अथ ब्रह्मा उवाच-1
मनुष्य ही संसार में एक मात्र ऐसा प्राणी है,जिसको परमात्मा ने सोचने समझने की
शक्ति प्रदान की है | इस शक्ति का सदुपयोग कर मनुष्य देवत्व को उपलब्ध हो सकता है
और इन्हीं शक्तियों का दुरुपयोग कर दानव भी बन बैठता है | यही कारण है कि अपने
मनुष्य होने की श्रेणी के अलावा मनुष्य को ही देवता और मनुष्य को ही दानव की
श्रेणी में एक मनुष्य होने के बावजूद रख दिया जाता है | अगर सरल शब्दों में कहा
जाये तो एक मनुष्य साधारण मनुष्य भी हो सकता है, वही मनुष्य देवता भी हो सकता है
और वही मनुष्य दानव भी हो सकता है | सत्व को उपलब्ध मनुष्य देवता होता है, रजस में
रत मनुष्य केवल साधारण मनुष्य होता है और तामसिक वृति का मनुष्य दानव हो सकता है |
मनुष्य हो चाहे इन तीनों में से किसी
भी एक श्रेणी में रखे जाने योग्य हो, उसमें एक विशेषता समान रूप से उपस्थित होती
है | वह विशेषता है- स्वयं को जानने की, स्वयं के बारे में जानने की | प्रत्येक
व्यक्ति चाहे बाहर से कुछ भी नज़र आ रहा हो, भीतर से उसे स्वयं की प्रकृति का ज्ञान
सदैव ही बना रहता है | मनुष्य की सबसे बड़ी विडंबना यही है कि वह स्वयं के बारे में
सब कुछ अच्छा-बुरा जानते हुए भी अपने आपको सदैव अच्छा और सामने वाले को बुरा ही
प्रदर्शित करता है अर्थात उसको स्वयं में सदैव अच्छाई और सामने वाले में बुराई ही
नज़र आती है | प्रत्येक व्यक्ति में अच्छाई और बुराई दोनों ही उपस्थित रहती है और
एक संत की दृष्टि के अनुसार प्रत्येक मनुष्य को स्वयं में बुराई और सामने वाले में
अच्छाई खोजने का ही सदैव प्रयास करना चाहिए |
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||
धन्यवाद डॉक्टर साहब फिर से ज्ञान गंगा प्रवाहित करने के लिए |
ReplyDeleteपंकज