Tuesday, May 31, 2016

भक्ति

              कल ही हमने अथ ब्रह्मा उवाच लेख की समापन कड़ी पढ़ी है | अध्यात्म के बारे में कितना भी पढ़ और लिख लिया जाये, आप परमात्म-भक्ति को तब तक प्राप्त नहीं कर सकते, जब तक लिखी, पढ़ी बातों को अपने निजी जीवन में उतार न लें | इस संसार में इतना अमूल्य साहित्य उपलब्ध है जिसकी आप कल्पना नहीं कर सकते | साहित्य दो प्रकार के हैं; एक तो वैसा साहित्य है जिसे पढ़कर और आत्मसात कर आप काम और अर्थ प्राप्त कर सकते है और दूसरा साहित्य ऐसा भी उपलब्ध है, जिसे पढ़कर और आत्मसात कर आप परमात्म-भक्ति को प्राप्त कर सकते हैं | यह आपके ऊपर निर्भर करता है कि आप क्या तो पढ़ते हैं और उस पढ़े हुए को कितना आत्मसात करते हैं | आप जैसा भी करेंगे उसका परिणाम आपको वैसा ही प्राप्त होगा | शुभ परिणाम और अशुभ परिणाम, सब कुछ इसी बात पर निर्भर करता है |
                मेरे मित्र गण मुझसे बार-बार कहते रहते हैं कि अगर हमारे सनातन शास्त्रों में से प्रमुख विषय निकालकर उनको रोचक रूप से प्रस्तुत किया जाये तो सभी को पठनीय लगेगा | इस और मैंने कुछ प्रयास भी किया है, जो “पुनर्जन्म और विज्ञान” नाम की पुस्तक के रूप में गत वर्ष ही प्रकाशित हुई है | कल ही  एक मित्र ने मुझसे कहा है कि आप कुछ “भक्ति” पर भी लिखें, जो पढ़ने में आकर्षक लगे | आज से मैंने “भक्ति” विषय पर लेखन प्रारम्भ किया है, आपको रोचक लगेगा या नहीं, कह नहीं सकता परन्तु मेरा प्रयास यही रहेगा कि आपको यह विषय नीरस न लगे |
            हरिः शरणम् आश्रम के आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा का सदैव मेरे ऊपर वरद् हस्त और स्नेह रहा है; के साथ संपर्क वैसे तो बाल्यकाल से ही रहा है परन्तु आश्रम की स्थापना के बाद से यह संपर्क और अधिक हो गया है | प्रारम्भ में मैंने ज्ञान और भक्ति में से ज्ञान को सदैव ही प्रमुखता दी थी | आचार्यजी के साथ ने मुझे यह ज्ञान करा दिया कि बिना भक्ति के ज्ञान व्यर्थ है | बिना भक्ति के ज्ञान, ज्ञान न होकर अज्ञान ही है क्योंकि जो ज्ञान परमात्मा की और न ले जाये वह सब अज्ञान ही है | आत्ममंथन के बाद मुझे यह ज्ञान हो गया कि ज्ञान को भक्ति में बदलने के लिए किसी संत महापुरुष की आवश्यकता होती है | केवल किताबी ज्ञान हो सकता है कि आपको सांसारिकता में उच्चतम स्थिति तक पहुंचा दे परन्तु आध्यात्मिकता के लिए उसी ज्ञान को भक्ति में बदलना आवश्यक है | मैंने जो कुछ भी सद् साहित्य पढ़कर और आचार्यजी से भक्ति के बारे में ज्ञान प्राप्त किया है, उसको आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ | प्रस्तुतीकरण में किसी भी प्रकार की त्रुटि हो तो क्षमा करें परन्तु साथ ही मार्गदर्शन अवश्य करें  |

      || हरिः शरणम् ||                                      डॉ प्रकाश काछवाल    

Monday, May 30, 2016

अथ ब्रह्मा उवाच-8 समापन किश्त

 उपसंहार-
      ब्रह्मा के अमूल्य ज्ञान के विश्लेषण उपरांत हमने जाना कि मात्र एक ‘द’ का मंतव्य दमन, दान और दया तीनों से ही है | साथ ही साथ यह भी स्पष्ट है कि एक मनुष्य के भीतर ही देवता और दानव दोनों ही प्रकार की वृतियां निवास करती है | इससे इस संसार में कोई भी व्यक्ति अछूता नहीं है | धन अर्थात अर्थ को भोगते हुए हम अपने आपको देवत्व को उपलब्ध होना मान सकते हैं क्योंकि भोग प्रारम्भ में हमें अमृत तुल्य सुख ही प्रदान करते हैं, जैसा कि सुख देवताओं को स्वर्ग में मिलता है | धन को और अधिक संग्रह करने के लोभ में हम संसार के अन्य प्राणियों का उत्पीडन कर सकते है, इस क्रूरता के कारण हम साधारण मनुष्य से दानव बन सकते हैं| रही बात साधारण मनुष्य की, उसमें तो लोभ एक विकार के रूप में सदैव उपस्थित रहता ही है जिस कारण वह जीवन भर अर्थ-संग्रह में लगा रहता है | यह लोभ ही मनुष्य के समस्त विकारों जैसे राग-द्वेष, लोभ, मोह. क्रोध, मद आदि का जनक है | अर्थ का दान आपको लोभ से भी मुक्त करता है | अतः एक मनुष्य के लिए यह आवश्यक है कि वह अपनी इन्द्रियों का दमन करते हुए अपने जीवन में भोगों पर संयम रखे, प्राणियों के प्रति दया भाव रखे और साथ ही साथ धन-संग्रह की वृति को छोड़कर दान करे | इन्द्रियों का दमन, धन का दान और प्राणियों के प्रति दया-भाव, सभी मनुष्य को अपने में उपस्थित सभी विकारों से मुक्त कर देते हैं और परमात्मा तुल्य बना देते है |
             प्रारम्भ किसी भी प्राणी के प्रति प्रत्येक प्रकार की हिंसा, क्रूरता (शारीरिक और मानसिक हिंसा ) न करने के संकल्प से करें | अहिंसा का सिद्धांत अपनाते ही आप अपने आपको दानव-वृति से बाहर कर लेंगे | इसके पश्चात् अपरिग्रह का सिद्धांत अपनाएं | आवश्यकता से अधिक का संग्रह न करते हुए धन को जरूरतमंद की सेवा में समर्पित कर दें | यह दान आपको लोभ-वृति से बाहर कर देगा | साथ ही साथ काम भोग से अपने आपको दूर रखें | सदैव यह बात ध्यान में रखें कि इन्द्रिय सुख प्रारम्भ में अवश्य ही अमृत तुल्य होता है परन्तु अंत में इनका परिणाम विष-तुल्य और दुःख के रूप में मिलता है | इसके लिए मन सहित समस्त इन्द्रियों को बुद्धि के द्वारा नियंत्रित कर देवत्व से भी ऊपर उठ जाएँ | तीनों वृतियों पर नियंत्रण स्थापित करते ही आप मनुष्य में उत्पन्न होने वाले सभी विकारों से मुक्त हो जायेंगे और विकार रहित हो जाना ही वास्तव में मुक्ति है |
                    प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
                   || हरिः शरणम् ||

Sunday, May 29, 2016

अथ ब्रह्मा उवाच-7

अथ ब्रह्मा उवाच-7
         गुरु ब्रह्मा से भी दो कदम बढ़कर होता है | ब्रह्मा ने तो केवल एक अक्षर से संकेत में ज्ञान दे दिया जबकि गुरु बार बार अपने शिष्य की कमजोरी को उजागर करता रहता है, बार बार उसकी बुराई, उसमे उपस्थित विकारों के प्रति आगाह करता रहता है | जब तक शिष्य के बात मस्तिष्क में, उसकी बुद्धि में भली भांति प्रवेश नहीं कर जाती, पीछा नहीं छोड़ता है | इसीलिए शिष्य को सदैव ही यह लगता है कि उसका गुरु एक ही बात को विभिन्न प्रकार से व्यक्त कर रहा है | इसके पीछे गुरु का एक ही उद्देश्य रहता है कि किसी भी प्रकार शिष्य को परिमार्जित करे |
       मनुष्य में ही उपरोक्त तीनो वृतियां उपस्थित हैं- भोग-वृति, लोभ-वृति और हिंसक-वृति| गुरु और संत हमें सदैव ही क्या ज्ञान देते रहते हैं ?
एक-                 भोगों से दूर रहो, भोगों के प्रति आसक्त मत बनो | इसके लिए मन सहित समस्त इन्द्रियों का दमन करो |
दो-                     दो- कभी भी लोभ न करें, जो उपलब्ध है, उसी में संतुष्ट रहें और फिर भी अगर प्रारब्ध स्वरुप अधिक मिल रहा है तो उस धन को दान कर दें, संचित न करें |
तीन-                तीन-सभी प्राणियों पर दया करें | अहिंसक बनें | सदैव यही ध्यान रखें कि सभी प्राणियों में परमात्मा निवास करते हैं |
         फिर भी बार-बार उपदेश सुनकर भी अगर मनुष्य नहीं सुधर सकता, तो भी गुरु बार-बार इसी बात को दोहराते चले जायेंगे |

             अगर किसी गुरु अथवा संत का सानिध्य उपलब्ध नहीं हो सके तो ऐसे में परमात्मा प्रदत्त अपनी सोचने और समझने की शक्ति का उपयोग करें | सदैव अपने में उपस्थित दुर्गुणों के विपरीत भाव का चिंतन करते रहें | ऐसा चिंतन आपको एक दिन इन दुर्गुणों को दूर करने में सहायक सिद्ध होगा |  जिस अवगुण से हम छुटकारा पाना चाहते हैं, उनसे विपरीत गुणों का हमें निरंतर चिंतन करना पड़ेगा | विकारों के विरोधी धर्मों का अभ्यास करने से ही ये अवगुण छूटते हैं | इसके लिए साधना करनी पड़ती है | जब इसका बोध हो जायेगा कि हम मात्र एक देह नहीं है अपितु शाश्वत आत्मा है, तब देह सुख की कामना और लोभ आदि भी नहीं रहेंगे |
क्रमशः 
               प्रस्तुति-डॉ. प्रकाश काछवाल 
                    || हरिः शरणम् ||

Saturday, May 28, 2016

अथ ब्रह्मा उवाच-6

अथ ब्रह्मा उवाच -6 
ब्रह्माजी से ‘द’ सुनकर देवताओं ने सोचा कि हम कुछ अधिक ही भोग में रत हो गए हैं | इन्द्रियों से हम भोगों का कुछ अधिक ही सुख प्राप्त कर रहे हैं | हो न हो, ब्रह्माजी ने हमारी इन इन्द्रियों का दमन करने के लिए ही हमें ‘द’ के रूप में ज्ञान दिया है | ‘द’ अर्थात दमन, इन्द्रियों का दमन | हमें अपने भोगों पर अंकुश लगाना चाहिए और इसका एक ही मार्ग है- अपनी इन्द्रियों का दमन | इस प्रकार देवताओं ने इस ‘द’ का अर्थ इन्द्रियों के दमन के रूप में लिया और स्वीकार किया |
दानवों ने भी अपने विवेक का उपयोग किया, यह जानकर कि इस एक अक्षरी ज्ञान ‘द’ के पीछे कोई न कोई रहस्य अवश्य ही है | उन्होंने अपनी बुराइयों का विश्लेषण किया तो पाया कि वे बहुत से प्राणियों का उत्पीडन करते आये हैं, उनके साथ क्रूरता करते आये हैं और अभी भी कर ही रहे हैं | हो सकता है, हमारे गुरु ने ज्ञान के रूप में’ द’ देकर हमारी इसी बुराई पर चोट की हो | वे विचार कर रहे थे कि हमें इस बुराई को समाप्त करने के लिए क्या करना चाहिए ? उन्होंने इस ‘द’ का अर्थ दया से लिया | उन्होंने सोचा कि हमें इस उत्पीडन को रोकते हुए संसार के समस्त प्राणियों के प्रति दया दिखानी चाहिए | अपने भीतर दया भाव पैदा कर ही हम संसार के प्राणियों को बचा सकते हैं |
अंत में मनुष्य ने भी इस ब्रह्मा प्रदत्त ज्ञान के बारे में सोचना और विचार करना शुरू किया | उसने भी यह माना कि ब्रह्माजी ने हमारी ही किसी बुराई को मिटने के लिए ही ऐसा ज्ञान दिया है | मनुष्य की सबसे बड़ी बुराई है, अर्थ-संग्रह | जीवन भर वह लोभ वश धन संग्रह करने में ही लगा रहता है और कभी भी इस धन का सदुपयोग नहीं कर पाता है | धन का आप केवल दो ही प्रकार से उपयोग कर सकते हैं, प्रथम तो आप उसे अपने भोग के लिए उपयोग में ले लें अथवा दूसरे आप इस धन को किसी जरूरतमंद को दान कर दें | अगर आप इन दोनों में से किसी एक के लिए भी धन का उपयोग नहीं कर सके तो इसका नाश होना अवश्यम्भावी है|धन का भोग आपको आवागमन से मुक्त नहीं होने देगा क्योंकि भोग से कभी कोई अघाता नहीं है जिससे उसमे आसक्ति सदैव बनी ही रहती है | अतः उचित है कि इस धन को सत्कार्यों में लगा दें | धन को सत्कार्यों में लगाने का नाम ही दान है |ब्रह्मा जी के ज्ञान ‘द’ का अर्थ मनुष्यों के लिए दान से ही है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Friday, May 27, 2016

अथ ब्रह्मा उवाच-5

अथ ब्रह्मा उवाच-5
और इधर बेचारा साधारण मनुष्य, जो सदैव रजस में ही रत रहता है, उसको पता भी नहीं रहता कि कोई दो प्रकार की शक्तियों के मध्य, उसके स्वयं के भीतर भी एक युद्ध चल रहा है | वह तो डूबा रहता है-अर्थ और काम में | अर्थ जितना इकट्ठा कर लूं, वही कम है | अर्थ, और अर्थ, फिर भी और बहुत सारा अर्थ | बहुत सारा अर्थ इकट्ठा कर लिया फिर भी कम है संग्रहित अर्थ | मनुष्य के जीवन में काम और अर्थ, अर्थ और काम, दोनों सदैव अपर्याप्त ही रहते हैं |आज तक इस संसार में कोई भी मनुष्य इन दोनों से किसी एक से भी तृप्त नहीं हुआ है, संतुष्ट नहीं हो पाया है | अर्थ, अर्थ करते करते सब अनर्थ और फिर यह मानव-जन्म भी व्यर्थ |
             इस प्रकार अर्थ और काम में डूबे हुए मनुष्य को इस युद्ध का ज्ञान तभी हो पाता है, जब उस पर परमात्मा कृपा करते हैं |जब मनुष्य पर परमात्मा कृपा करते हैं तभी उसको किसी गुरु का साथ मिलता है, तभी उसे किसी संत का सानिध्य प्राप्त होता है | गुरु ही उसके भीतर सोचने और  समझने की शक्ति को पुनः जागृत करता है | वह अपनी स्मृति खो चूका होता है, इस काम और अर्थ में उलझकर |उसको गुरु इस अर्थ और काम के चक्र से बाहर निकालने का रास्ता बताता है-साधना-पथ | बिना साधना के साध्य को कैसे प्राप्त किया जा सकता है ? गुरु आपको साधक बनाकर साध्य को प्राप्त करने का मार्ग अर्थात साधना करना बताता है |यही गुरु की भूमिका है | सोचने समझने की शक्ति आपमें जन्म से ही होती है, गुरु आप की उस बुद्धि की कुंद पड़ी धार को तेज करता है, आपको विवेकी बना देता है |

          आइये अब पुनः लौटते हैं उसी दृष्टान्त पर | मनुष्य, देवता और दानवों ने ब्रह्मा से ज्ञान के रूप में केवल “द” को प्राप्त कर प्रसन्नचित्त होकर लौट आये | तीनों ने अपने अपने विवेकानुसार उसका रहस्य जानने का प्रयास किया | मैंने इस लेख के आरम्भ में ही स्पष्ट कर दिया है कि प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह देवता, साधारण मनुष्य अथवा दानव की श्रेणी में आता हो, अपने भीतर उपस्थित कमियों और बुराइयों को कभी भी विस्मृत नहीं कर पाता है |ज्ञान प्राप्त होने के उपरांत वह इन सभी से पीछा छुड़ाने की कोशिश अवश्य करता है |ब्रह्माजी से ज्ञान प्राप्त करने के उपरांत इन तीनों के साथ भी यही हुआ | हम जानते ही हैं कि गुरु ज्ञान के माध्यम से हमारी कमियों, विकारों और बुराइयों को प्रकट करते हुए उन्हीं पर चोट करते हैं |
क्रमशः 
               प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल 
                     || हरिः शरणम् ||

Thursday, May 26, 2016

अथ ब्रह्मा उवाच-4

अथ ब्रह्मा उवाच-4
मनुष्य हो अथवा दानव या देवता, है तो आखिर मनुष्य से ही परिवर्तित | देवता, वे मनुष्य जो सत्व के मार्ग पर चलकर देह छोड़ने के पश्चात् स्वर्ग में विभिन्न प्रकार के भोगों का आनंद ले रहे हैं | जिन्होंने इस भौतिक संसार में रहते हुए सत्कर्म किये, सत्य के मार्ग पर चले परन्तु फिर भी मुक्त न हो सके | मुक्त हो जाते तो स्वर्ग तक ही क्यों पहुँचते, सीधे परमात्मा में ही विलीन हो जाते न | इसीलिए देवता भी एक प्रकार की योनि ही हुई, अर्थात देव योनि, मनुष्य योनि की भांति ही, बस अंतर केवल इतना सा ही है कि देव योनि में भोग, देहत्याग के बाद स्वर्ग में भोगे जाते है | जब अपने सत्कर्मों का फल पूर्ण रूप से भोग लिया जाता है, तब उन्हें पुनः इस संसार में मनुष्य योनि में जन्म लेना ही पड़ता है |इस प्रकार हम कह सकते हैं कि देवता भी मनुष्य योनि से ऊपर की एक प्रकार की योनि ही है | भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा भी है-
आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोSर्जुन |
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते || गीता 8/16||
अर्थात्, हे कुन्तीपुत्र अर्जुन ! ब्रह्मलोक पर्यंत सब लोक पुनरावर्ती हैं,परन्तु जो मुझको प्राप्त हो जाता है उसका पुनर्जन्म नहीं होता| इसका स्पष्ट अर्थ यही है कि देवलोक से भी वापिस इस भौतिक संसार में लौटना ही पड़ता है, जन्म लेना ही पड़ता है|
इसी प्रकार साधारण मनुष्य से भी निम्न स्तर के एक और प्रकार के मनुष्य होते हैं और वे कहलाते हैं, दानव | जिन मनुष्यों ने सत्कर्म न करके बुरे कर्म किये हों, उन्हें ही यह दानव योनि मिलती है | इस योनि में दानव लोग सभी को कष्ट देते रहते हैं, किसी को भी कष्ट पहुँचाने में उन्हें बड़ा आनंद मिलता है | एक प्रकार की क्रूरता और हिंसा ही उनका स्वभाव बन जाता है | दूसरे को सुखी देखकर वे दुखी हो जाते हैं और किसी भी प्रकार उनको दुःख में डालने का उपाय खोजने में लगे रहते हैं |
आपने प्रायः यह पढ़ा और सुना होगा कि दानवों और देवताओं में सदैव ठनी रहती है, युद्ध चलता रहता है | देवता और दानव मनुष्य से कोई अलग नहीं हैं | मनुष्य के भीतर ही देव है, मनुष्य के भीतर ही दानव बैठे हैं | इन सुर एवं असुरों, दोनों के मध्य सदैव युद्ध चलता रहता है | जब देव शक्तियां विजयी हो जाती है, मनुष्य देवत्व को उपलब्ध हो जाता है और अगर आसुरी शक्तियों की विजय होती है, तो मनुष्य दानव बन जाता है |
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
|| हरिःशरणम् ||

Wednesday, May 25, 2016

अथ ब्रह्मा उवाच-3

अथ ब्रह्मा उवाच-3
उपरोक्त सब बातें मैंने भूमिका के तौर पर इसलिए कही है क्योंकि मैं जानता हूँ कि कोई भी मनुष्य अपने भीतर की कमी को जानने के बावजूद स्वीकार करने की हिम्मत नहीं रखता है | मैं यह चाहता हूँ कि आपमें इतनी हिम्मत पैदा हो कि आप अपनी कमियों को जान कर, समझ कर उन्हें दूर करने का प्रयत्न करें | इससे पहले कि गुरु आपको इन कमियों के बारे में बताकर आगे के मार्ग पर अग्रसर होने के लिए तैयार करे उससे पहले ही आप इन कमियों को जानकर अपने आपको गुरु से ज्ञान प्राप्त के लिए तैयार करलें | इससे गुरु को भी ज्ञान देने में और आपको भी ज्ञान प्राप्त करने की सुविधा रहेगी अन्यथा गुरु को क्या हानि है ? उनको तो आपके स्तर को पहचान कर, आपके स्तर पर आकर ही आपको ज्ञान देना है |
इसी प्रकार एक बार ज्ञान प्राप्ति के लिए मनुष्य, देवता और दानव; तीनों ही ब्रह्मा के पास पहुंचे और करबद्ध होकर उनसे प्रार्थना की कि वे उन्हें ज्ञान दें | ब्रह्माजी ठहरे, प्रजापिता | उनके लिए तो तीनों एक समान थे भले ही उनके स्वभाव और गुण भिन्न रहे हों | इस प्रकार ब्रह्माजी ने तीनों को एक समान समझते हुए एक ही प्रकार का ज्ञान दिया –‘द, द और द’ | तीनों ही श्रेणी के जिज्ञासुओं को एक समान ज्ञान, वह भी सांकेतिक भाषा में, केवल एक ही अक्षर-‘द’, इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं कहा, ब्रह्मा ने | परमात्मा के नाभि कमल से उत्पन्न ब्रह्माजी, इस सृष्टि के रचयिता ब्रह्माजी, भला बिना किसी आधार के केवल एकमात्र अक्षर “द” का ज्ञान कैसे दे सकते हैं ? तीनों ने ही विचार किया कि अवश्य ही इस एक अक्षरीय ज्ञान के अन्दर, इस ‘द’ के भीतर कोई न कोई रहस्य छिपा हुआ है | अब यह उनके स्वयं के विवेक पर ही निर्भर करता है कि वे इस ‘द’ के ज्ञान में छुपा कोई रहस्य समझ पाते हैं अथवा नहीं |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल


|| हरिः शरणम् ||

Tuesday, May 24, 2016

अथ ब्रह्मा उवाच-2

अथ ब्रह्मा उवाच-2
आपने अपने निजी जीवन में चाहे कितनी भी प्रगति कर ली हो, अपने में उपस्थित कमी को जीवन में कभी भुला नहीं पाते हो | इस कमजोरी को आप किसी के समक्ष उजागर नहीं करते फिर भी आपका अंतर्मन इस कमी को सदैव याद अवश्य ही रखता है | यही कारण है कि जब आप किसी संत पुरुष के सानिध्य में होते हो, किसी गुरु के साथ सत्संग कर रहे हो तो आपको सदैव उनकी बातों से ऐसा लगता है जैसे कि इतना सब कुछ उस गुरु अथवा संत के द्वारा आपके लिए ही कहा जा रहा है | आप आश्चर्यचकित हो जाते हैं, जब अपने गुरु की कही बात आपको आपने भीतर का सच लगता है, आपके ह्रदय का सत्य लगता है | हाँ, गुरु आपके भीतर का सच जानता है | एक बात और कहूँ, गुरु आपके भीतर का ही सच नहीं, इस संसार के प्रत्येक मनुष्य के भीतर का सच जानता है, तभी तो वह गुरु है |
गुरु पहुंचा हुआ केवल मात्र एक मनुष्य ही तो है अन्यथा आप में और गुरु में अंतर ही क्या है , सिवाय इसके कि उन्होंने अपने लक्ष्य तक की यात्रा पूरी कर ली है और आपने अभी अपने लक्ष्य की ओर यात्रा प्रारम्भ तक नहीं की है | जब मनुष्य परमात्मा की तरफ जाने की यात्रा प्रारम्भ करता है, तब उसको यह रहस्य कुछ कुछ समझ में आने लगता है | साथ ही उसे यह भी समझना होता है कि अपने भीतर के सत्य को, अपनी वास्तविकता को खुलकर गुरु के सामने प्रकट करे अन्यथा गुरु आपके भीतर के उस सत्य को प्रकट कर ही देगा | गुरु सदैव आपके भीतर की बुराई पर चोट करता है और आपको लगता है कि गुरु ने आपको लक्ष्य करके चोट की है | गुरु चोट करता है उस प्रत्येक बुराई पर, जो आपके भीतर भी उपस्थित हो सकती है | गुरु केवल आपके भीतर उपस्थित बुराई अथवा कमी की बात नहीं करता है, वह बात करता है - प्रत्येक मनुष्य के भीतर हो सकने वाली बुराई की, उस कमी की, जो उसके परमात्मा की ओर अग्रसर होने में बाधक बनती है | आप अगर समझदार हैं, थोडा सा भी ज्ञान रखते है, तो गुरु की बात को समझने में तनिक सी भी देर नहीं लगेगी | भला आप क्यों समझदार नहीं होंगे, आखिर आप एक मनुष्य हैं और मैंने इस लेख के प्रारम्भ में ही स्पष्ट कर दिया है कि मनुष्य ही संसार का एक मात्र ऐसा प्राणी है, जिसको परमात्मा ने सोचने समझने की शक्ति दी है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिःशरणम् ||

Monday, May 23, 2016

अथ ब्रह्मा उवाच-1

अथ ब्रह्मा उवाच-1 
                    मनुष्य ही संसार में एक मात्र ऐसा प्राणी है,जिसको परमात्मा ने सोचने समझने की शक्ति प्रदान की है | इस शक्ति का सदुपयोग कर मनुष्य देवत्व को उपलब्ध हो सकता है और इन्हीं शक्तियों का दुरुपयोग कर दानव भी बन बैठता है | यही कारण है कि अपने मनुष्य होने की श्रेणी के अलावा मनुष्य को ही देवता और मनुष्य को ही दानव की श्रेणी में एक मनुष्य होने के बावजूद रख दिया जाता है | अगर सरल शब्दों में कहा जाये तो एक मनुष्य साधारण मनुष्य भी हो सकता है, वही मनुष्य देवता भी हो सकता है और वही मनुष्य दानव भी हो सकता है | सत्व को उपलब्ध मनुष्य देवता होता है, रजस में रत मनुष्य केवल साधारण मनुष्य होता है और तामसिक वृति का मनुष्य दानव हो सकता है |

                   मनुष्य हो चाहे इन तीनों में से किसी भी एक श्रेणी में रखे जाने योग्य हो, उसमें एक विशेषता समान रूप से उपस्थित होती है | वह विशेषता है- स्वयं को जानने की, स्वयं के बारे में जानने की | प्रत्येक व्यक्ति चाहे बाहर से कुछ भी नज़र आ रहा हो, भीतर से उसे स्वयं की प्रकृति का ज्ञान सदैव ही बना रहता है | मनुष्य की सबसे बड़ी विडंबना यही है कि वह स्वयं के बारे में सब कुछ अच्छा-बुरा जानते हुए भी अपने आपको सदैव अच्छा और सामने वाले को बुरा ही प्रदर्शित करता है अर्थात उसको स्वयं में सदैव अच्छाई और सामने वाले में बुराई ही नज़र आती है | प्रत्येक व्यक्ति में अच्छाई और बुराई दोनों ही उपस्थित रहती है और एक संत की दृष्टि के अनुसार प्रत्येक मनुष्य को स्वयं में बुराई और सामने वाले में अच्छाई खोजने का ही सदैव प्रयास करना चाहिए | 
क्रमशः 
                       || हरिः शरणम् ||

Sunday, May 22, 2016

ब्रह्मा का कथन

        आज हरिः शरणम् आश्रम से आये हुए एक सप्ताह हो गया है और यहाँ आने के बाद भी वहां का प्रवास ही यादों में बह रहा है | पवित्र स्थान और आदरणीय आचार्यजी का साथ फिर से कब मिलेगा, कह नहीं सकता क्योंकि सब कुछ परमात्मा के हाथ में है | जैसा कि आचार्यजी ने कहा भी है कि सत्संग केवल संत का साथ ही नहीं है, सनातन शास्त्रों का साथ, उनको पढ़ना और पढ़ी गई बातों पर विचार करना भी सत्संग होता है | उन्हीं की कही गई बातों को आत्मसात करते हुए इन दिनों प्रतिदिन कुछ न कुछ परमात्मा से सम्बंधित सामग्री का पठन प्रारम्भ किया है | वैसे पहले भी समय मिलने पर ऐसा करता रहता था, परन्तु जब से चिकित्सकीय व्यवसाय को प्राथमिकता देना बंद कर दिया है, इस और रुचि कुछ अधिक ही हो गयी है | 
                  अभी कल ही किसी महान व्यक्तित्व का आलेख पढ़ रहा था, जिसमें एक दृष्टान्त दिया गया था | दृष्टान्त कुछ इस प्रकार है- “एक बार ब्रह्मा जी के पास देवता, दानव और मनुष्य गये और उपदेश देने के लिए प्रार्थना की | ब्रह्मा जी ने तीनों को कहा .... " द द द " | तीनों प्रसन्न होकर चले गये | इसी पर विचार करके मेरा यह लेख है, जिसको आप आद्योपांत पढ़कर अपनी अमूल्य भावनाओं से मुझे अवगत कराएँ, यह मेरा आपसे विनम्र अनुरोध है | हो सकता है, मैंने इस दृष्टान्त का उचित और सही विश्लेषण नहीं किया हो |  मैं आपको सम्पूर्ण दृष्टान्त प्रारम्भ में ही इसलिए नहीं बता रहा हूँ क्योंकि आगे इस लेख में समय समय पर इसका विश्लेषण किया गया है | इस लेख का शीर्षक है- “अथ ब्रह्मा उवाच” | यह लेख आप प्रतिदिन एक एक कड़ी के रूप में पढ़ पाएंगे क्योंकि इसके लेखन का कार्य अभी चल रहा है | कल से आपकी सेवा में प्रस्तुत करने जा रहा हूँ, इस लेख “अथ ब्रह्मा उवाच” की पहली किश्त |
                        ||हरिः शरणम् ||

Saturday, May 21, 2016

बुद्ध-पूर्णिमा |

आज बुद्ध पूर्णिमा है, जिसका सम्बन्ध भगवान बुद्ध से है | भगवान बुद्ध का जन्म, उनको ज्ञान प्राप्ति और उनका महापरिनिर्वाण तीनों ही वैशाख शुक्ल पूर्णिमा के दिन ही हुए थे | इसी कारण से इस पूर्णिमा को बुद्ध-पूर्णिमा कहा जाता है | उनका जन्म ईसापूर्व 526 में नेपाल में स्थित कपिलवस्तु के निकट लुम्बिनी नामक स्थान पर हुआ था | उनके पिता का नाम शुद्धोधन और माता का नाम महामाया देवी था | उनका जन्म नाम सिद्धार्थ था | उनका विवाह 16 वर्ष की आयु में राजकुमारी यशोधरा के साथ हुआ था | विवाह के कई वर्ष बाद उनके पुत्र पैदा हुआ था जिसका नाम राहुल था | इससे कुछ समय पूर्व ही उन्होंने एक रोगग्रस्त व्यक्ति, एक वयोवृद्ध व्यक्ति, एक व्यक्ति की शवयात्रा और एक सन्यासी व्यक्ति को देखा, जिनके कारण उनका मन उद्वेलित हो गया | वे जरा और मृत्यु से मुक्त होने का उपाय खोजने का विचार करने लगे |पुत्र जन्म को उन्होंने स्वयं के वैराग्य के लिए एक बंधन माना | इस कारण से तत्काल ही वे 29 वर्ष की आयु में यशोधरा और दूधमुंहे राहुल को सोते हुए ही छोड़कर राजमहल को त्याग दिया |
उसके पश्चात उन्होंने पांच ब्राह्मण तपस्वियों के पास रहकर छः वर्ष तक निरंजना नदी के तट पर कठोर तपस्या की | वे कृशकाय हो चुके थे | वे एक रात निरंजना नदी को तैर कर पार कर रहे थे | उनके शरीर की उर्जा लगभग समाप्त हो चुकी थी | उनसे तैरना तक मुश्किल हो गया था | इतने में उनके हाथ नदी के दूसरे किनारे से लटकती पेड़ की कुछ जड़ें लग गयी | वे उनके सहारे ही कुछ समय तक नदी में लटकते रहे | थोड़ी देर बाद जब उनके शरीर में कुछ उर्जा का संचार हुआ तो वे हिम्मत कर नदी के बाहर आये | थोड़ी दूर चलकर वे एक वटवृक्ष के नीचे लेट गए और विचार करने लगे कि इतनी कठोर तपस्या का क्या फायदा जिससे जरा और मृत्यु से मुक्ति का रास्ता तक न मिल सके | उन्होंने कठोर तपस्या के सब प्रपंच त्यागने का निर्णय लिया | उस रात वे उसी वटवृक्ष के नीचे सो गए |
सुबह उठते ही उहोने अपने सामने सुजाता को खड़े पाया जिसके हाथ में खीर भरा कटोरा था | सुजाता ने उस वटवृक्ष से पुत्र प्राप्ति की कामना की थी जिसके पूर्ण होने पर आज पूर्णिमा के दिन वटवृक्ष देवता को प्रसाद अर्पण करने आई थी | उसने वहां लेटे सिद्धार्थ को वटवृक्ष देवता समझा और उनके जागने का इंतजार करने लगी | सिद्धार्थ ने जागते ही सुजाता के द्वारा भेंट किये खीर के कटोरे को हाथ में लेकर आनन्द के साथ उसको उदरस्थ किया | विगत रात को ही उन्होंने समस्त व्रत आदि को छोड़ने का निर्णय किया ही था | दिन भर वे अपने विगत दिनों की कठोर तपस्या के बारे में विचार करते रहे | उसी रात को उनको सम्यक ज्ञान की प्राप्ति हुई जिसे “सम्बोधि “ नाम से कहा जाता है, जिस वटवृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ उसे “बोधिवृक्ष” और जहाँ उन्हें यह ज्ञान प्राप्त हुआ उस स्थान को “बोधगया” कहा जाता है | वे स्वयं भगवान् बुद्ध कहलाये | उनके ज्ञान की प्रमुख बात है- किसी भी प्रकार की अति से बचना | यही सम्यक ज्ञान है |
ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् उन्होंने अपने पांच ब्राह्मण तपस्वियों को खोजकर ज्ञान दिया | इसके बाद वे समस्त संसार को ज्ञान बांटने के लिए निकल पड़े | सर्वप्रथम उन्होंने अपना प्रवचन सारनाथ में दिया, जो कि बनारस के निकट है | बाद में उनके परिवार के सदस्य भाई, पिता और पुत्र भी उनके शिष्य बने | उन्होंने मगध प्रदेश के खूंखार डाकू अंगुलिमाल का ह्रदय परिवर्तित कर दिया जो बाद में अहिंसका नाम से बोध भिक्षु के रूप में प्रसिद्ध हुआ |
उनका महापरिनिर्वाण वैशाख शुक्ल पूर्णिमा के दिन ही 483 ईसापूर्व 80 वर्ष की आयु में हुआ | आज बोद्ध धर्म संसार के बड़े भाग मैं फैला हुआ है | सम्राट अशोक उनके अनुयायी थे | भीमराव अंबेडकर भी बोद्ध थे | हमारे पवित्र धर्मग्रन्थ श्री मद्भागवत महापुराण में भगवान् श्री कृष्ण के बाद, भगवान् विष्णु का 23 वां अवतार इनका होना भी बताया गया है |
देवद्विषां निगमवर्त्मनि निष्ठितानां
पूर्भिर्मयेन विहिताभिरदृश्यतूर्भिः |
लोकान् घ्नतां मतिविमोहमतिप्रलोभं
वेषं विधाय बहुभाष्यतऔपधर्म्यम् ||भागवत 2/7/37||
अर्थात देवताओं के शत्रु दैत्य लोग भी वेदमार्ग का सहारा लेकर मयदानव के बनाये हुए अदृश्य वेग वाले नगरों में रहकर लोगों का सत्यानाश करने लगेंगे, तब भगवान लोगों की बुद्धि में मोह और अत्यंत लोभ उत्पन्नकरने वाला वेश धारण करके बुद्ध के रूप में बहुत से उप-धर्मों का उपदेश करेंगे |
आज भी बुद्ध की शिक्षाएं हमारे जीवन के लिए उपयोगी हैं | आप सभी को बुद्ध पूर्णिमा की शुभ कामनाएं |
- डॉ.प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||


Thursday, May 19, 2016

ब्लॉग पर पुनः सक्रिय होने की सूचना |

                          प्रिय आत्मनः,
                                          इस वर्ष बुद्ध पूर्णिमा दिनांक 21/05/2016 को पड़ रही है | इस शुभ दिन  से मैं ब्लॉग पर पुनः सक्रिय हो रहा हूँ | इतने दिनों तक आपसे दूर रहा, इसका मुझे खेद है परन्तु यह भी सत्य है कि आप सभी को मैंने कभी भी विस्मृत नहीं किया | जो आप है, वही मैं भी हूँ, आप में और मुझमे कोई भेद नहीं है अतः मैं भी आप ही हूँ |आपसे दूर रहना उसी प्रकार है जैसे किसी अपने ही अंग को स्वयं से दूर कर देना | मैं दूसरी साइट्स पर लिख रहा हूँ वही अब आपको इस ब्लोगर  पर भी मिलेगा | आप अपनी सुविधानुसार किसी एक पर उसे पढ़ सकते हैं | आपका प्रेम ही मेरे जीवन की पूँजी है और इस जीवन की एक मात्र उपलब्धि भी | आशा है आप पूर्ववत प्रेम को बनाये  रखेंगे |
                          आभार |
                                      || हरिः शरणम् ||

Thursday, May 5, 2016

क्षमा-याचना

आप सभी बंधु बांधवों को प्रणाम | आप सभी से मैं क्षमा चाहता हूँ कि इतने दिनों तक आप से दूर रहा | कुछ मेरी विवशताएँ भी थी और कुछ मेरा आलस्य भी | विवशताएँ भी ऐसी थी कि  बहुत चाहकर भी समय निकल नहीं पाया और जब समय मिला तब शरीर की क्षमता ने साथ नहीं दिया  | आखिर यह शरीर भी कितने दिन साथ देगा जो छः दशक तक इस संसार को झेल चूका है | संसार की ठोकरें व्यक्ति के शरीर को इतना तोड़ कर रख देती है कि आप विवश हो जाते हैं-कुछ भी करने के लिए और साथ ही कुछ नहीं करने के लिए भी |
              खैर, यह सब तो इस मानव जीवन का ही एक हिस्सा  है |इन दिनों मैं हरिः शरणम् आश्रम हरिद्वार की फेस बुक के पेज पर लिख रहा हूँ और साथ ही हरिः शरणम् सुजानगढ़ की फेस बुक भी संभाल रहा हूँ | आप इसके लिंक पर जाकर प्रतिदिन अथवा समय समय पर लिखी गई पोस्ट को पढ़ सकते हैं |अंग्रेजी में  लिंक इस प्रकार है-
harisharnam sujangarh
आप अपनी फेस बुक पर जाकर find friends को क्लिक कर इस पर डाली गई पोस्ट पढ़ सकते हैं |शीघ्र ही इस ब्लॉग पर लौटूंगा |
    आपका आभार |