अथ ब्रह्मा उवाच-3
उपरोक्त सब बातें मैंने भूमिका के तौर पर इसलिए कही है क्योंकि मैं जानता हूँ कि कोई भी मनुष्य अपने भीतर की कमी को जानने के बावजूद स्वीकार करने की हिम्मत नहीं रखता है | मैं यह चाहता हूँ कि आपमें इतनी हिम्मत पैदा हो कि आप अपनी कमियों को जान कर, समझ कर उन्हें दूर करने का प्रयत्न करें | इससे पहले कि गुरु आपको इन कमियों के बारे में बताकर आगे के मार्ग पर अग्रसर होने के लिए तैयार करे उससे पहले ही आप इन कमियों को जानकर अपने आपको गुरु से ज्ञान प्राप्त के लिए तैयार करलें | इससे गुरु को भी ज्ञान देने में और आपको भी ज्ञान प्राप्त करने की सुविधा रहेगी अन्यथा गुरु को क्या हानि है ? उनको तो आपके स्तर को पहचान कर, आपके स्तर पर आकर ही आपको ज्ञान देना है |
इसी प्रकार एक बार ज्ञान प्राप्ति के लिए मनुष्य, देवता और दानव; तीनों ही ब्रह्मा के पास पहुंचे और करबद्ध होकर उनसे प्रार्थना की कि वे उन्हें ज्ञान दें | ब्रह्माजी ठहरे, प्रजापिता | उनके लिए तो तीनों एक समान थे भले ही उनके स्वभाव और गुण भिन्न रहे हों | इस प्रकार ब्रह्माजी ने तीनों को एक समान समझते हुए एक ही प्रकार का ज्ञान दिया –‘द, द और द’ | तीनों ही श्रेणी के जिज्ञासुओं को एक समान ज्ञान, वह भी सांकेतिक भाषा में, केवल एक ही अक्षर-‘द’, इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं कहा, ब्रह्मा ने | परमात्मा के नाभि कमल से उत्पन्न ब्रह्माजी, इस सृष्टि के रचयिता ब्रह्माजी, भला बिना किसी आधार के केवल एकमात्र अक्षर “द” का ज्ञान कैसे दे सकते हैं ? तीनों ने ही विचार किया कि अवश्य ही इस एक अक्षरीय ज्ञान के अन्दर, इस ‘द’ के भीतर कोई न कोई रहस्य छिपा हुआ है | अब यह उनके स्वयं के विवेक पर ही निर्भर करता है कि वे इस ‘द’ के ज्ञान में छुपा कोई रहस्य समझ पाते हैं अथवा नहीं |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
No comments:
Post a Comment