Monday, March 24, 2014

सेवा-कर्म-एक भगवत कर्म |

                         आखिर हमारे लक्ष्मीनारायण भला दरिद्रनारायण कैसे हो सकते हैं? फकीरों के संदेश तो इसी ओर इशारा करते हैं, 'बेबस गिरे हुओं के बीच तू खड़ा था। मैं स्वर्ग देखता था, झुकता कहां चरन में।' दीनबंधु हम पर प्रसन्न तभी होंगे जब हम वंचित लोगों को प्रेम से गले लगाएं और निश्छल भाव से उनकी सेवा करें।
                         दीनों की 'आह' बनकर परमात्मा प्रतिफल हमें पुकारता है और हम हैं कि भव्य मंदिरों में जाकर भजन में उसकी पुकार सुनना चाहते हैं। मंदिर जाना अच्छी बात है, लेकिन जरूरतमंदों की मदद करना भी ईश्वर की अनुभूति करा सकता है।
                         दुखियों के द्वार पर खड़ा होकर ईश्वर हमारी बाट जोहता है और हम उसे गिरि-कंदराओं में खोजते-फिरते हैं। दुखियों की झोपड़ी में कृष्ण की बज रही वंशी को सुनिए और मजदूरों के पसीने में उसे निहारें। अपने हृदय-द्वार खोलें, यहीं पर उसका दीदार हो जाएगा।
                          भगवान का कोई घर नहीं है। वह सृष्टि के कण-कण में रम रहा है। हम तो दीन-दुखियों को ठुकराकर देवालयों में प्रभु को ढूंढ़ते हैं। प्रभु का असली द्वार दीनों का हृदय है। जिसका कोई नहीं है, उसका भगवान है। वह जरूरतमंदों की आह में मिलेगा, भूखों की भूख में मिलेगा और मजलूमों के चीथड़ों में मिलेगा। दुखियों का दिल दुखाना मानो मंदिर को ढहाना है। कमजोरों को दबाना सबसे बड़ा अधर्म है। संत मलूकदास भी यही कहते हैं। दरिद्र की सेवा ही ईश्वर की सच्ची सेवा है। आस्तिक वही है, जिसका दिल गरीबों को देखते ही पसीजने लगता है। तभी तो कबीरदास कहते हैं, 'कबिरा सोई पीर है, जो जाने पर पीर'। आस्तिक वह नहीं है जो इस पाखंड में उलझा रहता है कि पानी से भरा लोटा दाहिने हाथ से पिएं या बाएं हाथ से। इनसे बेहतर तो ऐसे नास्तिक हैं जो स्वयं अच्छे ढंग से जीते हैं और जरूरतमंदों के काम आते हैं।
                        भगवान सुदामा को मित्र बनाते हैं और जूठी पत्तलें उठाते हैं। प्रभु के प्रति हमें कृतज्ञ होना चाहिए कि उसने करुणा के सदुपयोग का अवसर दिया है। दरिद्रों की सेवा करते समय यह भाव भी मन में नहीं आना चाहिए कि हम सेवा कर रहे हैं। लेने का भाव हमारे मन में इतनी गहराई तक पैठ गया है कि हम प्रेम, माधुर्य, समता और करुणा आदि गुणों से दूर होते जा रहे हैं। दीन को केवल मुस्कान दे दो तो वह धन्य हो जाएगा। जिसके दिल में सेवा का जज्बा नहीं है उस पर खुदा भी रहम नहीं करता।
                      || हरिः शरणम् ||

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