अथ ब्रह्मा उवाच-2
आपने अपने निजी जीवन में चाहे कितनी भी प्रगति कर ली हो, अपने में उपस्थित कमी को जीवन में कभी भुला नहीं पाते हो | इस कमजोरी को आप किसी के समक्ष उजागर नहीं करते फिर भी आपका अंतर्मन इस कमी को सदैव याद अवश्य ही रखता है | यही कारण है कि जब आप किसी संत पुरुष के सानिध्य में होते हो, किसी गुरु के साथ सत्संग कर रहे हो तो आपको सदैव उनकी बातों से ऐसा लगता है जैसे कि इतना सब कुछ उस गुरु अथवा संत के द्वारा आपके लिए ही कहा जा रहा है | आप आश्चर्यचकित हो जाते हैं, जब अपने गुरु की कही बात आपको आपने भीतर का सच लगता है, आपके ह्रदय का सत्य लगता है | हाँ, गुरु आपके भीतर का सच जानता है | एक बात और कहूँ, गुरु आपके भीतर का ही सच नहीं, इस संसार के प्रत्येक मनुष्य के भीतर का सच जानता है, तभी तो वह गुरु है |
गुरु पहुंचा हुआ केवल मात्र एक मनुष्य ही तो है अन्यथा आप में और गुरु में अंतर ही क्या है , सिवाय इसके कि उन्होंने अपने लक्ष्य तक की यात्रा पूरी कर ली है और आपने अभी अपने लक्ष्य की ओर यात्रा प्रारम्भ तक नहीं की है | जब मनुष्य परमात्मा की तरफ जाने की यात्रा प्रारम्भ करता है, तब उसको यह रहस्य कुछ कुछ समझ में आने लगता है | साथ ही उसे यह भी समझना होता है कि अपने भीतर के सत्य को, अपनी वास्तविकता को खुलकर गुरु के सामने प्रकट करे अन्यथा गुरु आपके भीतर के उस सत्य को प्रकट कर ही देगा | गुरु सदैव आपके भीतर की बुराई पर चोट करता है और आपको लगता है कि गुरु ने आपको लक्ष्य करके चोट की है | गुरु चोट करता है उस प्रत्येक बुराई पर, जो आपके भीतर भी उपस्थित हो सकती है | गुरु केवल आपके भीतर उपस्थित बुराई अथवा कमी की बात नहीं करता है, वह बात करता है - प्रत्येक मनुष्य के भीतर हो सकने वाली बुराई की, उस कमी की, जो उसके परमात्मा की ओर अग्रसर होने में बाधक बनती है | आप अगर समझदार हैं, थोडा सा भी ज्ञान रखते है, तो गुरु की बात को समझने में तनिक सी भी देर नहीं लगेगी | भला आप क्यों समझदार नहीं होंगे, आखिर आप एक मनुष्य हैं और मैंने इस लेख के प्रारम्भ में ही स्पष्ट कर दिया है कि मनुष्य ही संसार का एक मात्र ऐसा प्राणी है, जिसको परमात्मा ने सोचने समझने की शक्ति दी है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिःशरणम् ||
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