Monday, May 30, 2016

अथ ब्रह्मा उवाच-8 समापन किश्त

 उपसंहार-
      ब्रह्मा के अमूल्य ज्ञान के विश्लेषण उपरांत हमने जाना कि मात्र एक ‘द’ का मंतव्य दमन, दान और दया तीनों से ही है | साथ ही साथ यह भी स्पष्ट है कि एक मनुष्य के भीतर ही देवता और दानव दोनों ही प्रकार की वृतियां निवास करती है | इससे इस संसार में कोई भी व्यक्ति अछूता नहीं है | धन अर्थात अर्थ को भोगते हुए हम अपने आपको देवत्व को उपलब्ध होना मान सकते हैं क्योंकि भोग प्रारम्भ में हमें अमृत तुल्य सुख ही प्रदान करते हैं, जैसा कि सुख देवताओं को स्वर्ग में मिलता है | धन को और अधिक संग्रह करने के लोभ में हम संसार के अन्य प्राणियों का उत्पीडन कर सकते है, इस क्रूरता के कारण हम साधारण मनुष्य से दानव बन सकते हैं| रही बात साधारण मनुष्य की, उसमें तो लोभ एक विकार के रूप में सदैव उपस्थित रहता ही है जिस कारण वह जीवन भर अर्थ-संग्रह में लगा रहता है | यह लोभ ही मनुष्य के समस्त विकारों जैसे राग-द्वेष, लोभ, मोह. क्रोध, मद आदि का जनक है | अर्थ का दान आपको लोभ से भी मुक्त करता है | अतः एक मनुष्य के लिए यह आवश्यक है कि वह अपनी इन्द्रियों का दमन करते हुए अपने जीवन में भोगों पर संयम रखे, प्राणियों के प्रति दया भाव रखे और साथ ही साथ धन-संग्रह की वृति को छोड़कर दान करे | इन्द्रियों का दमन, धन का दान और प्राणियों के प्रति दया-भाव, सभी मनुष्य को अपने में उपस्थित सभी विकारों से मुक्त कर देते हैं और परमात्मा तुल्य बना देते है |
             प्रारम्भ किसी भी प्राणी के प्रति प्रत्येक प्रकार की हिंसा, क्रूरता (शारीरिक और मानसिक हिंसा ) न करने के संकल्प से करें | अहिंसा का सिद्धांत अपनाते ही आप अपने आपको दानव-वृति से बाहर कर लेंगे | इसके पश्चात् अपरिग्रह का सिद्धांत अपनाएं | आवश्यकता से अधिक का संग्रह न करते हुए धन को जरूरतमंद की सेवा में समर्पित कर दें | यह दान आपको लोभ-वृति से बाहर कर देगा | साथ ही साथ काम भोग से अपने आपको दूर रखें | सदैव यह बात ध्यान में रखें कि इन्द्रिय सुख प्रारम्भ में अवश्य ही अमृत तुल्य होता है परन्तु अंत में इनका परिणाम विष-तुल्य और दुःख के रूप में मिलता है | इसके लिए मन सहित समस्त इन्द्रियों को बुद्धि के द्वारा नियंत्रित कर देवत्व से भी ऊपर उठ जाएँ | तीनों वृतियों पर नियंत्रण स्थापित करते ही आप मनुष्य में उत्पन्न होने वाले सभी विकारों से मुक्त हो जायेंगे और विकार रहित हो जाना ही वास्तव में मुक्ति है |
                    प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
                   || हरिः शरणम् ||

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