे अहिंसा क्षेत्र कहते हैं। उस स्थान के प्रभाव के कारण हिंसक जीव भी वहां पर अहिंसक बन गए थे।
                           देश में ऐसे कई स्थानों पर ऊर्जा क्षेत्रों से परिपूर्ण तीर्थस्थल हैं। तीर्थ का एक अर्थ सामान्य तौर पर यह भी है-वह स्थान जहां की भूमि, पेड़, पौधे, नदी-झरने आदि दिव्य ऊर्जा से ओत-प्रोत हो गए हों। इसलिए जब कभी हम देवभूमि में प्रवेश करते हैं तो हमारे जड़ता मूलक अज्ञान को झटका लगता है। हमारा तन-मन वहां की दैवीय ऊर्जा से प्रभावित होने लगता है। शायद ऐसा हर जगह नहीं होता है, लेकिन यदि आप काशी विश्वनाथ मंदिर, वैष्णोमाता, अमरनाथ, केदारनाथ, या अजमेर शरीफ आदि स्थानों पर जाएं तो निश्चित ही वहां का वातावरण हमें प्रभावित करने लगता है। हम तुरंत बदल जाते हैं। हम वह नहीं रहते हैं जो पहले थे।
                        गुरुस्थान भी ऐसा ही होता है। वहां से लौटने पर हमारे अंदर कुछ न कुछ रूपांतरण होता ही है। ऐसी अवधारणा है कि जिन स्थानों पर हमारे तीर्थस्थान या मंदिर हैं, उन स्थानों पर प्राचीनकाल में कभी दिव्यशक्तियों का वास था। पवित्र देवभूमि से, उसके मूल स्थान से आज भी मिट्टी लाने का प्रचलन है।                                                                  
                                ।। हरि: शरणम् ।।

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