अथ ब्रह्मा उवाच-7
गुरु ब्रह्मा से भी दो कदम बढ़कर होता है |
ब्रह्मा ने तो केवल एक अक्षर से संकेत में ज्ञान दे दिया जबकि गुरु बार बार अपने
शिष्य की कमजोरी को उजागर करता रहता है, बार बार उसकी बुराई, उसमे उपस्थित विकारों
के प्रति आगाह करता रहता है | जब तक शिष्य के बात मस्तिष्क में, उसकी बुद्धि में
भली भांति प्रवेश नहीं कर जाती, पीछा नहीं छोड़ता है | इसीलिए शिष्य को सदैव ही यह
लगता है कि उसका गुरु एक ही बात को विभिन्न प्रकार से व्यक्त कर रहा है | इसके
पीछे गुरु का एक ही उद्देश्य रहता है कि किसी भी प्रकार शिष्य को परिमार्जित करे |
मनुष्य में ही उपरोक्त तीनो
वृतियां उपस्थित हैं- भोग-वृति, लोभ-वृति और हिंसक-वृति| गुरु और संत हमें सदैव ही
क्या ज्ञान देते रहते हैं ?
एक-
भोगों से दूर रहो, भोगों के प्रति आसक्त मत बनो | इसके लिए
मन सहित समस्त इन्द्रियों का दमन करो |
दो-
दो- कभी भी लोभ न करें, जो उपलब्ध है, उसी में संतुष्ट रहें
और फिर भी अगर प्रारब्ध स्वरुप अधिक मिल रहा है तो उस धन को दान कर दें, संचित न
करें |
तीन-
तीन-सभी प्राणियों पर दया करें | अहिंसक बनें | सदैव यही
ध्यान रखें कि सभी प्राणियों में परमात्मा निवास करते हैं |
फिर भी बार-बार उपदेश सुनकर भी अगर मनुष्य नहीं सुधर सकता, तो भी गुरु
बार-बार इसी बात को दोहराते चले जायेंगे |
अगर किसी गुरु अथवा संत का सानिध्य उपलब्ध
नहीं हो सके तो ऐसे में परमात्मा प्रदत्त अपनी सोचने और समझने की शक्ति का उपयोग
करें | सदैव अपने में उपस्थित दुर्गुणों के विपरीत भाव का चिंतन करते रहें | ऐसा
चिंतन आपको एक दिन इन दुर्गुणों को दूर करने में सहायक सिद्ध होगा | जिस अवगुण से हम छुटकारा पाना चाहते हैं, उनसे
विपरीत गुणों का हमें निरंतर चिंतन करना पड़ेगा | विकारों के विरोधी धर्मों का
अभ्यास करने से ही ये अवगुण छूटते हैं | इसके लिए साधना करनी पड़ती है | जब इसका
बोध हो जायेगा कि हम मात्र एक देह नहीं है अपितु शाश्वत आत्मा है, तब देह सुख की
कामना और लोभ आदि भी नहीं रहेंगे |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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