अलग हो जाने का भय। बिछड़ जाने का भय। मां के गर्भ से अलग होने से पहले आपको कोई भय नहीं था, क्योंकि वहां आप अकेले थे। आपकी हर आवश्यकता की पूर्ति वहां हो रही थी। कोई चिंता, परेशानी ही नहीं थी। किसी प्रकार का भय नहीं था। सब कुछ मां पूर्ण किया करती थीं। आप वहां पर सुरक्षित थे, लेकिन जैसे ही आप मां के गर्भ की दुनिया को छोड़ते हैं, तब आपको भय लगने लगता है। यह ठीक वैसे ही होता है, जैसे एक पेड़ जब जमीन से बाहर आ जाता है। वह जब तक जमीन के भीतर था तब तक बाहर के थपेड़ों से बचा हुआ था। शांत था। कोई संघर्ष नहीं था। और बाहर आते ही वह पौधा संघर्षो में घिर गया। पहले उसकी रखवाली धरती कर रही थी और बाहर आते ही थपेड़ों से घिर गया। आंधी-तूफानों में आ पड़ा। वह वृक्ष बनकर बाहर की सारी परिस्थितियों से लड़ने की तैयारी करने लगा। उस वृक्ष को अब धूप बर्दाश्त करनी पड़ती है। हवा के हर झोंकों का सामना करना पड़ता है। बाढ़ का सामना करना पड़ता है। आपने न जाने कितने फूलों के पौधों को उखाड़-उखाड़ कर फेंका होगा या पेड़ों को एक जगह से उखाड़कर दूसरी जगह लगाया होगा। उस वक्त आपने देखा होगा, उस पेड़ की क्या दशा होती है। जब आप उखाड़ते हो तब वह कांपता है। वह इस तरह से झूलने लगता है जैसे उस पौधे को पता हो कि उसके साथ कुछ गलत हो रहा है।
अब जमीन उसकी देखभाल नहीं कर सकती, क्याेंकि उसे आपने उखाड़ दिया है। परित्याग कर दिया है। ऐसा भय ही आपके साथ है। आपको भी अपनी धरती से अलग कर दिया गया है। आप अलग नहीं हुए हैं। आप अलग होना भी नहीं चाहते थे। आपका परित्याग किया गया है। आपको धरती से काटकर अलग किया गया है। आपकी यह मांग नहीं थी। जो कुछ हुआ वह सब अचानक हुआ। वह सब एक विधि के साथ हुआ और आप भयभीत हो गए। अब आप अलग कर दिए गए हो। आपकी मांग बनी हुई है। अब वह सब प्रयासों के बगैर पूरी नहीं हो सकती। संघर्षो के बिना जीवन जिया नहीं जा सकता, यह सब आपको दिखाई पड़ जाता है। इसलिए संघर्ष के लिए हमेशा तैयार रहें और इनसे कभी भी घबराना नहीं चाहिए।
|| हरिः शरणम् ||
|| हरिः शरणम् ||
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