Monday, March 31, 2014

अंधकार से प्रकाश की ओर |

                               स्वयं को जानकर और समझकर ही मनुष्य ऊंचाई की मंजिलों की तरफ बढ़ सकता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि हम एक परमपिता परमेश्वर की संतान हैं, उसके अंश हैं, परंतु आज हर व्यक्ति भाग रहा है, एक जगह से दूसरे जगह की ओर। व्यक्ति शायद स्वयं को खोज रहा है, क्योंकि उसने स्वयं को खो दिया है।
                  स्वयं के साथ संबंधों को तोड़ लिया है और अब उसे ही खोज रहा है। यदि आप अपने आस-पास के हर व्यक्ति की तरफ ध्यान देंगे, तो सबमें यही बात नजर आएगी। हर व्यक्ति स्वयं को भूलकर एक व्यर्थ की दौड़ में भागता जा रहा है। वह स्वयं को भूल गया है कि आखिर वह है कौन? क्या खोज रहा है, कहां खोज रहा है? उसे स्वयं पता नहीं, परंतु फिर भी हरेक से पूछ रहा है, हरेक के बारे में पूछ रहा है।
                   आज आवश्यकता इस झंझावात से निकलने और स्वयं के अस्तित्व को समझने की है। यात्रा हो, परंतु शून्य से महाशून्य की ओर, परिधि से केंद्र की, अज्ञान से ज्ञान की ओर, अंधकार से प्रकाश की ओर, असत्य से सत्य की ओर। स्वयं के अस्तित्व को तलाश कर ही हम जीवन के सही मूल्यों को समझ सकेंगे।
               हम प्राय: ही अपना जीवन कंकड़-पत्थर बटोरने में गंवा देते हैं। सत्ता, संपत्ति, सत्कार आदि सब कुछ पाकर भी अंतत: शून्य ही हाथ लगता है। तो हम क्यों न आज ही जाग जाएं, उठ खड़े हों। स्वयं की खोज करके अपनी अंतरात्मा को प्रकाशित करें। हम बहिमरुखी हैं, अंतमरुखी नहीं। बस, यही हम सबको समझना है। स्वयं को समझकर ही हम उस एक परमात्म तत्व में विलीन हो सकते हैं। परमपिता परमेश्वर के प्रति हम कृतज्ञता तक ज्ञापित नहीं करते, जिसने अपनी परम कृपा से हमें अपना ही अंश बनाकर इस धरा पर मनुष्य रूप में भेजा है।
                         यदि हम स्वयं के प्रति थोड़ा-सा सचेत हो जाएं, तो बात बनते देर नहीं लगेगी। आइंस्टीन जैसा महान वैज्ञानिक ही नहीं, बल्कि तमाम ऐसे लोग जिन्होंने जीवन में कुछ गौरवशाली कार्य किए हैं, वे सभी स्वयं के अंदर निहित अथाह सागर को समझने और मापने की बात करते हैं। जो कृत्रिमता से कोसों दूर हो, जहां हो एक गहन शांति। शांति मिलती है, कामनाओं को शांत करने से। जीवन मात्र चलते रहने का नाम नहीं है, बल्कि जीवन में कुछ अच्छा कर गुजरने का नाम जिंदगी है। इसे जानकर ही आगे बढ़ना सही अर्थो में जीवन की सार्थकता है।
         आप सब को नव संवत्सर २०७१ की हार्दिक शुभकामनाएं | नव वर्ष आपके लिए मंगलमय हो | ईश्वर से यही प्रार्थना है | 
                      ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Sunday, March 30, 2014

मौलिक प्रसन्नता |

                      मनुष्य के चेहरे की मुस्कान इस बात का प्रमाण नहीं है कि वह अंत:करण से भी उतना ही प्रसन्न है जितना बाहर से दिखाई देता है। प्लास्टिक का कोई आकर्षक फूल या पौधा असली होने का भ्रम तो पैदा कर सकता है, लेकिन मौलिक प्रसन्नता या असली खुशबू देने में किसी भी रूप में समर्थ नहीं हो सकता। चेतनता का अहसास वही पौधा कर सकता है, जिसकी जड़ें प्रकृति से ऊर्जा ग्रहण करती हों। ठीक इसी तरह मनुष्य का अंत:करण जब तक पवित्र नहीं हो जाता तब तक न उसकी वाणी में माधुर्य आ सकता है, न उसे असली खुशी की अनुभूति ही होगी। वह स्वयं से ही नाटक कर ठगा जाता रहता है। ऐसा मनुष्य देव साक्षात्कार में भी असमर्थ रहता है। स्वेट मार्डेन का कहना है कि वही मनुष्य ईश्वर के दर्शन कर सकता है जिसका अंत:करण स्वच्छ व पवित्र है।
                         अच्छा व निर्मल अंत:करण ही मनुष्य के सच्चे व चरित्रवान होने का प्रमाण है। प्रसिद्ध विचारक जेजे रूसो का मानना है कि जैसे वासनाएं देह की वाणी हैं वैसे ही अंत:करण आत्मा की वाणी है। अंत:करण के परामर्श के बगैर मनुष्य जीवन के सत्यों व रहस्यों को समझने और वास्तविक रूप में स्थायी तौर पर दूसरों को प्रभावित करने में समर्थ नहीं हो सकता। शेक्सपियर का कहना है कि अंतरात्मा ही हमें परमात्मा और बहिर्जगत से पूर्णत: भिज्ञ होने की शक्ति प्रदान करती हैं। इसी बात की पुष्टि विश्वकवि रवींद्रनाथ टैगोर अपनी इस बात से करते हैं- एक बार अंत:करण की ओर आंख घुमाओ, तुरंत ही सारा अर्थ समझ में आ जाएगा। वस्तुत: अंत:करण अंतमरुखी रहस्यमय लोक में प्रवेश करने का प्रमुख तोरण द्वार है। अंत:करण के मलिन होने पर न संसार से सुख की प्राप्ति होती है और न भगवत-प्रेम की ही। स्वामी रामकृष्ण परमहंस का मानना है कि जैसे मैले शीशे पर सूरज की किरणों का प्रतिबिंब नहीं पड़ता उसी प्रकार उन लोगों के हृदय में ईश्वर के प्रकाश का प्रतिबिंब नहीं पड़ सकता, जिनका अंत:करण मलिन और अपवित्र है। इसलिए मनुष्य जितना समय, अपने वाह्य शरीर को सजाने-संवारने में गंवाता है, उसका एक चौथाई भी यदि अंत:करण की पवित्रता में लगा दे तो जीवन व संसार स्वयं स्वर्ग की तरह महक उठेगा।
                      |। हरिः शरणम् ||   

Saturday, March 29, 2014

तीर्थ स्थल-दिव्य स्थल |

                     जब कभी इस असीम ब्रह्मांड में ऊर्जा का संग्रह किया जाता है और जब किसी स्थान पर उसे केंद्रित कर दिया जाता है तो वह स्थान दिव्य बन जाता है। इन्हीं दिव्य स्थानों पर दिव्य आत्माओं का अवतरण होता है। इसलिए ऐसे स्थानों को दिव्यभूमि, तीर्थस्थल या तीर्थस्थान कहा जाता है।
                      कोई भी महापुरुष साधना से अनंत परमात्मशक्ति प्राप्त कर लेता है। वह संसार में व्याप्त दिव्य शक्तियों को एकत्रकर उन्हें अपने शरीर में केंद्रित कर लेता है और फिर वह अपनी शक्ति को निकटवर्ती वातावरण में प्रसारित करता है। इसीलिए हमारे देश में जहां कहीं भी तीर्थस्थान हैं वहां का वातावरण वृक्ष आदि सब कुछ ऊर्जावान बन जाते हैं। उनमें दिव्यता का बोध होने लगता है।
                     जैसे भगवान बुद्ध की साधना से गया का बोधिवृक्ष, साईंबाबा के आश्रम के निकट स्थित मीठे नीम का पेड़ आदि। इसी तरह महावीर ने जहां साधना की उसे अहिंसा क्षेत्र कहते हैं। उस स्थान के प्रभाव के कारण हिंसक जीव भी वहां पर अहिंसक बन गए थे।
                           देश में ऐसे कई स्थानों पर ऊर्जा क्षेत्रों से परिपूर्ण तीर्थस्थल हैं। तीर्थ का एक अर्थ सामान्य तौर पर यह भी है-वह स्थान जहां की भूमि, पेड़, पौधे, नदी-झरने आदि दिव्य ऊर्जा से ओत-प्रोत हो गए हों। इसलिए जब कभी हम देवभूमि में प्रवेश करते हैं तो हमारे जड़ता मूलक अज्ञान को झटका लगता है। हमारा तन-मन वहां की दैवीय ऊर्जा से प्रभावित होने लगता है। शायद ऐसा हर जगह नहीं होता है, लेकिन यदि आप काशी विश्वनाथ मंदिर, वैष्णोमाता, अमरनाथ, केदारनाथ, या अजमेर शरीफ आदि स्थानों पर जाएं तो निश्चित ही वहां का वातावरण हमें प्रभावित करने लगता है। हम तुरंत बदल जाते हैं। हम वह नहीं रहते हैं जो पहले थे।
                        गुरुस्थान भी ऐसा ही होता है। वहां से लौटने पर हमारे अंदर कुछ न कुछ रूपांतरण होता ही है। ऐसी अवधारणा है कि जिन स्थानों पर हमारे तीर्थस्थान या मंदिर हैं, उन स्थानों पर प्राचीनकाल में कभी दिव्यशक्तियों का वास था। पवित्र देवभूमि से, उसके मूल स्थान से आज भी मिट्टी लाने का प्रचलन है।                                                                  
                                ।। हरि: शरणम् ।।

Friday, March 28, 2014

जीवन-एक रहस्य |

                      जीव का उत्पन्न होना और जीव की उत्पत्ति के कारण जानना एक बड़ा ही रहस्यमय आध्यात्मिक विज्ञान है। यह ऐसा विज्ञान है जिसे अनादिकाल से लोग समझने का प्रयत्‍‌न करते रहे हैं। जितना इस रहस्य को जानने का प्रयत्‍‌न किया जाता है उतना ही इसका रहस्य और गहन अंधकार की तरह रहस्यमय बन जाता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि यह इतना बड़ा विज्ञान है कि हमारी छोटी बुद्धि उसे समझ नहीं पाती। हमसे अगर कहा जाए कि वह हवा, प्रकाश, यहां तक कि समुद्र की परिभाषा करे तो वह भ्रम में पड़ जाएगा।
                      उसी प्रकार मनुष्य का जीव की उत्पत्ति के संबंध में जानने का प्रयास उतना ही असंभव होता है, क्योंकि हमारे शास्त्रों में जीव और ब्रह्म की जो कल्पना है वह अनुभव पर आधारित है। उसे प्रमाणित करने के लिए हमें अनुभव की उसी स्थिति से गुजरना पड़ेगा, क्योंकि अनुभव को प्रमाणित नहीं किया जा सकता।
                      मनुष्य के जीवन में जो कुछ घटित हो रहा है उसे प्रमाणित नहीं किया जा सकता। जीव कहां से आता है और कहां चला जाता है, कैसे काम करता है, इस सबको प्रमाणित करना कठिन है। एक महात्मा मंदिर में ध्यान कर रहे थे और शाम हो गई। उसी समय एक बच्चा मंदिर में आया, एक दीपक रखा, माचिस जलाई, दीपक जलने लगा। जब बच्चा वहां से जाने लगा तो महात्मा ने बच्चे से पूछा- बेटे, यह दीपक कैसे जला? प्रकाश कहां से आ गया? यह सुन बच्चे ने महात्मा से कहा-आप महात्मा हो गए, इतना भी नहीं जानते! यह कहकर उसने दीपक पर फूंक मार दी। दीपक बुझ गया। बच्चे ने कहा प्रकाश जहां से आया था, वहीं चला गया। ऐसा हमारे जीवन में प्राय: होता रहता है, लेकिन इन प्रश्नों के उत्तर जानने के लिए हम कभी गंभीर नहीं होते, कभी उत्सुक नहीं होते। इसलिए अनादिकाल से जीव और जीवन के संबंध में प्रश्न तो अवश्य उठते रहे हैं, लेकिन इन प्रश्नों को हम और अनेक प्रश्नों में उलझा देते हैं। दरअसल, मनुष्य स्वयं किसी प्रश्न का उत्तर खोजना नहीं चाहता। इसलिए वह दूसरों से प्रश्न पूछता है। भगवान बुद्ध ने कभी किसी से प्रश्न नहीं पूछा, उन्होंने स्वयं उत्तर खोजा। हमारे देश में आज भी अनेक संत हैं जो स्वयं प्रश्नों का उत्तर खोजते हैं, क्योंकि जिस व्यक्ति को प्रश्न उठाना आता है वही उसका उत्तर भी खोज सकता है।
                   || हरिः शरणम् || 

Thursday, March 27, 2014

जीवन-पथ |

                  जीवन का मार्ग। रास्ते तो अनेक हैं, पर किसी एक ही रास्ते से यात्रा कर सकते हैं आप? सभी रास्ते उसी रास्ते में जाकर मिल जाते हैं। सभी रास्ते सबके लिए हैं, जो जिस रास्ते से चल पड़े। जिसका संस्कार जैसा होता है वह उसी रास्ते पर चल पड़ता है।
                  तुम्हें तो वह रास्ता मिल गया है जो तुम्हारा रास्ता है और जो तुम्हारा लक्ष्य है। अगर अब किसी भी चौराहे पर ठहर जाओगे तो तुम्हारा रास्ता भटक जाएगा। तुम्हारी मंजिल भटक जाएगी और तुम्हारी जीवन यात्रा कहीं बीच में ही समाप्त हो जाएगी। रास्ता प्रतीक्षा करता ही रह जाएगा, तुम्हारी मंजिल राह देखती रह जाएगी। तुम्हारा उद्देश्य अधूरा रह जाएगा। यह संसार है। यहां अनगिनत लोग हैं। भिन्न-भिन्न तरह के जीव हैं। तरह-तरह की जातियां हैं। तरह-तरह के विकार हैं। कोई किसी की प्रकृति है, तो कोई किसी का विकार। कहीं मनुष्यों का मेला है तो कहीं पशु-पक्षियों का जमघट। कहीं कीड़े-मकोड़ों की अधिकता है तो कहीं पेड़-पौधों का जंगल। कहीं पानी का सुंदर प्रवाह है, तो कहीं सागर की लहरों का खेल। संसार के सभी लोगों के अपने-अपने क्षेत्र हैं। अपना-अपना संस्कार है। अगर तुम इसका अतिक्रमण करोगे तो भटक कर रह जाओगे।
                  तुम्हारे आस-पास में एक विराट दुनिया है उस दुनिया में तुम कितनों को जानते हो और अगर सभी को जानने की कोशिश करोगे तो समय साथ नहीं देगा, क्योंकि जिंदगी इतनी लंबी नहीं है। संस्कार भूमि इतनी विराट नहीं है। इस संसार में कुछ ही लोग तुम्हारे हैं। अगर इनसे अधिक और अपेक्षाएं करोगे तो अपेक्षाओं में ही जीवन समाप्त हो जाएगा, भूख बनी की बनी रह जाएगी। इसलिए आज तक आदमी को न सुखी तुमने देखा है और न सुख से प्राण त्यागते हुए किसी व्यक्ति को देखा होगा। कुछ लोग तो ऐसे हैं जो सुख से सो भी नहीं पाते। लोगों को उनका गम खा रहा है। चिंताएं जला रही हैं। वे दुनिया से कहते हैं कि अपने परिवार, अपने बच्चों और समाज के लिए सब कुछ कर रहे हैं, पर इस सबके पीछे उनकी अपनी पद-प्रतिष्ठा और मान अपमान भी जुड़ा हुआ है। इच्छाओं की पूर्ति की कामनाएं हैं। अगर तुम भी सांसारिक दुखों का शिकार होना चाहते हो तो चल पड़ो अनेक रास्तों पर, तमाम लोगों के साथ। अनेक अपेक्षाओं के साथ। तब देखना कि जिंदगी को क्या मिलता है?
                    || हरिः शरणम् || 

Wednesday, March 26, 2014

अज्ञानता -एक अंधकार |

                        सांसारिक जीवन रूपी आभासित सुख के पौधे पर अंतत: दुख का फल लगता है। यह महज संयोग नहीं है, बल्कि दुखमय संसार की अंतिम व वास्तविक परिणिति भी है। हम दुखी क्यों होते हैं? क्या ईश्वर ने दुख प्रदान करने वाले पदार्थो का निर्माण हमारे लिए किया है? ईश्वर ने तो हमें निर्मल मन, निश्छल देह व गंगा-सा पवित्र आनंदमय कानन-कुसुमयुक्त जीवन दिया था। फिर इस सुख में बिन बुलाए दुख आया कैसे? कौन है इसका निर्माता व जिम्मेदार?
                       सच तो यह है कि मनुष्य ने स्वयं ही कामनाओं का यह मकड़जाल बुना है और स्वयं ही उसमें फंसकर छटपटा रहा है। असहाय व असमर्थ, पग-पग अपने गलत कृत्यों पर पश्चाताप के आंसू बहाता हुआ। ईश्वर ने हमें तपस्वी मन व सशक्त काया दी थी। इसको संग्रही व भोगी हमने बनाया। सुख की चाहत में परिवार, धन-दौलत, जायदाद व अपेक्षा-कामनाओं का अभयारण्य हमने बसाया। अब इसके हानि-लाभों से स्वयं हमें ही रूबरू होगा पड़ेगा। जीवन के हर मार्ग व मोड़ पर शाश्वत सुख व शाश्वत दुख हमारे स्वागत के लिए सदैव खड़े रहते हैं। शाश्वत सुखों में भौतिक कष्टों का आभास होता है, जबकि शाश्वत दुखों में हमें अतुलनीय आभासित भ्रामक संसार दिखाई देता है। अज्ञानता में इसे ही हमने उपलब्धियों की पूर्वपीठिका मानकर स्वीकार कर लिया है।
                     असली सुख का मार्ग हमसे दूर छूटता चला गया और हमने दुखमय मार्ग को ही अज्ञानता के अंधकार से प्रेरित होकर सुख-सदृश मान लिया। छलावा तो महज छल सकता है। जैसे निद्रा में भव्य स्वर्णमहलों की प्राप्ति, जो स्वप्न टूटते ही खंड-खंड होकर असलियत या यथार्थ से साक्षात्कार करा देता है। इस संपूर्ण दुखमय सृष्टि का निर्माण व आमंत्रण केवल हमने ही किया है। इससे पनपने वाला हर भाव, स्वभाव, उत्पाद, संबंध व विस्तार दुखमय ही होगा। सुख का मार्ग ईश-भजन की नाव में बैठकर, सांसारिक विस्तार को भुलाकर, सनातन आनंद के उस लोक का दिव्य-दर्शन है, जहां दुख, पीड़ा, पश्चाताप व संताप पनप ही नहीं सकते।
                        || हरिः शरणम् ||

Tuesday, March 25, 2014

चरित्र |

                        चरित्र का निखार। मौजूदा दौर में व्यक्ति जल्द से जल्द सुख-सुविधाओं की प्राप्ति की लालसा के कारण अनेक समस्याआें और परेशानियों से जूझ रहा है। ये समस्याएं लोगों के चरित्र को प्रभावित करती हैं। ऐसे में अधिकतर व्यक्ति समस्याओं और परेशानियों के दबाव में अपने चरित्र को दांव पर लगा देते हैं और अपने कदमों को गलत मार्ग पर मोड़ लेते हैं।
                     अनुचित व गलत मार्ग सहज-सीधा नजर आता है, जो सभी को अपनी ओर आकर्षित करता है। यह मार्ग ऐसा होता है जिसमें व्यक्ति को अधिक मेहनत व प्रयास करने की आवश्यकता नहीं होती, लेकिन वह व्यक्ति के सबसे कीमती गुणों व चरित्र पर प्रश्नचिन्ह लगा देता है।
                     जिंदगी में समस्याओं और परेशानियों का भी एक अनूठा महत्व है। यदि व्यक्ति साहस, धैर्य और ईमानदारी से परेशानियों का मुकाबला करे तो वह न सिर्फ अपनी परेशानियों को दूर भगाता है, बल्कि सफलता को भी अपने जीवन का एक अंग बना लेता है। ऐसे में उसका चरित्र और अधिक निखर उठता है।
                    जिस प्रकार सोना आग में तप कर और अधिक निखरता है, उसी तरह चरित्र भी कठिन परिस्थितियों और संघर्ष का सामना करते हुए अधिक निखर आता है। सामान्य परिस्थितियों में तो सभी अपने चरित्र को संभाल कर रखने का दावा करते हैं, लेकिन जब हालात विपरीत हों, उस समय अपनी सूझबूझ, दया और शालीनता को बरकरार रखना अधिक महत्वपूर्ण होता है।
                    एक रूसी कहावत है कि हथौड़ा कांच को तोड़ देता है, पर लोहे का कुछ नहीं बिगाड़ता। इसका तात्पर्य है कि सुदृढ़ और सद्कर्मो पर चलने वाला व्यक्ति अपने चरित्र के साथ कभी समझौता नहीं करता। कहते हैं कि योग्यता की वजह से सफलता मिलती है और वह चरित्र ही है, जो सफलता को संभालता है। जो सफल व्यक्ति अपने चरित्र को नहीं निखारते सफलता भी उनके पास ज्यादा देर तक नहीं टिकती। ऐसे लोग शीघ्र ही गुमनामियों के अंधेरों में गुम हो जाते हैं।
                  आध्यात्मिक रुझान से न सिर्फ व्यक्ति का चरित्र सुदृढ़ होता है, बल्कि उसके अंदर धैर्य, ईमानदारी, परोपकार आदि सद्गुणों का भी विकास होता है। वर्तमान समय में चरित्र का मजबूत होना अत्यंत आवश्यक है। चरित्र को बचपन से ही मजबूत बनाया जाए तो व्यक्ति संस्कारों और अध्यात्म की छांव में बड़ा होकर समाज व देश का नाम रोशन करता है। यदि चरित्र सही नहीं है, तो धन-दौलत भी व्यर्थ है।
                      || हरिः शरणम् ||

Monday, March 24, 2014

सेवा-कर्म-एक भगवत कर्म |

                         आखिर हमारे लक्ष्मीनारायण भला दरिद्रनारायण कैसे हो सकते हैं? फकीरों के संदेश तो इसी ओर इशारा करते हैं, 'बेबस गिरे हुओं के बीच तू खड़ा था। मैं स्वर्ग देखता था, झुकता कहां चरन में।' दीनबंधु हम पर प्रसन्न तभी होंगे जब हम वंचित लोगों को प्रेम से गले लगाएं और निश्छल भाव से उनकी सेवा करें।
                         दीनों की 'आह' बनकर परमात्मा प्रतिफल हमें पुकारता है और हम हैं कि भव्य मंदिरों में जाकर भजन में उसकी पुकार सुनना चाहते हैं। मंदिर जाना अच्छी बात है, लेकिन जरूरतमंदों की मदद करना भी ईश्वर की अनुभूति करा सकता है।
                         दुखियों के द्वार पर खड़ा होकर ईश्वर हमारी बाट जोहता है और हम उसे गिरि-कंदराओं में खोजते-फिरते हैं। दुखियों की झोपड़ी में कृष्ण की बज रही वंशी को सुनिए और मजदूरों के पसीने में उसे निहारें। अपने हृदय-द्वार खोलें, यहीं पर उसका दीदार हो जाएगा।
                          भगवान का कोई घर नहीं है। वह सृष्टि के कण-कण में रम रहा है। हम तो दीन-दुखियों को ठुकराकर देवालयों में प्रभु को ढूंढ़ते हैं। प्रभु का असली द्वार दीनों का हृदय है। जिसका कोई नहीं है, उसका भगवान है। वह जरूरतमंदों की आह में मिलेगा, भूखों की भूख में मिलेगा और मजलूमों के चीथड़ों में मिलेगा। दुखियों का दिल दुखाना मानो मंदिर को ढहाना है। कमजोरों को दबाना सबसे बड़ा अधर्म है। संत मलूकदास भी यही कहते हैं। दरिद्र की सेवा ही ईश्वर की सच्ची सेवा है। आस्तिक वही है, जिसका दिल गरीबों को देखते ही पसीजने लगता है। तभी तो कबीरदास कहते हैं, 'कबिरा सोई पीर है, जो जाने पर पीर'। आस्तिक वह नहीं है जो इस पाखंड में उलझा रहता है कि पानी से भरा लोटा दाहिने हाथ से पिएं या बाएं हाथ से। इनसे बेहतर तो ऐसे नास्तिक हैं जो स्वयं अच्छे ढंग से जीते हैं और जरूरतमंदों के काम आते हैं।
                        भगवान सुदामा को मित्र बनाते हैं और जूठी पत्तलें उठाते हैं। प्रभु के प्रति हमें कृतज्ञ होना चाहिए कि उसने करुणा के सदुपयोग का अवसर दिया है। दरिद्रों की सेवा करते समय यह भाव भी मन में नहीं आना चाहिए कि हम सेवा कर रहे हैं। लेने का भाव हमारे मन में इतनी गहराई तक पैठ गया है कि हम प्रेम, माधुर्य, समता और करुणा आदि गुणों से दूर होते जा रहे हैं। दीन को केवल मुस्कान दे दो तो वह धन्य हो जाएगा। जिसके दिल में सेवा का जज्बा नहीं है उस पर खुदा भी रहम नहीं करता।
                      || हरिः शरणम् ||

Saturday, March 22, 2014

पुरुषार्थ |

                           तुला एक प्रकार का यंत्र है, जिसके द्वारा किसी वस्तु की संहति या उसका भार ज्ञात किया जा सकता है। तुला का शाब्दिक अर्थ है बराबर या समान किया हुआ। चूंकि तुला के दोनों पलड़ों पर गुरुत्वाकर्षण की शक्ति समान रूप से कार्य करती है, इसलिए तुला तभी समान होगी, जब दोनों पलड़ों पर समान भार हो। तुला का यह सिद्धांत हमारे जीवन में बड़ा ही महत्वपूर्ण है। जीवन के चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष हैं।
                      मोक्ष मन की शांति पर निर्भर करता है। मन को शांति तभी मिलती है, जब मन पूर्णरूप से स्थिर हो। मन तभी स्थिर होगा जब धर्म, अर्थ व काम में संतुलन स्थापित हो। यह संतुलन स्थापित करना है अर्थ और काम के बीच। अर्थ है ज्ञान शक्ति व धन का अर्जन और काम है उसका उपयोग। जब अर्थ और काम दोनों ही धर्म से बराबर प्रभावित होंगे, तभी उनमें संतुलन होगा। तभी मन को शांति मिलेगी और आत्मा को मोक्ष मिलेगा। एक विद्यार्थी जो शिक्षा अर्जन में 'क्या' और 'कैसे' के उत्तर समझ लेता है, वह हमेशा अपने अभ्यास में सफल होता है। उसका जीवन संतुलित होता है और उसे शक्ति मिलती है।
वहीं जो व्यक्ति समझ के बगैर मात्र परीक्षा में पास होने को ही अपना लक्ष्य बनाता है, वह पास होने पर भी उपार्जन में सफल नहीं होता। ऐसा इसलिए, क्योंकि उसकी सफलता में नैतिक आधार ही नहीं है। इसलिए उसका जीवन संतुलित नहीं होता और वह शांति भी नहीं प्राप्त कर पाता है।1इसी तरह समाज में रहने वाला प्राणी यदि समाज, परंपराओं और प्रकृति के नियमों को समझकर समाज के अनुकूल चलता है, तो वह अपने आप को संतुलित रख पाता है और शांति को प्राप्त होता है। न्यायालय की तुला भी इसी बात की द्योतक है। इसी प्रकार एक योगी यदि यम और नियम के आधार पर अपने आहार-विहार और प्राणायाम में संतुलन स्थापित कर लेता है, तो आगे की ध्यान और धारणा की सीढि़यां, वह आसानी से चढ़ लेता है और अपने आपको संतुलित रख पाता है। वह समाज में निर्लिप्त जीवन जीता है और शांति से जीवन जीता है। इसी प्रकार जो व्यक्ति तुला के संतुलन को समझकर अपने जीवन में सामंजस्य स्थापित करता है उसे जीवन में शांति मिलती है।
                        || हरिः शरणम् ||

Friday, March 21, 2014

सफलता का सूत्र |

                        अक्सर लोग दूसरे व्यक्ति की छोटी से छोटी गलती तलाशने में जरा भी देरी नहीं लगाते। वहीं वे अपनी बड़ी से बड़ी गलती को भी नजरअदांज करते हैं। जो सहजता से अपनी गलती मान लेता है वह जीवन में सकारात्मक सोच और अध्यात्म की दिशा में जीवन के पथ पर आगे बढ़ता है।
                      अपनी गलती सबके सामने स्वीकार करने का साहस विरले लोग ही दिखा पाते हैं। अधिकांश लोग यही चाहते हैं कि उनकी गलतियां छिपी रहें, दूसरों के सामने प्रकट न हों। यहां तक कि गलती सामने आने पर वह उससे मुकरने में भी देरी नहीं लगाते। ऐसा करके वे दूसरे लोगों को मूर्ख बना सकते हैं, लेकिन उनका स्वयं का अंतर्मन इस बात को जानता है कि वे गलत हैं।
कई इंसान जो संकोची प्रवृत्ति के साथ ही संवेदनशील भी होते हैं, उनके अंदर तो यह बात इस हद तक घर कर जाती है कि उनका मानसिक संतुलन अस्त-व्यस्त हो जाता है। इंसान को गलतियों का पुतला माना गया है। यह सार्वभौमिक सत्य है कि हर इंसान कहीं न कहीं और कभी न कभी गलती करता ही है। गलती करना इंसान का कार्य है, तो उस गलती को स्वीकार करना भी इंसान का ही कार्य है। अपनी गलती और जिद पर अड़े रहने वाले व्यक्ति को समाज सम्मान नहीं देता है।
                  मनोवैज्ञानिकों का कहना है, 'जो व्यक्ति अपनी गलतियों को मान लेते हैं उनका जीवन पहले से अधिक सुंदर हो जाता है। उनमें आत्मविश्वास और सद्गुणों का विकास होता है।'
                  ऐसे व्यक्ति जो स्वयं की गलती स्वीकार नहीं करना चाहते, उनमें धीरे-धीरे नकारात्मक गुणों का विकास होने लगता है। गलती छिपाने के लिए इंसान को अक्सर असत्य बातों को बोलना पड़ता है। ये असत्य बातें ऐसे व्यक्तियों के जीवन का एक अंग बन जाती हैं। गलती स्वीकार करना एक साहसिक कार्य है। ऐसा व्यक्ति ईश्वर के अधिक निकट पहुंच जाता है। जो अपनी गलती स्वीकार करने का साहस नहीं रखते, उनके अंदर से प्रेम, दया और कर्तव्य का लोप हो जाता है। ऐसे लोग अपने और अपनी जरूरतों के प्रति उदासीन हो जाते हैं। उनके अंदर एक भावनात्मक खालीपन उत्पन्न हो जाता है। यह भावनात्मक खालीपन इसलिए होता है, क्योंकि वे अपनी गलती को सबसे छिपाकर रखते हैं। उसे किसी के साथ बांटते नहीं हैं। हर गलती को सुधारा जा सकता है। इंसान गलतियों से सीखकर ही आगे बढ़ता है और जीवन में सफलता पाता है।
                       || हरिः शरणम् || 

Wednesday, March 19, 2014

आत्म-मंथन |

                       हमारा जीवन भी समुद्र के समान है। इस समुद्र का मंथन करने पर तीन बहुमूल्य रत्‍‌न प्राप्त होते हैं। पहला है-प्रेम और आंतरिक उल्लास की अनुभूति, दूसरा है सत्यरूपी ज्ञान की प्राप्ति के लिए सहज जिज्ञासा और तीसरा रत्‍‌न है पीड़ित मानव समुदाय के प्रति असीम करुणा का भाव मन में आना और इस निमित्त सब कुछ दांव पर लगा देना। इन्हीं को भक्ति, ज्ञान व कर्म की त्रिवेणी, उपासना व साधना-आराधना के रूप में जाना जा सकता है।
                    प्रेम का आशय भौतिकवाद से भरी व स्वार्थो के शिकंजे में जकड़ी दुनिया पर कुछ बूंदों का बरस जाना है। एकाकीपन की ऊब, नीरसता व संवेदनहीनता की मनोदशा में और कठोर परिश्रम की थकान व उतार-चढ़ाव के मानसिक कष्टों से भरे इस जीवन में सरसता केवल प्रेम में है। प्रेमी बनकर हमें अपना अहम खोना पड़ता है और किसी एक के प्रति समर्पित होना होता है। प्रेम का लक्ष्य कुछ और नहीं, बल्कि प्रेम ही है। आदर्शो की प्रतिमूर्ति परम पिता परमेश्वर को सब कुछ सौंपना पड़ता है। खोने के बाद प्रेमी भक्त जो पाता है वह लाख-करोड़ गुना अधिक होता है। यही सच्ची भक्ति का स्वरूप है। ज्ञान सत्य के रूप में इस जगत में विद्यमान है। उसे पाने के लिए निरंतर गहन शोध-अनुसंधान में मनुष्य लगा रहता है। जो अब तक जाना जा सका है वह अद्भुत है। अभी जो जानने को शेष है वह असीम, अनंत व अत्यंत लाभदायक है।
                   खुले दिमाग से इसे पाने का प्रयास करना और इसके लिए साधनारत रहकर निरंतर अधिकाधिक सीखने की प्रवृत्ति बनाए रखना एक उच्चस्तरीय योग है। यही ज्ञानयोग कहलाता है। इस संसार में पीड़ा व पतन-पराभव की अतिकष्टकारी परिस्थितियां व्याप्त हैं। मात्र सुख ही सुख नहीं, कष्ट भी अत्यधिक हैं। औरों की पीड़ा में हिस्सा बंटाने के लिए और पीड़ित व्यक्ति को पतन से बचाने के लिए निजी प्रतिभा व वैभव समेत अपना सब कुछ लगा देना, यह परम पुरुषार्थ है। कर्मयोग की पराकाष्ठा है और सच्ची भगवत आराधना है। इन तीन दिव्य रत्‍‌नों के रूप में हमें जीवन-साधना से जो अमृतकण हाथ लगते हैं उनसे सारी वसुधा को हम धन्य बना सकते हैं।
                          || हरिः शरणम् ॥ 

Tuesday, March 18, 2014

आत्म-बल |

                        आत्मबल एक ऐसा गुण है जो हमारे पुरुषार्थ को जाग्रत रखता है। यह गुण मुश्किल क्षणों में ऊर्जा का स्रोत साबित होता है। आत्मबल हमें हर बुराई और विघ्न-बाधाओं से बचाता है। कहते हैं कि मरणासन्न शरीर में भी नवजीवन का संचार कर दे, ऐसी अमृत बूंद है-आत्मबल।
                        सच तो यह है कि जहां कोई प्राणी हमारा सहायक नहीं होता वहां हमारा आत्मबल हमें सहारा देता है। यह हमें न सिर्फ दृढसंकल्पी और साहसी बनाता है, बल्कि जीवन-संग्राम में जीतने की अदम्य इच्छाशक्ति भी प्रदान करता है।
                       यह हमें न सिर्फ अच्छे कर्म करने की ओर प्रेरित करता है, बल्कि हमें प्रतिकूल परिस्थितियों से निकलने की हिम्मत भी देता है। यह हमारा ऐसा बलवान साथी है, जो जीवन के घनघोर अंधेरे से भी हमें बाहर निकाल सकता है।
                       आत्मबल जिसका साथी है वह कभी कमजोर नहीं पड़ता। हार की निराशा उनके दिलों पर राज नहीं कर पाती। ऐसे लोग अपने आत्मबल की वजह से देश और दुनिया पर राज करते हैं। इसके विपरीत आत्मबलहीनता बहुत ही खतरनाक रोग है, जो हमें कमजोर ही नहीं करता, बल्कि दूसरों के समक्ष दब्बू भी बना देता है। इसलिए हमें इससे बचना चाहिए और अपने आत्मबल को बरकरार रखना चाहिए।
                      आत्मबल से ओत-प्रोत व्यक्ति किसी भी प्रतिकूल परिस्थिति को अपने अनुरूप बदल देने की साम‌र्थ्य रखता है। आत्मबल मानव में सात्विक गुणों का विकास कर उसे स्वयं को ईश्वर के प्रति समर्पित कर देने के लिए साहस बंधाता है और ईश्वर की ओर उन्मुख करता है। आत्मबल का औचित्य भी इसी में है कि व्यक्ति ईश्वरोन्मुख हो जाए।
                      परिस्थिति चाहे कैसी भी हो, हम सबको हरदम आत्मबल के माध्यम से आगे बढ़ने का प्रयास करते रहना चाहिए। समस्याओं और परेशानियों से कतई घबराना नहीं चाहिए। हम यदि इन समस्याओं पर विजय पा लेंगे तो हमारा आत्मविश्वास बढ़ेगा और हमें आत्मसंतुष्टि भी प्राप्त होगी। किसी समस्या को भार या परेशानी समझना हमारी कायरता है, जो हमें असफलता के पथ की ओर उन्मुख करती है। यदि हम परेशानियों और समस्याओं पर हमला कर उनके सम्मुख डटे रहेंगे, तब हमारी आर्थिक और नैतिक उन्नति अवश्य होगी। हम जीवन की सामान्य स्थिति से ऊपर उठ जाएंगे और सब लोग हमें पहले से कहीं ज्यादा आदर-सम्मान देंगे। समस्या के वक्त हमें धैर्य और साहस से कार्य लेना चाहिए। आत्म-बल सभ्य जीवन का मूलभूत आधार है ।
                            ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Monday, March 17, 2014

प्रेम-एक आत्मविश्वास |

                         आत्मविश्वास। आज हर आदमी सुख की खोज में लगा है और उस थके-हारे इंसान के संदर्भ में दार्शनिक खलील जिब्रान को पढ़ना अच्छा लगता है। जिब्रान लिखते हैं, 'मैं भी कहता हूं कि जीवन सचमुच अंधकारमय है, यदि आकांक्षा न हो। सारी आकांक्षाएं अंधी हैं, यदि ज्ञान न हो। सारा ज्ञान व्यर्थ है, यदि कर्म का ज्ञान न हो। जब तुम प्रेम से प्रेरित होकर कर्म करते हो तब तुम स्वयं से बंधते हो, एकदूसरे से बंधते हो, भगवान से बंधते हो।'
                           जिब्रान के इस कथन में प्रेम का निहितार्थ आत्मविश्वास से है। इसी आत्मविश्वास के बल पर हम वह सब कर सकते हैं जो हम करना चाहते हैं। मैं अच्छा आदमी तभी बन सकता हूं, यदि मुझमें आत्मविश्वास है। दृढ़ निश्चय है। साहसपूर्ण निर्णायक क्षमता है। आशावादी दृष्टिकोण है। सकारात्मक सोच है। उत्साही मन है। ऊर्जस्वी पराक्रम है। मैं दुख में से सुख खोज लेना चाहता हूं और ऐसा सोचते हुए, आत्मविश्वास से भरकर सचमुच सुख खोज लेता हूं।
                         आज का आदमी समय के साथ चले, लेकिन उसे बुरे आचरण को छोड़कर अच्छी जिंदगी का सपना देखने का हक है। सोचना यह है कि हम गहराई में जमे बैठे संस्कारों को कैसे सुधारें? जड़ों तक कैसे पहुंचें? जड़ के बगैर सिर्फ फूल-पत्तों का क्या मूल्य? पतझड़ में फूल-पत्ते सभी झड़ जाते हैं, मगर वृक्ष कभी इस वियोग पर शोक नहीं करता। उसके पास जड़ की सत्ता सुरक्षित है, जिससे वसंत आने पर पुन: वृक्ष फूल-पत्तों से लहलहा उठते हैं। आज हमें भी आत्मविश्वास को मुकाम तक पहुंचाने के लिए मूल्यों को स्वयं में सहेजना होगा, बाहरी अवधारणाओं को बदलना होगा, जीने की दिशा को मोड़ देना होगा।
                    तभी बंधन ढीले पड़ेंगे और निर्माण का रास्ता साफ-सुथरा बन सकेगा। अंधेरा तभी तक डरावना है जब तक हाथ दीये की बाती तक न पहुंचे। आप एकदम से अपने आत्मविश्वास को प्राप्त नहीं कर सकते। अपने आप को अपना भविष्य निर्माता मानिए और फिर कार्य की शुरुआत कर दीजिए। अपने भविष्य की कल्पना कीजिए। सोचिए कि आज से एक वर्ष बाद, दो वर्ष बाद या पांच वर्ष बाद आप कहां पहुंचना चाहते हैं। जहां आपको मनचाही सफलता और जिंदगी हासिल हो। आपको यह मानना होगा कि आप बदल सकते हैं और उस बदलाव के लिए आपके पास पर्याप्त आत्मशक्ति है। एक चीनी कहावत है कि महापुरुषों में आत्मविश्वास होता है और दुर्बलों की केवल इच्छाएं।
                        || हरिः शरणम् ||

Sunday, March 16, 2014

जीवन के रंग |

                                             संसार में जो कुछ भी हमें दिखाई दे रहा है और जो नहीं दिखाई दे रहा है, सब ऊर्जा ही है । जो दृश्य है वह एक दिन अदृश्य हो जाने  वाला है और जो आज अदृश्य है वह कभी भी  दृश्यमान हो सकता है । कई वर्षों  से यह खेल निरंतर चला आ रहा है और आगे भी लाखों करोडो सालों तक निर्बाध गति से चलता रहेगा । हमें लगता है कि हम यह सब नहीं देख पाएंगे । लेकिन यहाँ  हमारी सोच ही गलत है । हम सब भी जब एक ऊर्जा ही है तो इसका अर्थ यही हुआ कि हम भी कभी समाप्त नहीं होंगे । हम दृश्य से अदृश्य और फिर पुनः दृश्य होते रहेंगे । इस प्रकार यह क्रम निरंतर चलता रहेगा ।
                                            किसी भी दृश्य को देखने के लिए प्रकाश,दृष्टि और दृश्य तीनों का होना आवश्यक है । तीनों में से किसी एक की अनुपस्थिति से हम दृश्य को देख नहीं सकेंगे । दृश्य का भौतिक रूपसे उपस्थित होना हमारे वश में नहीं है । वह प्रकृति के ऊपर निर्भर करता है । लेकिन जब प्रकृति किसी भी भौतिक दृश्य का निर्माण कर देती है तब उसे हम अपनी दृष्टि से उसे देख सकते हैं । हमारी दृष्टि हमारी आँखे होती है,जिसके पटल पर उस दृश्य का प्रतिबिम्ब बनता है । उस प्रतिबिम्ब को संवेदी तंत्रिका द्वारा संकेत के रूप में पश्च मस्तिष्क को सन्देश पहुँचाया जाता है । वहाँ मस्तिष्क इन संकेतों को पुनः प्रतिबिम्ब में बदलकर हमें उस दृश्य के होने का आभास दिलाता है ।
                                         दृश्य से दृष्टि तक का इस प्रतिबिम्ब का सफ़र बिना प्रकाश के सम्भव नहीं है। जब प्रकाश किसी वस्तु  या व्यक्ति पर गिरता है तब वह उससे टकराकर चारों और फैलता है। जब यह प्रकाश उस दृश्य के संकेतों को अपने साथ लेकर दृष्टि में प्रवेश करता है तब दृष्टिपटल पर उस दृश्य का प्रतिबिम्ब बनता है । प्रकाश का अपना कोई रंग नहीं होता है परन्तु यह सात रंगो में विभाजित होने की क्षमता रखता है । जब वह किसी दृश्यमान वस्तु पर पड़ता है तो उस प्रकाश का काफी हिस्सा उस वस्तु द्वारा अवशोषित कर लिया जाता है और जो प्रकाश परावर्तित होता है वह प्रकाश जिस रंग का होता है वही रंग उस वस्तु का हमें दिखाई देता है । इस प्रकार हमें चाहे प्रकाश का कोई रंग दिखाई नहीं देता हो परन्तु वह मूल रूप से सात  रंगों का मिश्रण होता है ।  ये रंग होते हैं-बैंगनी,नीला,आसमानी,हरा,पीला,नारंगी और लाल । जिनमें मुख्य रूप से चार रंग ही होते है-नीला,पीला,हरा और लाल ।  इन चार रंगों से ही सभी रंग बनते है ।
                                          हमारे जीवन में इन रंगों का बहुत महत्त्व है । जिंदगी बिना रंगों के कितनी बोझिल हो जाती है ,यह आप कल्पना कर सकते है । इस लिए अगर आपकी जिंदगी रंगों से सरोबार है तो इसका अर्थ यही है कि आप इस जीवन का आनंद ले रहे हैं । जैसे इंद्रधनुष आँखों को बहुत अच्छा लगता है क्योंकि प्रकाश के सभी रंग इसमे उपस्थित रहते हैं । रंग तो प्रकाश में भी यही सातों उपस्थित होते है परन्तु हम उसके स्रोत की तरफ क्षण भर के लिए भी देख नहीं सकते । जब यह प्रकाश चारों और फैलकर बिखर जाता है तब यही इंद्रधनुष बनकर आँखों को आराम देता है । आप भी अपनी जिंदगी के प्रकाश को सभी रंगों में बिखेरते हुए प्रेमपूर्वक बांटिये,आप सबको आनन्दित भी करेंगे और स्वयं भी आनन्दित होंगे ।  आज होली है,रंगों का त्योंहार,सबको बांटिये आनंद के रंग और आप भी डूब जाइये इन रंगों की मस्ती में । जिंदगी बोझिल नहीं है जितना आप समझते है,जरा सबके साथ प्रेम के रंग बांटिये आप स्वयं ही महसूस करेंगे ।
                                         आप सभी को इन रंगो के साथ होली की ढेर सारी शुभ कामनाएँ । ईश्वर आपके जीवन में सातों रंग सदैव भरे हुए रखे ।
                                       || हरिः शरणम् ||

Saturday, March 15, 2014

क्रोध पर नियंत्रण |

                         मनुष्य का सबसे बड़ा दुश्मन क्रोध है, जिसका जन्म अहंकार से होता है। क्रोध में की गई गलती का अंत पश्चाताप पर होता है। जब तक व्यक्ति के मन में शांति है, प्रसन्नता है, क्रोध उस पर हावी नहीं होगा। मुस्कराहट के जाते ही क्रोध उस पर हावी हो जाता है। इसीलिए महापुरुष कहते हैं कि क्रोध की पहली चिंगारी जब आपके अंदर उठे और आपको मर्यादा से बाहर ले जाने का प्रयास करे तब उससे पहले ही उस पर नियंत्रण पाने की कोशिश की जानी चाहिए, अन्यथा क्रोध जब पूरी फौज लेकर आएगा तो उसे रोकना बहुत मुश्किल होगा। वस्तुत: क्रोध एक विकृत मनोवेग है। यदि आ जाए तो इसे बहाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं शेष बचता। मन में क्रोध आते ही भौंहें तन जाती हैं। जो व्यक्ति क्रोधी स्वभाव वाले होते हैं उनका साथ लोग वैसे ही छोड़ देते हैं, जैसे सूखे पेड़ को छोड़कर पक्षी उड़ जाते हैं। भगवान श्रीरामचंद्रजी ने भी जीवन में मर्यादा का पालन करते हुए क्रोध के यदाकदा उपयोग को ही सही माना है।
                       क्रोध में व्यक्ति का नुकसान ज्यादा होता है। व्यक्ति की आयु क्षीण होती है, वह धीरे-धीरे अनेक बीमारियों का शिकार हो जाता है क्रोध परिवार, समाज व कई अवसरों पर राष्ट्र के लिए भी घातक सिद्ध होता है। इसलिए क्रोध की आग उतनी ही जलाएं, जितना काबू में रख सकें। यदि क्रोध को भड़काने वाले कारणों से दूर रहें तो क्रोध पर विजय पाई जा सकती है। यदि किसी समय क्रोध आ जाए तो उसके परिणाम पर विचार जरूर करें। क्रोध से बचने के लिए प्राणायाम व व्यायाम का सहारा लें। गीत-संगीत सुनने के साथ-साथ भक्ति और प्रार्थना करें। खुलकर हंसें। आसपास का वातावरण स्वभावत: सुधरने लगेगा। क्रोध की अवस्था ऊर्जा की एक ऐसी अवस्था है, जिसका शमन रूपांतरण से ही संभव है। क्रोध को बलपूर्वक नहीं दबाया जा सकता। विपरीत परिस्थितियों में भी समन्वय स्थापित करने का प्रयास करें। शांत मनोवृत्ति वाले धीर-वीर समर्थ सत्यपुरुष के सामने क्रोधी का क्रोध अधिक समय तक टिक नहीं सकता। ऐसे स्थान पर गिरा हुआ अंगारा, जहां घास न हो, क्या स्वयं ठंडा नहीं हो जाता? क्रोध को क्रोध से नहीं बल्कि शांति से जीता जा सकता है।
                         || हरिः शरणम् ||

Friday, March 14, 2014

क्रोध-एक मनोवृति |

                  क्रोध से व्यक्ति का सहज स्वभाव बदल जाता है। क्रुद्ध व्यक्ति की सज्जनता, संवेदनशीलता, शालीनता, विन्रमता, उदारता आदि गुण ओझल हो जाते हैं। उसके अंदर की हमदर्दी कठोरता में और सहृदयता क्रूरता में बदल जाती है।
                  जब क्रोध स्थायी भाव बन जाता है तो यह रोष बन कर प्रकट होता है। क्रोध एक मनोवृत्ति है। यह एक ऐसी भाव दशा है जो अति शीघ्र प्रकट होती है। इसे दबाया तो जा सकता है, लेकिन इसके प्रभावों को छिपाना संभव नहीं है। क्रोध मानवीय व्यवहार के किसी न किसी पक्ष से उजागर हो ही जाता है। मनोवैज्ञानिकों ने क्रोध को शांत व हिंसक के रूप में वर्गीकृत किया है। शांत क्रोध अंतरमुखी होता है। इससे व्यक्ति में हताशा, निराशा और उदासी छा जाती है। वह हैरान-परेशान रहता है।अपने मन की बात किसी से कह न पाने के कारण वह अंदर ही अंदर घुटता रहता है। क्रोध के उबाल को दबा देने के कारण उसकी आंतरिक स्थिति और भी अस्थिर व अशांत हो उठती है।
                 हिंसक क्रोध बहिर्मुखी होता है। यह क्रोध अपने उफान को बाहर प्रकट करता है। इसके परिणाम स्वरूप कलह, लड़ाई-झगड़ा से लेकर दंगा-फसाद तक होते देखे जा सकते हैं। यह भी दो प्रकार का होता है- साधारण और असाधारण। साधारण क्रोध अल्पकालिक और क्षणिक होता है। यह दूध के समान तुरंत उफन पड़ता है। इसकी प्रतिक्रिया क्षीण ही सही, परंतु तीव्र होती है। जैसे ही यह क्रोध शांत होता है, अपने किए कर्म पर पश्चाताप होता है। असाधारण क्रोध का आवेश दीर्घकाल तक बना रहता है। आवेश का यह नशा मदिरा के समान होता है। इसके नशे में व्यक्ति लंबे समय तक आत्मविस्मृत हो कर बेसुध पड़ा रहता है। ऐसे व्यक्ति को कोई भी उपदेश और मार्गदर्शन देना संभव नहीं है, क्योंकि वह अपने ही बुने ताने-बाने में जलता-भुनता रहता है। धीरे-धीरे वह उन्माद के बाहुपाश में जकड़ता चला जाता है और उन्मादी वृत्ति उसके जीवन का अंग बन जाती है।
                       किसी भी कारण से क्रोध पैदा हो सकता है, परंतु जैसे ही मन में छोटी तरंग उत्पन्न होती है, वैसे ही यह संवेदना का योग पाकर मन की गहराई में उतरती चली जाती है। क्रोध को नियंत्रित किया जा सकता है। आत्म-नियंत्रण व ईश्वर चिंतन द्वारा इस असाध्य मनोरोग से मुक्ति संभव है।
                   || हरिः शरणम् ||

Thursday, March 13, 2014

परमार्थ |

                            मनुष्य और समाज, शरीर और उसके अंगों के सदृश हैं। दोनों परस्पर पूरक हैं। एक के बिना दूसरे का स्थायित्व संभव नहीं है। दोनों में आपसी सहयोग परमावश्यक है। मनुष्य की समाज के प्रति एक नैतिक जिम्मेदारी होती है, जिसके बिना समाज सुव्यवस्थित नहीं रह सकता। इसे हम मानव शरीर के उदाहरण द्वारा उचित तरीके से समझ सकते हैं।
                              शरीर के विभिन्न अंग यदि अपना काम करना छोड़ दें, तो वह शिथिल और जर्जर हो जाएगा। शरीर को सुदृढ़ व स्वस्थ बनाने के लिए प्रत्येक अंग का कार्यरत व क्रियाशील होना बहुत जरूरी है, ठीक यही स्थिति समाज के लिए आवश्यक है। समाज को समुचित स्थिति में रखने के लिए प्रत्येक मनुष्य में अपने उत्तरदायित्व को निभाने के लिए क्रियाशीलता अपेक्षित होती है। विभिन्न अंगों के पृथक ढंग से कार्य करने पर असहयोग की स्थिति उत्पन्न होगी। उस समय शरीर की दशा अत्यन्त शोचनीय हो जाएगी। शरीर एक मशीन की भांति है, एक भी पुर्जा गड़बड़ हुआ, तो सारी मशीन बिगड़ जाती है। व्यक्ति का स्वार्थमय जीवन भी समाज के लिए अत्यत दुखदायी है। इस स्थिति में समाज का सदस्य सुखी नहीं रह सकता। समाज में शक्ति-संपन्नता और उसका विकास पूर्णतया असंभव है।
                                यदि किसी मनुष्य ने अपनी उन्नति या विकास कर लिया, किंतु उससे समाज को कोई लाभ न मिला, तो ऐसे व्यक्ति की समस्त उपलब्धियां व्यर्थ हैं। स्वार्थी और संकुचित स्वभाव वाले व्यक्ति समाज का शोषण और अहित करते हैं। इस तरह के व्यक्ति समाज के शत्रु होते हैं, जो निरंतर असहयोग के रूप में दुर्भावना फैलाते रहते हैं और समस्याएं खड़ी करते हैं। ऐसे व्यक्ति समाज को पतन के गर्त में ले जाते हैं। ये व्यक्ति अविश्वसनीय, संदेहास्पद और झगड़ालू प्रवृत्ति के होते हैं। सुखी-संपन्न समाज तभी निर्मित हो सकता है, जब मनुष्य व्यक्तिवादी विचारधारा को छोड़कर समष्टिवादी बने। इसी में समाज का कल्याण और मानव का हित है। समाज में पारस्परिक सहानुभूति, प्रेमभावना, उदारता , सेवा व संगठन की भावनाएं अत्यंत आवश्यक हैं। इन्हीं से समाज का विकास और समृद्धि संभव है। समाज में व्यक्ति का सबसे बड़ा दायित्व है- परमार्थ। समाज के जरूरतमंद व निराश्रित व्यक्तियों की सेवा करना व्यक्ति का एक महान कर्तव्य होना चाहिए।
                                   || हरिः शरणम् ||

Wednesday, March 12, 2014

नैतिकता की अवधारणा |

                        भारतीय संस्कृति में नैतिकता की अवधारणा में अनेक गुणों को शामिल किया गया है। मानवीय एकता, सत्य पर विश्वास, उदारता, अन्याय के प्रति संघर्ष, साहस, सच्चरित्रता, निस्पृहता, सहानुभूति, संवेदना और समन्वयवादी दृष्टिकोण आदि को नैतिकता की अवधारणा में ही शामिल किया जाता है। इन्हीं सदगुणों के आधार पर मनुष्य मनुष्य बना रह सकता है और विश्व के समक्ष आदर्श उपस्थित कर सकता है। मेरी दृष्टि में कोई भी आदमी फरिश्ता नहीं होता, विशेषताओं के साथ कमियों की संभावनाओं को भी नकारा नहीं जा सकता। बावजूद इसके हर इंसान का मन इस बात के लिए जागरूक बने कि मैं बुराइयों को मिटाने का तो दावा नहीं कर सकता, लेकिन अपने स्वयं के जीवन में बुराइयों के आने के दरवाजों को अवश्य बंद रखूंगा। इसी संकल्प से एक अच्छे इन्सान की तलाश का काम पूरा हो सकता है।
                      आचार्य श्री महाप्रज्ञ ने इस संदर्भ में कहा है कि जब व्यक्ति अपने आपको नहीं देख पाता, तब हजारों-हजारों समस्याएं पैदा होती चली जाती हैं। इनका कहीं अंत नहीं होता। गरीबी की समस्या हो, मकान और कपड़े की समस्या हो ये सारी की सारी गौण समस्याएं हैं, मूल समस्याएं नहीं हैं। ये पत्तों की समस्याएं हैं, जड़ों की नहीं हैं। पत्तों का क्या? पतझड़ आता है, सारे पत्ते झड़ जाते हैं। वसंत आता है और सारे पत्ते आ जाते हैं, वृक्ष हरा-भरा हो जाता है। यह मूल समस्या नहीं है।
                      मूल समस्या यह है कि व्यक्ति अपने आपको नहीं देख पा रहा है। उसके पीछे ये पांच कारण या समस्याएं काम कर रही हैं। पहला, मिथ्या दृष्टिकोण, दूसरा असंयम, तीसरा प्रमाद, चौथा कषाय (कटु स्वभाव), पांचवां चंचलता। जैन-दर्शन के अनुसार ये पांच मूल समस्याएं हैं। यही वास्तव में दुख हैं। यही दुख का चक्र हैं। जब तक दुख के इस चक्र को नहीं तोड़ा जाएगा, तब तक जो सामाजिक, मानसिक और आर्थिक समस्याएं हैं, उनका सही समाधान नहीं हो सकेगा। समय-सापेक्ष जीवन मूल्यों को आचरण में लाने के लिए हमें दायित्व और कर्तव्य की सीमाओं को समझना होगा। आंखों के सामने जो कुछ हो रहा है उसे सिर्फ देखना ही नहीं, अच्छे-बुरे का विवेक जगाना होगा।
                            || हरिः शरणम् ||

Tuesday, March 11, 2014

नैतिक-मूल्य |

                        सदियों से भारत की संस्कृति नैतिक मूल्यों व गुणों से परिपूर्ण है। हमारी संस्कृति नैतिक आचार-विचार व व्यवहार का पालन करने के लिए सदैव प्रेरित करती है, परंतु अफसोस की बात है कि आज समाज और जीवन के हर एक क्षेत्र में नैतिक मूल्यों का ह्वास तेजी से हो रहा है। कई लोग यह भी प्रश्न करते हैं कि आखिर नैतिकता का अभिप्राय क्या है? नैतिकता का आशय है- नीति के अनुसार। यानी हमारे विचार, कर्म और व्यवहार सद्गुणों से प्रेरित हों और वे धर्म, संस्कृति व राष्ट्र के लिए हितकारी हों। आध्यात्मिक तत्वों व शक्तियों का संवर्धन करने वाले ऐसे विचारों, व्यवहारों व गुणों को नैतिकता कहते हैं। अत्यंत विकट परिस्थितियों में भी आध्यात्मिक गुणों का पालन करते हुए अपने कर्म विशेष के प्रति जो सदाचरण कायम रख सके, वही नैतिक है। ऐसा तभी संभव है, जब मनुष्य अपने भीतर के अहंकार, स्वार्थ व स्वनिर्मित आत्मघाती भय से परे उठने की साधना करे। धर्म, राष्ट्र व संस्कृति को अपने जीवन की धुरी बनाए। नैतिक मूल्य हमें उचित-अनुचित आचार व्यवहार का ज्ञान कराते हैं।                       हमारी संस्कृति महान है। हमारे इतिहास में ऐसे अनेक ऋषि-मुनियों, महापुरुषों व श्रेष्ठ साधकों के उदाहरण मिलते हैं, जिन्होंने अपना संपूर्ण जीवन नैतिक मूल्यों के रक्षार्थ समर्पित कर दिया और संपूर्ण समाज को जीवन के प्रति एक नई दिशा दी।
                    मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम नैतिकतामय जीवन के आदर्श प्रतीक हैं। उन्हीं के पदचिह्नों पर चलते हुए भक्तिपूर्ण भाव से अपने आचरण को नैतिक रखते हुए हनुमानजी ने अमरत्व प्राप्त कर लिया। नैतिकतापूर्ण व्यवहार की अभिव्यक्ति हमें महर्षि वशिष्ठ, महर्षि दधीचि, स्वामी विवेकानंद, सरदार वल्लभ भाई पटेल और डॉ. बाबा साहेब अंबेडकर जैसे महानतम राष्ट्र साधकों के जीवन में दिखती है। नैतिकता के बगैर जीवन में आत्मोन्नति संभव नहीं। नैतिकतापूर्ण जीवन जीकर, दूसरों के समक्ष आदर्श प्रस्तुत करके ही इस जीवन में सफलता के सही मार्ग का चयन कर सकते हैं। वैसे भी दुनिया में शायद ही कोई ऐसा शख्स हो, जो विफलता चाहता हो। नैतिकता से मनुष्य के साथ-साथ समाज और राष्ट्र का भी उत्थान होता है। जो समाज नैतिकता से विमुख हो जाता है, उसकी अवनति तय है। इसलिए सभी लोगों को नैतिकता के मार्ग पर चलना चाहिए।
                       || हरिः शरणम् ||

Monday, March 10, 2014

अलगाव |

                         अलग हो जाने का भय। बिछड़ जाने का भय। मां के गर्भ से अलग होने से पहले आपको कोई भय नहीं था, क्योंकि वहां आप अकेले थे। आपकी हर आवश्यकता की पूर्ति वहां हो रही थी। कोई चिंता, परेशानी ही नहीं थी। किसी प्रकार का भय नहीं था। सब कुछ मां पूर्ण किया करती थीं। आप वहां पर सुरक्षित थे, लेकिन जैसे ही आप मां के गर्भ की दुनिया को छोड़ते हैं, तब आपको भय लगने लगता है। यह ठीक वैसे ही होता है, जैसे एक पेड़ जब जमीन से बाहर आ जाता है। वह जब तक जमीन के भीतर था तब तक बाहर के थपेड़ों से बचा हुआ था। शांत था। कोई संघर्ष नहीं था। और बाहर आते ही वह पौधा संघर्षो में घिर गया। पहले उसकी रखवाली धरती कर रही थी और बाहर आते ही थपेड़ों से घिर गया। आंधी-तूफानों में आ पड़ा। वह वृक्ष बनकर बाहर की सारी परिस्थितियों से लड़ने की तैयारी करने लगा। उस वृक्ष को अब धूप बर्दाश्त करनी पड़ती है। हवा के हर झोंकों का सामना करना पड़ता है। बाढ़ का सामना करना पड़ता है। आपने न जाने कितने फूलों के पौधों को उखाड़-उखाड़ कर फेंका होगा या पेड़ों को एक जगह से उखाड़कर दूसरी जगह लगाया होगा। उस वक्त आपने देखा होगा, उस पेड़ की क्या दशा होती है। जब आप उखाड़ते हो तब वह कांपता है। वह इस तरह से झूलने लगता है जैसे उस पौधे को पता हो कि उसके साथ कुछ गलत हो रहा है।
                        अब जमीन उसकी देखभाल नहीं कर सकती, क्याेंकि उसे आपने उखाड़ दिया है। परित्याग कर दिया है। ऐसा भय ही आपके साथ है। आपको भी अपनी धरती से अलग कर दिया गया है। आप अलग नहीं हुए हैं। आप अलग होना भी नहीं चाहते थे। आपका परित्याग किया गया है। आपको धरती से काटकर अलग किया गया है। आपकी यह मांग नहीं थी। जो कुछ हुआ वह सब अचानक हुआ। वह सब एक विधि के साथ हुआ और आप भयभीत हो गए। अब आप अलग कर दिए गए हो। आपकी मांग बनी हुई है। अब वह सब प्रयासों के बगैर पूरी नहीं हो सकती। संघर्षो के बिना जीवन जिया नहीं जा सकता, यह सब आपको दिखाई पड़ जाता है। इसलिए संघर्ष के लिए हमेशा तैयार रहें और इनसे कभी भी घबराना नहीं चाहिए।
                        || हरिः शरणम् ||

Sunday, March 9, 2014

शिष्टाचार |

                     शिष्टाचार हमारे जीवन का एक अनिवार्य अंग है। विनम्रता, सहजता से वार्तालाप, मुस्कराकर जवाब देने की कला प्रत्येक व्यक्ति को मोहित कर लेती है। जो व्यक्ति शिष्टाचार से पेश आते हैं, वे बड़ी-बड़ी डिग्रियां न होने पर भी अपने-अपने क्षेत्र में पहचान बना लेते हैं। प्रत्येक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से शिष्टाचार और विनम्रता की आकांक्षा करता है।
                    शिष्टाचार का पालन करने वाला व्यक्ति स्वच्छ, निर्मल और दुर्गुणों से परे होता है। व्यक्ति की कार्यशैली भी उसमें शिष्टाचार के गुणों को उत्पन्न करती है। सामान्यत: शिष्टाचारी व्यक्ति अध्यात्म के मार्ग पर चलने वाला होता है। अध्यात्म के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति का जन्म किसी वजह से हुआ है। हमारे जीवन का उद्देश्य ईश्वर की दिव्य योजना का एक अंग है। ऐसे में शिष्टाचार का गुण व्यक्ति को अभूतपूर्व सफलता और पूर्णता प्रदान करता है।
                   यदि व्यक्ति किसी समस्या या तनाव से ग्रस्त है, लेकिन ऐसे में भी वह शिष्टाचार के साथ पेश आता है तो अनेक लोग उसकी समस्या का हल सुलझाने के लिए उसके साथ खड़े हो जाते हैं। ऐसा व्यक्ति स्वयं भी समस्या के समाधान तक पहुंच जाता है। शिष्टाचार को अपने जीवन का एक अंग मानने वाला व्यक्ति प्रायः अहंकार, ईर्ष्या, लोभ, क्रोध आदि से मुक्त होता है। ऐसा व्यक्ति हर जगह अपना प्रभाव छोड़ता है। कार्यस्थल से लेकर परिवार तक हर जगह वह और उससे सभी संतुष्ट रहते हैं। शिष्टाचारी व्यक्ति शारीरिक व मानसिक रूप से भी स्वस्थ रहता है, क्योंकि ऐसा व्यक्ति सद्विचारों से पूर्ण व सकारात्मक नजरिया रखता है। उसके मन के सद्भाव उसे प्रफुल्लित रखते हैं। चिकित्सा विज्ञान भी अब इस तथ्य को सिद्ध कर चुका है कि अच्छे विचारों का प्रभाव मन पर ही नहीं, बल्कि तन पर भी पड़ता है।
                  मस्तिष्क की कोशिकाएं मन में उठने वाले विचारों के अनुसार कार्य करती हैं। इसके विपरीत नकारात्मक विचारों का मन व तन पर नकारात्मक प्रभाव ही पड़ता है। जेम्स एलेन ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि अच्छे विचारों के सकारात्मक व स्वास्थ्यप्रद और बुरे विचारों के बुरे, नकारात्मक व घातक फल आपको वहन करने ही पड़ेंगे। व्यक्ति जितना अधिक अपने प्रति ईमानदार और शिष्टाचारी होता है वह उतनी ही ज्यादा सच्ची और वास्तविक खुशी को प्राप्त करता है।
                       || हरिः शरणम् ||

Saturday, March 8, 2014

दिव्य-प्रकाश |

                    ब्रह्मांड जैसी लोकतांत्रिक व्यवस्था अन्यत्र कहीं नहीं मिलती। हम प्रजातांत्रिक देश के निवासी हैं। प्रजातंत्र का अर्थ है, देश का प्रत्येक व्यक्ति महत्वपूर्ण है और समान अधिकार रखता है। राष्ट्रपति देश के सर्वोच्च पदासीन व्यक्ति होते हैं। उनकी सहायता के लिए एक मंत्रिमंडल होता है। राष्ट्रपति के प्रतिनिधि राज्यों में राज्यपाल होते हैं और उनकी सहायता के लिए मुख्यमंत्री का मंत्रिमंडल होता है, जिनकी सहायता के लिए जिलाधिकारी, बीडीओ और पंचायत के मुखिया होते हैं, जो अपने-अपने क्षेत्र के विकास के लिए काम करते हैं। इस व्यवस्था से गांव का अंतिम व्यक्ति देश के महामहिम राष्ट्रपति से जुड़ा रहता है। इसलिए इसे गणतांत्रिक प्रजातंत्र कहा जाता है। इसी तरह हमारे ब्रह्मांड में भी ऐसी ही व्यवस्था है। ब्रह्मांड में दिव्य शक्तियां आच्छादित हैं। उसी दिव्य शक्ति से आकाशगंगा का निर्माण हुआ है। विज्ञान भी कहता है कि ताप ऊर्जा जब अत्यधिक सघन बन जाती है तो उसका द्रवीकरण हो जाता है। उसी द्रव्यमान को आकाशगंगा माना गया है।
                     महान वैज्ञानिक आइंस्टीन कहते हैं कि पदार्थ जब अत्यंत घनीभूत हो जाता है तो ऊर्जा बन जाता है और ऊर्जा पदार्थ बन जाती है। यह क्त्रम चलता रहता है। विज्ञान की दृष्टि से शायद उसी दिव्य प्रकाश ऊर्जा का द्रव्यमान आकाशगंगा है। संभव है, आकाशगंगा को जन्म देने वाली दिव्य शक्ति जिसे आइंस्टीन ने सुपर पावर कहा है, वही ब्रह्मांड का मूल हो। जो प्राण शक्ति बनकर संपूर्ण ब्रह्मांड का नियंत्रण कर रही हो। वही ब्रह्मांड की सर्वोच्च अधिकारी होगी, उसी ने आकाशगंगाओं में अपार ऊर्जा शक्ति भरी होगी, उसी के नियंत्रण में एक अनुमान के अनुसार बीस हजार से अधिक निहारिकाएं बनी होंगी और किसी एक निहारिका के अंदर अनेक सूर्य मंडलों में से हमारा यह सूर्य होगा, जिसके सीधे संपर्क में हमारी पृथ्वी गतिमान है। इस तरह ऊर्जा का मूल स्रोत कोई दिव्य प्रकाश है, जो आकाशगंगा,निहारिका और सूर्य मंडल से होते हुए पृथ्वी तक आता है और पृथ्वी से 84 लाख जीव-जंतुओं में गतिमान होता है। ऐसा लगता है कि हमारा ब्रह्मांड पूर्ण लोकतांत्रिक व्यवस्था के अंदर कार्य करता है। लोकतंत्र में जिस प्रकार शासन सूत्र धीरे-धीरे ऊपर से देश के अंतिम व्यक्ति तक पहुंचते हैं, उसी प्रकार ब्रह्मांड की दिव्य शक्ति भी विभिन्न माध्यमों से होते हुए जीव तक पहुंचती है |
                     || हरिः शरणम् ||

Friday, March 7, 2014

जीवन का अर्थ |

                           जीवन परमात्मा का प्रसाद होता है। इसे यों भी कह सकते हैं कि जीवन पूर्ण परमात्मा की आंशिक अभिव्यक्ति है। इसलिए हम मानते हैं कि हमारे अंतर्मन में परमात्मा निवास करता है। परमात्मा प्राणरूप में हमारे सूक्ष्म और स्थूल शरीर का संचालन करता है। इसलिए जीवात्मा को परमात्मा भी कहते हैं। हमारी आत्मा का कोई स्वरूप नहीं होता, यह अतिसूक्ष्म है, शक्तिरूप है। लेकिन जब कभी बाहर का प्रभाव अंतर्मन पर पड़ने लगता है, तो आत्मा की दिव्यता कम होने लगती है। इसीलिए हमारे साधक साधना करते हैं ताकि बाहर की विकृति अंतर्मन को दूषित न कर सके।
                        सच कहा जाए, तो हमारा जीवन एक महोत्सव है। यह आनंदस्वरूप है, केवल ध्यान रखने की आवश्यकता है कि हमारे आनंद के सागर में विकारों की लहरें न उठें। इसलिए पतंजलि संयम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा और समाधि ( अष्टांग योग ) के अभ्यास की बात कहते हैं। ऐसा इसलिए, क्योंकि अगर जीवन को रसपूर्ण बनाना है, तो साधना की अग्नि में उसे तपाना पड़ेगा, तभी जीवन को दिव्य बनाया जा सकता है। सामान्यत: लोग अपने ही विकारों से जीवन की दिव्यता को धूमिल बना लेते हैं क्योंकि सारे विकार स्व अर्जित होते हैं। अगर थोड़ी सी सतर्कता बरती जाए, तो हमारा जीवन आनंदपूर्ण बन सकता है।
                     अनेक लोग अकारण निराशावादी बन जाते हैं, कई लोग तनावग्रस्त और चिंतित रहने लगते हैं। अगर इनके कारणों पर विचार किया जाए तो इनके तनाव और चिंता का कोई प्रबल कारण नहीं दिखता। अकारण चिंतित होकर कई लोग अपने जीवन के आनंद से वंचित रह जाते हैं। इसलिए प्रसन्न रहने का अभ्यास किया जाना चाहिए। संसार में न केवल दुख है और न सुख ही सुख है। हमारा दृष्टिकोण जैसा होता है, संसार उसी तरह दिखने लगता है। आशावादी व्यक्ति को चारों ओर प्रकृति की मुस्कान दिखती है और निराशावादी व्यक्ति को इस संसार में केवल कांटे ही दिखते हैं। हमें जीने का नजरिया बदलना होगा, हमें जीवन जीने की विधि सीखनी होगी, तभी हम जीवन का सार्थक उपयोग कर सकते हैं। जीवन का एक-एक पल कीमती है, आनंदपूर्ण है। जीवन जीने की यह कला सीख लेना ही आपके जीवन का सही अर्थ है |
                     || हरिः शरणम् ||

Thursday, March 6, 2014

जीवन-चक्र |

                       गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि शरीर का निर्माण पांच तत्वों-पृथ्वी, जल, आकाश, वायु व अग्नि और तीन गुणों- सतो (सत), रजो (रज) व तमो (तम) से हुआ है। इसके बाद ब्रह्म का अंश जीव के रूप में शरीर में प्रवेश करके उसे जीवात्मा बनाता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रकृति के गुण जीव निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
                       प्रकृति के गुणों के विद्यमान होने के अनुपात के अनुसार जीव की वृत्ति का निर्धारण होता है। जन्म-जनमांतर यह वृत्ति मन के रूप में जीव के साथ चलती रहती है। अष्टांग योग में साधक यम, नियम, आसन इत्यादि द्वारा मन के निग्रह का ध्येय लेकर चलता है।
                       मन का पूर्ण निग्रह होते ही जीव परम ब्रह्म में विलीन होकर जीवन-मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है, परंतु आज के समाज में मन के निग्रह की कल्पना कठिन नजर आती है। इसका प्रमुख कारण है, अनियंत्रित भोग-विलास और यम के प्रमुख स्तंभ अस्तेय व अपरिग्रह का पालन न होना। अस्तेय का अर्थ है- चोरी न करना और अपरिग्रह का मतलब है जरूरत से ज्यादा संग्रह न करना। आज ज्यादातर मनुष्य किसी न किसी प्रकार की चोरी में लिप्त हैं। अपरिग्रह के बारे में तो कोई सोच ही नहीं रहा है। जीवनयापन से ज्यादा धन यदि मनुष्य समाज की भलाई में लगा दे तो समाज का आर्थिक असंतुलन समाप्त हो सकता है और धन की चोरी रोकी जा सकती है।
                      अत्यधिक धन संग्रह की इच्छा रजोगुण में वृद्धि का मूल कारण है। जब ज्यादा धन संग्रह हो जाता है, तब विलासिता, मोह व भय उत्पन्न होने लगते हैं और इनके द्वारा तमोगुण की प्रधानता होने लगती है। तमो गुण से ग्रस्त व्यक्ति निम्न योनियों जैसे-पशु, पक्षी आदि के रूप में जन्म लेता है क्योंकि अस्तेय व अपरिग्रह को जीवन में न अपनाकर वह निम्न योनियों को प्राप्त कर रहा है। जीव का अगला जन्म उसके अंदर विद्यमान गुणों पर निर्भर करता है। निम्न योनियां जैसे पशु-पक्षी आदि केवल अपना पेट भरने व अपनी सुरक्षा के बारे में ही सोचती हैं। इसलिए जो मनुष्य केवल इसी प्रकार सोचता है, वह भी पशु समान ही है। उसे पशु की योनि प्राप्त होती है।
                       सतो गुण में वृद्धि होने के कारण प्रेम,आनंद और परमार्थ की भावना उत्पन्न होते हैं | जिस कारण मनुष्य को आत्मिक शांति प्राप्त होती है | यही गुण मनुष्य को इंसान बनाता है | हमें सोचना होगा कि हमारा जीवन कैसा होना चाहिये ? सतो गुण युक्त या रजो व तमो गुण युक्त |   
                                                   || हरिः शरणम् ||
                               

Wednesday, March 5, 2014

व्यक्ति की महानता |

                       किसी भी व्यक्ति की महानता का आकलन करने के लिए प्रत्येक समाज या विचारधारा के अलग-अलग पैमाने होते हैं। इन्हीं के आधार पर हम लोगों को महान कहते हैं।भारतीय संस्कृति में यह पैमाने सदियों पहले से ही निश्चित किये हुए हैं जिनकी सार्थकता आज भी है |
                      वेदों में महानता के पांच लक्षण बताए गए हैं। प्रथम लक्षण है व्यक्ति का कर्मयोगी होते हुए परमेश्वर, समाज और राष्ट्र के लिए जीवन समर्पित करना। दूसरा लक्षण है कि वह मान-अपमान, लाभ-हानि आदि की परवाह न करते हुए और सदा आनंदित रहते हुए अपने कर्तव्य पथ पर आगे बढ़ता रहता है। वह दूसरों को भी आनंद प्रदान करता है। व्यक्ति की महानता का तीसरा लक्षण यह है कि वह मननशील, सहनशील और मर्यादा पालक होता है। उसका धर्म मनुष्यता या परोपकार पर आधारित होता है। गीता के अनुसार निष्काम कर्म करने वाला यानी अपने लाभ के लिए कर्म न करने वाला व्यक्ति महानता के लक्षण पूरे करता है।चौथा लक्षण यह है कि उसमें छोटापन नहीं होता है। उसका हृदय विशाल होता है और वह प्रत्येक जीव को समान आदर और प्रेम की दृष्टि से देखता है। महानता का पांचवां लक्षण यह है कि ऐसा व्यक्ति स्वयं प्रकाशित होता है और अपने इस प्रकाश से अन्य लोगों को भी प्रकाशित करता है यानी वह ज्ञान और ऊर्जा से परिपूर्ण होता है और अन्य लोगों को भी प्रेरित करता है जिससे वे भी अपना अज्ञान मिटाकर कर्मशील होकर ज्ञानमार्ग पर बढ़ सकते हैं।
                      सदैव दूसरों की सहायता करने वाला, पुरुषार्थयुक्त, उत्तम बल से युक्त, बुद्धिमान और विशेष ज्ञान वाला और बिना किसी स्वार्थ के सेवा में तत्पर रहना आदि गुणों से सुशोभित होना भी महानता के लक्षण हैं। महान व्यक्तियों के कर्मो और स्वभाव को समझकर यदि हम आत्मसात कर सकें तो अपने जीवन में कुछ सुधार ला सकते हैं। आज तक इस धरती पर जितने भी कर्मशील लोग पैदा हुए हैं, सभी ने अपने-अपने तरीके से कुछ रचनात्मक योगदान दिया है। इस सृष्टि को इन विचारकों, मनीषियों और वैज्ञानिकों आदि ने समस्याओं का समाधान करते हुए समृद्ध बनाया है।
                      अंग्रेजी भाषा में एक कहावत है जिसका आशय है कि कुछ लोग जन्म से महान होते हैं, कुछ महान बन जाते हैं और कुछ पर महानता थोप दी जाती है। हमारी संस्कृति के अनुसार महानता किसी पर थोपी नहीं जा सकती है। सतत साधना करते हुए नर और नारायण की सेवा करके हम महान बन सकते हैं |
                         || हरिः शरणम् || 

Tuesday, March 4, 2014

जीवन-लक्ष्य |

                   मनुष्य जीवन के दो लक्ष्य हैं। पहला, कुसंस्कारों से छुटकारा पाना और परिष्कृत दृष्टिकोण अपनाना। परिष्कृत जीवन के साथ जुड़ी हुई आनंद भरी उपलब्धियां स्वर्ग कहलाती हैं और दुष्प्रवृत्तियों से छुटकारा पाने को ही मुक्ति कहते हैं।जीवन का दूसरा लक्ष्य है भगवान द्वारा ही निर्मित इस भौतिक संसार को, इस विश्व उद्यान को अधिक सुरम्य, समुन्नत और सुसंस्कृत बनाने में योगदान देना।
                   इन दोनों प्रयोजनों को पूरा करने में जो जितना योगदान देता है वह उतना ही बड़ा भक्त होता है। इस मार्ग पर चलने वाले संत, ऋषि, देवात्मा आदि नामों से पुकारे जाते हैं।उन्हें असीम आत्मसंतोष प्राप्त होता है। वे लोक-सम्मान के पात्र होते हैं। ऐसे लोगों को दूसरों से सहयोग मिलने से अपने उच्चस्तरीय उद्देश्यों की पूर्ति में असाधारण सफलता भी मिलती है। उनके कृत्य ऐतिहासिक होते हैं और उनके प्रभाव से तमाम लोगों को ऊंचा उठने के और आगे बढ़ने के अवसर मिलते हैं।
                 अतः बुद्धिमता इस बात में है कि आत्म-तत्व और शरीर दोनों की आवश्यकताओं का ध्यान रखा जाए। श्रम और बुद्धि का उपयोग दोनों क्षेत्रों के लिए इस प्रकार किया जाए कि शरीर स्वस्थ रहे और आत्मा अपने महान लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल हो जाए, किंतु यह करना आसान नहीं है। जो बुद्धि आए दिन अनेक समस्याओं को सुलझाने में, संपदाओं और उपलब्धियों के उपार्जन में पग-पग पर चमत्कार दिखाती है वह केवल मौलिक नीति निर्धारण, सुख-सुविधाओं के संचय-संवर्धन में ही लग जाती है। बुद्धि का यह एकपक्षीय असंतुलन ही जीवात्मा का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है। उसी से छुटकारा पाने के लिए ब्रह्मज्ञान, आत्मज्ञान और तत्वज्ञान के विशालकाय कलेवर की संरचना की गई है।
               बुद्धि को आत्मा के स्वरूप और उसके लक्ष्य को समझने का अवसर देना ही उपासना का मूलभूत उद्देश्य है। भौतिक जगत में शरीर के लिए अनेक आवश्यक सुविधा-साधन उपलब्ध हैं। ठीक उसी प्रकार एक चेतन जगत भी है। उसमें भरी हुई संपदा आत्मिक आवश्यकताओं को पूरा करती है। ब्रह्म सर्वत्र विद्यमान है, पर उसकी अभीष्ट अनुभूति करने के लिए भी पुरुषार्थ करना पड़ता है।इसको ही भक्ति या उपासना कहा जाता है | उपासना-प्रक्रिया को ईश्वर और जीव के बीच विशिष्ट आदान-प्रदान का द्वार खोलना कह सकते हैं। उपासना-प्रक्रिया का उद्देश्य अंतस चेतना को परिष्कृत करना है। दोनों लक्ष्यों को साधना ही मानव जीवन का उद्देश्य होना जाहिए, तभी इसकी सार्थकता है |
                  || हरिः शरणम् || 

Monday, March 3, 2014

जागरण |

                                   भय और भ्रम के निवारण के लिए मनुष्य का जागना अत्यावश्यक है |जब तक हम अपने सपनों में ही खोये रहेंगे तब तक भय और भ्रम दोनों से ही मुक्त नहीं हो सकते | सपने से बाहर निकलने के लिए जागना जरूरी है |मनुष्य की सबसे बड़ी कमी है कि वह भौतिक रूप से जागते हुए भी सपने देखना नहीं छोड़ पाता |इसलिए उसके इस प्रकार जगे रहने को जागरण नहीं कहा जा सकता |जब तक मनुष्य जागते हुए भी सपने देखना बंद नहीं कर देगा तब तक वह भ्रम-जाल से निकल नहीं पायेगा |जैसा कि हमने उस राजा के बारे में कहानी पढ़ी है , जिसने सपने में भरापूरा परिवार देखा था ,ऐसी ही कभी किसी के साथ कोई घटना घटित हो जाती है तब अचानक वह एक झटके के साथ जागरण को प्राप्त होता है |ज्ञान किताबों में सब लिखा है,शास्त्रों में सब जगह वर्णित है,संत सब जगह प्रवचन में कहते हैं फिर भी इन सब के कारण कितने लोग जागे है,यह आप और मैं भली-भांति जानते हैं |
                                 राजा परीक्षित,जिसको ऋषि-पुत्र ने सात दिन में सर्पराज तक्षक द्वारा काटे जाने और तत्पश्चात मृत्यु को प्राप्त हो जाने का श्राप दिया था, उनसे सम्बंधित एक प्रसंग है | राजा परीक्षित ने अपनी संभावित  मृत्यु स्वीकार करते हुए शुकदेव जी से भागवत सुनना प्रारंभ किया |आप जानते हैं क्यों? मात्र मृत्यु के भय से मुक्त होने के लिए | जब तक व्यक्ति भय से मुक्त नहीं होगा तब तक वह इस भ्रम ,इस संसार से भी मुक्त नहीं हो सकता |भागवत सुनने के लिए उसके पास मात्र एक सप्ताह ही था |संसार का सारा ज्ञान भागवत में है |वक्ता भी इस संसार में शुकदेवजी के बराबर न तो उस समय कोई था और न ही कोई भविष्य में हो सकता है |परीक्षित गंगा जैसी पवित्र नदी के किनारे सुरम्य वातावरण में बैठ कर,सब राजकार्यों से मुक्त होकर बड़ी तल्लीनता  से भागवत सुन रहे थे |उन्हें भागवत सुनते छः दिन हो गए थे |भागवत से उनके सभी मोह और आकांक्षाएं समाप्त हो गई परन्तु अपने शरीर का मोह वह छोड़ न सके |शुकदेवजी सब समझ गए |उन्होंने सातवें दिन परीक्षित को एक कथा सुनाई,जिससे उनका अपने शरीर से भी मोह समाप्त हो गया |
                                शुकदेवजी ने कथा प्रारम्भ की |बोले-"हे राजन!एक राजा शाम के समय जंगल में आखेट के लिए निकला |वह शिकार के पीछे पीछे जंगल में काफी दूर तक निकल गया |शिकार खेल कर जब वह लौटने को उद्यत हुआ तो रात हो चुकी थी |जंगल में उसे हिंसक जानवरों की आवाजे सुनकर भय सताने लगा |उसे भ्रम होने लगा कि आस पास ही कोई सिंह व्याघ्र जैसा हिसंक जानवर है मिल सकता है |जो उसे मार सकता है | अब उसे रात गुजारने के लिए किसी सुरक्षित स्थान की तलाश थी |तभी उसे दूर कहीं एक जलते दीपक से आती रोशनी दिखाई दी |उसने उस तरफ किसी मनुष्य का निवास स्थान होना समझा | यह सोचकर वह उधर चल पड़ा |पास पहुंचकर उसने देखा कि वह एक बहेलिये की झोंपड़ी थी |राजा घोड़े से उतरा और बहेलिये को अपना परिचय दिया |साथ ही रात को वहाँ ठहरने देने की प्रार्थना की |बहेलिया बोला-"राजन ! आप जरा भीतर आइये |देखिये,डर के कारण मैं भी रात को बाहर नहीं निकलता हूँ |इस कोने में मैंने अपना मल-मूत्र  त्यागने का स्थान बना रखा है, जिस कारण से यहाँ आपको बदबू महसूस होगी |इधर छत से मरे जानवरों की खालें लटक रही है |ऐसे में आप को यहाँ बहुत असुविधा होगी |" राजा बोला-"एक रात की ही तो बात है |सुबह नींद से जागते ही मैं वापिस चला जाऊंगा |"बहेलिया बोला-"नहीं राजन!जो एक बार यहाँ रुक जाता है ,फिर उसे यहाँ आनंद आने लगता है |उसे  यहाँ की बदबू भी खुशबू लगने लगती है |फिर वह यहाँ से किसी भी सूरत में जाना ही नहीं चाहता |"राजा बोला-"नहीं,मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि सुबह जागते ही मैं यहाँ से निकल जाऊंगा |" अंत में थकहारकर बहेलिये ने उन्हें रूकने का कह दिया |राजा रात भर के लिए वहाँ रुक गया |सुबह हुई |बहेलिये ने राजा को लौट जाने को कहा |राजा ने वापिस जाने से इंकार कर दिया |" इतना कहकर शुकदेवजी रुक गए | उन्होंने अकस्मात ही कहानी सुनानी बंद कर दी |
         राजा परीक्षित चौंक उठे,बोले-"महात्मन!आगे भी सुनाइए |आपने कहानी सुनानी बंद क्यों कर दी ? वह राजा ऐसे कैसे कर सकता है ? बहेलिये को दिए आश्वासन से वह मुकर कैसे सकता है ?मुझे आगे भी बताइए वह राजा कौन था ? मैं उसके वहाँ रुके रहने का कारण जानना चाहता हूँ |"
               शुकदेवजी बोले-"राजन!वह राजा आप ही हैं |"परीक्षित ने पूछा -"कैसे?"शुकदेवजी बोले-"और क्या राजन!आसन्न मृत्यु देखते हुए भी तुम्हारा इस मल-मूत्र देने वाले शरीर के प्रति अभी भी मोह है |तभी तो वह राजा तुम्ही हो | इस संसार में व्यक्त होने वाली समस्त आत्माएं अपने परमात्मा को यही आश्वासन देकर आती है कि वे जल्दी ही वापिस लौट आएगी | परन्तु इस संसार में आकर भी ,यह जानकर भी कि यह केवल  दुखालय है ,फिर भी यहाँ संसार और शरीर के मोह में इतना फंस जाती है कि परमात्मा के पास वापिस जाना ही नहीं चाहती |बार बार पुनर्जन्म लेकर इस शरीर में आना चाहती है | आपको भी तो इस शरीर से ही तो मोह है | इस कारण से आप ही तो वह राजा हुए |" यह सुनकर परीक्षित की आँखे अनायास ही खुल गई |और उनका शरीर से भी मोह नष्ट हो गया |
                          सम्पूर्ण भागवत सुनकर भी जिसका शरीर से मोह और मृत्यु से भय नहीं गया हो ,उसका शरीर से मोह औरमृत्यु से भय एक कहानी सुनने मात्र से ही नष्ट हो गया |ऐसे जाग जाना ही वास्तविक जागरण है | अब कोई कैसे जागरण को उपलब्ध होता है वह सब परिस्थितयों और समय पर निर्भर करता है |सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर भी आप मोह से मुक्त नहीं होते , और कभी एक छोटी सी घटना ही आपको इस  जीवन-मोह से मुक्त कर देती है |
                                 || हरिः शरणम् ||

Sunday, March 2, 2014

नींद से जागना |

                    जागरूक होकर हम कोई भी उपलब्धि प्राप्त कर सकते हैं। फिर हमारे लिए कुछ भी असंभव नहीं रह जाता..
                अध्यात्म विमुख होने का नहीं, बल्कि सम्मुख होने का संदेश देता है। वह चेतना को जगाने की बात करता है। अपनी चेतना को जाग्रत रख पाने के लिए ही हमें यह मानव जीवन मिला है। हम उपलब्धियां भी तभी प्राप्त करेंगे, जब जागते रहेंगे। जागे बिना, हम न तो खुद को जान पाते हैं, न ईश्वर को। कठोपनिषद में कहा गया है - "उत्तिष्ठ जाग्रत प्राप्य वरान्निवोधत।" अर्थात, उठो, जागो और श्रेष्ठता को प्राप्त करो। इस श्लोक को स्वामी विवेकानंद अपने व्याख्यानों में उद्धृत करते रहते थे।
                  इसलिए जागना जरूरी है। लेकिन हम नींद में खोए हुए हैं। यह नींद मोह की है, लोभ की है, माया की है..। हमारी चेतना तभी जागती है, जब हम हम काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह इत्यादि को छोड़ देते हैं। तब हमें अपनी ही आत्मा का परम प्रकाश दिखाई देता है। हमें अपने भीतर ही परमात्मा के दर्शन हो जाते हैं। तब हमारे पास आत्मविश्वास घनीभूत होकर आ जाता है और हम समाज के लिए महत्वपूर्ण कार्य कर जाते हैं। यह जागरण तभी होता है, जब हमारे भीतर राग-द्वेष, आसक्ति आदि मिट जाए और हम आत्मोन्मुख से परोन्मुखी हो जाएं , केवल स्वयं के बारे में ही नहीं सोचे, सबके बारे में ,सबके हित का सोचें |
                  जो जागता है, उसे ही जागरूक कहते हैं। ईश्वर का प्रकाश खोजने से पहले अपने भीतर का प्रकाश खोजना होगा। वहीं हमें ईश्वर भी मिल जाता है। अध्यात्म और योग शास्त्र हमें जागरूक रहना सिखाते हैं, फिर हमारे लिए कुछ भी असंभव नहीं रह जाता। अतः हमारी जिंदगी में जागरण आवश्यक है |
                   || हरिः शरणम् ||

Saturday, March 1, 2014

भ्रम का निवारण |

                                       एक राज परिवार अपनी रियासत में बड़े आनंद से सत्ता संचालन कर रहा था |उस राजपरिवार में तीन सदस्य थे |राजा,रानी और राजकुमार |सुखपूर्वक उनके दिन बीत रहे थे |अचानक एक दिन राजकुमार बीमार हो गया |राजा ने राजवैद्य से उसका आवश्यक उपचार शुरू करवाया |लेकिन उपचार के बाद भी राजकुमार स्वस्थ होने के स्थान पर और ज्यादा बीमार रहने लगा |दिन प्रतिदिन उसकी बीमारी बढती गई | अब राजा को उसकी मृत्यु का भय सताने लगा |उसने आसपास के राज्यों से सभी अच्छे चिकित्सकों को बुलाया और उनसे सही और सटीक मशविरा देने को कहा |सभी चिकित्सकों ने राजकुमार की भली-भांति जाँच की और एक अंतिम निर्णय पर पहुँच गए |मुख्य चिकित्सक ने राजा को बड़े ही विनम्र शब्दों में समझाया कि महाराज ,राजकुमार को एक असाध्य बीमारी ने जकड लिया है |इस बीमारी का आज तक ईलाज नहीं खोजा जा सका है ,यह बीमारी लाइलाज है |ज्यादा से ज्यादा राजकुमार की जिंदगी सात दिन की बची है |
                                       राजा और रानी चिकित्सक के मुंह से यह बात सुनकर हतप्रभ रह गए |राजा ने अपने आप को संभाला और रानी को यह सब विधि का विधान है यह सब समझाने लगा |परन्तु भीतर ही भीतर राजा,राजकुमार की संभावित मृत्यु को स्वीकार नहीं कर पा रहा था |सात दिन तो पंख लगाकर उड़ गए और अंत में राजकुमार की मृत्यु का दिन आ पहुंचा |रात हुई |राजा और रानी ,दोनों राजकुमार के पास बैठे उसकी मृत्यु का इंतज़ार कर रहे थे |राजा दिन भर का थका हुआ था |कुछ समय के लिए उसकी आँख लग गई |सोते ही गहरी नींद में राजा को स्वप्न दिखाई देने लगा |उसने स्वप्न देखा कि-
                              "वह एक बहुत ही विशाल देश का राजा है |उसके दरबार में छोटी मोटी कई रियासतों के राजा हाजरी देते हैं|उसकी रानी बहुत ही सुन्दर और विशाल ह्रदय वाली है |उनके सात अति सुन्दर राजकुमार है |राजा उन सबके साथ अपना जीवन बिता रहा है |बड़े आनंद में है वह |"
                                     तभी रानी के विलाप से उसकी नींद टूट जाती है और सभी राजकुमार,रानी और देश सब एक झटके के साथ गायब हो जाते है |सपना टूट जाता है,राजा जाग जाता है और वह देखता है कि रानी मृत राजकुमार की देह से लिपटकर रो रही है |राजा रोती हुई रानी को देख रहा है |कभी वह राजकुमार के शव को देखता है,कभी विलाप करती रानी को और फिर सोचता है ,अभी अभी टूटे स्वप्न में जो कुछ देखा उसके बारे में | वह समझ नहीं पा रहा था कि सातों राजकुमार और वह रानी कहाँ गए ? फिर सोचता है कि वह तो मात्र एक सपना था | जब विलाप करते करते रानी थक कर रोना बंद कर देती है तब उसे राजा का ख्याल आता है |वह देखती है कि राजा के चहरे पर दुःख के कोई भाव नहीं है |वह राजा को पूछती है -"क्या आपको राजकुमार की मृत्यु का कोई दुःख नहीं हुआ जो आप रो भी नहीं रहे है |"यह सुनकर राजा ने बड़े ही सधे हुए अंदाज़ में उत्तर दिया-"प्रिये!मैं यह सोच रहा हूँ कि इस राजकुमार की मृत्यु का शोक करूँ या उन सात राजकुमारों का जिनको मैंने अपने पुत्रों के रूप में सपने में देखा ?अब न तो वे सातों राजकुमार मेरे सामने है और न ही यह राजकुमार |मैं इस दुविधा में हूँ कि विलाप दोनों में से किसके लिए करूँ ?अगर वो सपना था तो क्या फिर यह भी एक सपना नहीं है ?"
                                       यह कहानी हमें यहीं छोडनी होगी क्योंकि हम सब जानते हैं कि रानी ने राजा को फिर क्या क्या कहा होगा | उनके समाज और देश ने राजा की आलोचना करते हुए क्या कहा होगा ? इस बात का परिणाम उन दोनों पर ही छोड़ देना उचित होगा क्योंकि ऐसी कथाएं मात्र मार्गदर्शन के लिए होती है,न कि परिणाम जानने के लिए |हमें भी इस कथा का विश्लेषण करना चाहिए कि राजा की इस दुविधा का कारण जान सके,समझ सके | यह सोचे कि राजा जिस दुविधा में है, क्या ऐसी  दुविधा हमारे सामने भी नहीं है ? राजा तो इस कहानी का एक पात्र मात्र है,वह दुविधा से निकले या फंसा रहे उसे कोई फर्क नहीं पड़ेगा |उसको तो वही कहना और करना है जैसा उस कथा का रचनाकार चाहेगा |और अच्छा रचनाकार वही होता है जो अपने मूल पात्र को दुविधा से निकालते हुए अपने पाठकों को एक सन्देश दे |
                             हम भी तो इस संसार रंगमंच के पात्र हैं| हम भी यहाँ सपने देखते है ,दुविधाग्रस्त होते हैं |हम सब का रचनाकार परमात्मा है, वह भी यही चाहता है कि हम इस दुविधा से उबरें |जैसे उपरोक्त कहानी के कथाकार ने सपने को तोड़ते हुए राजा को जगाया वैसे ही हमारा रचनाकार भी हमें नींद से जगाने का प्रयास करता है |परन्तु वास्तविकता के पात्र और कथा के पात्र में एक बहुत बड़ा अंतर होता है |कथा का पात्र यहाँ जागते हुए सपने नहीं देख रहा है |परन्तु इस संसार के सब पात्र जागते हुए भी सपने में खोये रहते है |ऐसे में वह दुविधा से बाहर कैसे निकले ? सोते हुए सपने देखने वाले को जगाना आसान है,जागते हुए सपने देखने वाले को जगाना बहुत ही मुश्किल है |सपना,मात्र भ्रम से अधिक कुछ भी नहीं है |संसार भी तो एक स्वप्न मात्र है ,इसीलिए यहाँ सब इसको ही सत्य मानते हुए भ्रमित हैं | अतः जिस प्रकार  सपने से बाहर आने के लिए जागना आवश्यक है वैसे ही इस भ्रम के निवारण के लिए भी एक तरह का जागरण जरूरी है |
                                        || हरिः शरणम् ||