अथ ब्रह्मा उवाच -6
ब्रह्माजी से ‘द’ सुनकर देवताओं ने सोचा कि हम कुछ अधिक ही भोग में रत हो गए हैं | इन्द्रियों से हम भोगों का कुछ अधिक ही सुख प्राप्त कर रहे हैं | हो न हो, ब्रह्माजी ने हमारी इन इन्द्रियों का दमन करने के लिए ही हमें ‘द’ के रूप में ज्ञान दिया है | ‘द’ अर्थात दमन, इन्द्रियों का दमन | हमें अपने भोगों पर अंकुश लगाना चाहिए और इसका एक ही मार्ग है- अपनी इन्द्रियों का दमन | इस प्रकार देवताओं ने इस ‘द’ का अर्थ इन्द्रियों के दमन के रूप में लिया और स्वीकार किया |
दानवों ने भी अपने विवेक का उपयोग किया, यह जानकर कि इस एक अक्षरी ज्ञान ‘द’ के पीछे कोई न कोई रहस्य अवश्य ही है | उन्होंने अपनी बुराइयों का विश्लेषण किया तो पाया कि वे बहुत से प्राणियों का उत्पीडन करते आये हैं, उनके साथ क्रूरता करते आये हैं और अभी भी कर ही रहे हैं | हो सकता है, हमारे गुरु ने ज्ञान के रूप में’ द’ देकर हमारी इसी बुराई पर चोट की हो | वे विचार कर रहे थे कि हमें इस बुराई को समाप्त करने के लिए क्या करना चाहिए ? उन्होंने इस ‘द’ का अर्थ दया से लिया | उन्होंने सोचा कि हमें इस उत्पीडन को रोकते हुए संसार के समस्त प्राणियों के प्रति दया दिखानी चाहिए | अपने भीतर दया भाव पैदा कर ही हम संसार के प्राणियों को बचा सकते हैं |
अंत में मनुष्य ने भी इस ब्रह्मा प्रदत्त ज्ञान के बारे में सोचना और विचार करना शुरू किया | उसने भी यह माना कि ब्रह्माजी ने हमारी ही किसी बुराई को मिटने के लिए ही ऐसा ज्ञान दिया है | मनुष्य की सबसे बड़ी बुराई है, अर्थ-संग्रह | जीवन भर वह लोभ वश धन संग्रह करने में ही लगा रहता है और कभी भी इस धन का सदुपयोग नहीं कर पाता है | धन का आप केवल दो ही प्रकार से उपयोग कर सकते हैं, प्रथम तो आप उसे अपने भोग के लिए उपयोग में ले लें अथवा दूसरे आप इस धन को किसी जरूरतमंद को दान कर दें | अगर आप इन दोनों में से किसी एक के लिए भी धन का उपयोग नहीं कर सके तो इसका नाश होना अवश्यम्भावी है|धन का भोग आपको आवागमन से मुक्त नहीं होने देगा क्योंकि भोग से कभी कोई अघाता नहीं है जिससे उसमे आसक्ति सदैव बनी ही रहती है | अतः उचित है कि इस धन को सत्कार्यों में लगा दें | धन को सत्कार्यों में लगाने का नाम ही दान है |ब्रह्मा जी के ज्ञान ‘द’ का अर्थ मनुष्यों के लिए दान से ही है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
ब्रह्माजी से ‘द’ सुनकर देवताओं ने सोचा कि हम कुछ अधिक ही भोग में रत हो गए हैं | इन्द्रियों से हम भोगों का कुछ अधिक ही सुख प्राप्त कर रहे हैं | हो न हो, ब्रह्माजी ने हमारी इन इन्द्रियों का दमन करने के लिए ही हमें ‘द’ के रूप में ज्ञान दिया है | ‘द’ अर्थात दमन, इन्द्रियों का दमन | हमें अपने भोगों पर अंकुश लगाना चाहिए और इसका एक ही मार्ग है- अपनी इन्द्रियों का दमन | इस प्रकार देवताओं ने इस ‘द’ का अर्थ इन्द्रियों के दमन के रूप में लिया और स्वीकार किया |
दानवों ने भी अपने विवेक का उपयोग किया, यह जानकर कि इस एक अक्षरी ज्ञान ‘द’ के पीछे कोई न कोई रहस्य अवश्य ही है | उन्होंने अपनी बुराइयों का विश्लेषण किया तो पाया कि वे बहुत से प्राणियों का उत्पीडन करते आये हैं, उनके साथ क्रूरता करते आये हैं और अभी भी कर ही रहे हैं | हो सकता है, हमारे गुरु ने ज्ञान के रूप में’ द’ देकर हमारी इसी बुराई पर चोट की हो | वे विचार कर रहे थे कि हमें इस बुराई को समाप्त करने के लिए क्या करना चाहिए ? उन्होंने इस ‘द’ का अर्थ दया से लिया | उन्होंने सोचा कि हमें इस उत्पीडन को रोकते हुए संसार के समस्त प्राणियों के प्रति दया दिखानी चाहिए | अपने भीतर दया भाव पैदा कर ही हम संसार के प्राणियों को बचा सकते हैं |
अंत में मनुष्य ने भी इस ब्रह्मा प्रदत्त ज्ञान के बारे में सोचना और विचार करना शुरू किया | उसने भी यह माना कि ब्रह्माजी ने हमारी ही किसी बुराई को मिटने के लिए ही ऐसा ज्ञान दिया है | मनुष्य की सबसे बड़ी बुराई है, अर्थ-संग्रह | जीवन भर वह लोभ वश धन संग्रह करने में ही लगा रहता है और कभी भी इस धन का सदुपयोग नहीं कर पाता है | धन का आप केवल दो ही प्रकार से उपयोग कर सकते हैं, प्रथम तो आप उसे अपने भोग के लिए उपयोग में ले लें अथवा दूसरे आप इस धन को किसी जरूरतमंद को दान कर दें | अगर आप इन दोनों में से किसी एक के लिए भी धन का उपयोग नहीं कर सके तो इसका नाश होना अवश्यम्भावी है|धन का भोग आपको आवागमन से मुक्त नहीं होने देगा क्योंकि भोग से कभी कोई अघाता नहीं है जिससे उसमे आसक्ति सदैव बनी ही रहती है | अतः उचित है कि इस धन को सत्कार्यों में लगा दें | धन को सत्कार्यों में लगाने का नाम ही दान है |ब्रह्मा जी के ज्ञान ‘द’ का अर्थ मनुष्यों के लिए दान से ही है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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