Tuesday, March 4, 2014

जीवन-लक्ष्य |

                   मनुष्य जीवन के दो लक्ष्य हैं। पहला, कुसंस्कारों से छुटकारा पाना और परिष्कृत दृष्टिकोण अपनाना। परिष्कृत जीवन के साथ जुड़ी हुई आनंद भरी उपलब्धियां स्वर्ग कहलाती हैं और दुष्प्रवृत्तियों से छुटकारा पाने को ही मुक्ति कहते हैं।जीवन का दूसरा लक्ष्य है भगवान द्वारा ही निर्मित इस भौतिक संसार को, इस विश्व उद्यान को अधिक सुरम्य, समुन्नत और सुसंस्कृत बनाने में योगदान देना।
                   इन दोनों प्रयोजनों को पूरा करने में जो जितना योगदान देता है वह उतना ही बड़ा भक्त होता है। इस मार्ग पर चलने वाले संत, ऋषि, देवात्मा आदि नामों से पुकारे जाते हैं।उन्हें असीम आत्मसंतोष प्राप्त होता है। वे लोक-सम्मान के पात्र होते हैं। ऐसे लोगों को दूसरों से सहयोग मिलने से अपने उच्चस्तरीय उद्देश्यों की पूर्ति में असाधारण सफलता भी मिलती है। उनके कृत्य ऐतिहासिक होते हैं और उनके प्रभाव से तमाम लोगों को ऊंचा उठने के और आगे बढ़ने के अवसर मिलते हैं।
                 अतः बुद्धिमता इस बात में है कि आत्म-तत्व और शरीर दोनों की आवश्यकताओं का ध्यान रखा जाए। श्रम और बुद्धि का उपयोग दोनों क्षेत्रों के लिए इस प्रकार किया जाए कि शरीर स्वस्थ रहे और आत्मा अपने महान लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल हो जाए, किंतु यह करना आसान नहीं है। जो बुद्धि आए दिन अनेक समस्याओं को सुलझाने में, संपदाओं और उपलब्धियों के उपार्जन में पग-पग पर चमत्कार दिखाती है वह केवल मौलिक नीति निर्धारण, सुख-सुविधाओं के संचय-संवर्धन में ही लग जाती है। बुद्धि का यह एकपक्षीय असंतुलन ही जीवात्मा का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है। उसी से छुटकारा पाने के लिए ब्रह्मज्ञान, आत्मज्ञान और तत्वज्ञान के विशालकाय कलेवर की संरचना की गई है।
               बुद्धि को आत्मा के स्वरूप और उसके लक्ष्य को समझने का अवसर देना ही उपासना का मूलभूत उद्देश्य है। भौतिक जगत में शरीर के लिए अनेक आवश्यक सुविधा-साधन उपलब्ध हैं। ठीक उसी प्रकार एक चेतन जगत भी है। उसमें भरी हुई संपदा आत्मिक आवश्यकताओं को पूरा करती है। ब्रह्म सर्वत्र विद्यमान है, पर उसकी अभीष्ट अनुभूति करने के लिए भी पुरुषार्थ करना पड़ता है।इसको ही भक्ति या उपासना कहा जाता है | उपासना-प्रक्रिया को ईश्वर और जीव के बीच विशिष्ट आदान-प्रदान का द्वार खोलना कह सकते हैं। उपासना-प्रक्रिया का उद्देश्य अंतस चेतना को परिष्कृत करना है। दोनों लक्ष्यों को साधना ही मानव जीवन का उद्देश्य होना जाहिए, तभी इसकी सार्थकता है |
                  || हरिः शरणम् || 

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