Tuesday, December 30, 2014

कर्म-योग |-9

                 अर्जुन एक क्षत्रिय है और इस कारण से वह रजोगुण प्रधानता लिए हुए था | एक क्षत्रिय का प्राकृतिक गुण होता है, युद्ध करना |अगर कुरुक्षेत्र से अर्जुन पलायन करता तो भी उसे युद्ध भूमि में युद्ध करने के लिए वापिस आना ही होता | इस युद्ध में भाग लेने के लिए उसमें स्थित प्रकृति के गुण उसे विवश कर देते | भगवान श्री कृष्ण ने गीता में उसे यही समझाया है कि तेरा कर्तव्य युद्ध भूमि से पलायन करना नहीं है बल्कि युद्ध भूमि में समत्व रखते हुए युद्ध करना है |इस कुरुक्षेत्र की भूमि पर जय-पराजय का विचार किये बिना, इसे अपना कर्तव्य समझ कर युद्ध करना ही समत्व  है | इससे यह सिद्ध होता है कि मनुष्य को कर्म करने की स्वतंत्रता परमात्मा ने अवश्य प्रदान की है परन्तु प्रकृति के गुणों के बंधन के साथ | यह आंशिक स्वतंत्रता और आंशिक परतंत्रता मनुष्य को कुछ सोचने को विवश अवश्य ही करती है | इस सोच और विचार करने की भूमिका में प्रकृति के शेष बचे तीनों तवों की भूमिका रहती है |यह सब मन, बुद्धि और अहंकार के वश में है कि वह मनुष्य को प्रकृति प्रदत्त गुणों की पराधीनता को कर्मों को करने की स्वतंत्रता में कैसे बदले ? इन गुणों के स्वरूप को परिवर्तित करते हुए मनुष्य आकाश की ऊँचाइयों को भी छू सकता है या फिर पाताल की गहराइयों तक पतन की पराकाष्ठा तक भी पहुँच सकता है | सब प्रकृति के गुणों के सदुपयोग या दुरुपयोग का खेल मात्र है |                         
                 मनुष्य अपने जीवन में बहुत कुछ करने की सोचता है, परन्तु क्या वह उसमें से थोडा बहुत भी अपने कारण, अपने अनुसार और स्वयं के द्वारा करने की क्षमता रखता है ? यही वह प्रश्न है, जिसका उत्तर किसी के भी पास नहीं है | करना तो व्यक्ति परमात्मा से भी अधिक चाहता है परन्तु जब जीवन का संध्या काल आता है तब उसके हाथ खाली के खाली ही रह जाते हैं |फिर इस जन्म की शतायु भी बौनी नज़र आने लगती है |इसलिए जीवन चाहे सौ वर्ष का हो चाहे चंद दिनों का, आपके कर्म ही आपके साथ चलते हैं और कर्मों का चयन करने की स्वतंत्रता आपके पास है |कर्मों के कारण ही आप निरंतर प्रगति करते हुए आकाश की ऊँचाई छू सकते हैं और पतन के गर्त में भी जा सकते हैं |अतः जीवन में सबसे महत्वपूर्ण है, किये जाने वाले कर्मों का चयन |आप कर्म को करने से विमुख नहीं हो सकते क्योंकि कर्म करने को आप विवश हैं | ऐसे में आपके पास एक ही रास्ता बचता है, कर्म करने का, सही कर्म करने का, जो कर्म आपको पुनर्जन्म से मुक्त भले ही न कर सके परन्तु कर्म-योगी अवश्य ही बना दे |
 क्रमशः  
                        || हरिः शरणम् ||

Saturday, December 27, 2014

कर्म-योग |-8

         इतना समझाने पर भी अर्जुन के ना समझ पाने पर गीता के अंतिम अध्याय में आखिर थक हारकर भगवान श्री कृष्ण को कहना ही पड़ा-
         यदहंकारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे |
         मिथ्येष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति ||गीता 18/59||
अर्थात् जो तू अहंकार का आश्रय लेकर यह मान रहा है कि ‘मैं युद्ध नहीं करूँगा’ तो तेरा यह निश्चय मिथ्या है ;क्योंकि तेरा स्वभाव तुझे जबरदस्ती युद्ध में लगा देगा |
         स्वभावजेन कौन्तेय निबध्दःस्वेन कर्मणा |
         कर्तुंनेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोsपि तत् ||गीता 18/60||
अर्थात् हे कुन्तीपुत्र ! जिस कर्म को तू मोह के कारण करना नहीं चाहता, उसको भी तू अपने पूर्वकृत स्वाभाविक कर्म से बंधा हुआ परवश होकर करेगा |

        यहाँ इस 60 वें श्लोक में भगवान श्री कृष्ण एक दम स्पष्ट रूप से कहते हैं कि अर्जुन ! जो तुमने पूर्व में कर्म किये हैं अर्थात पूर्वजन्म में तुमने जो कर्म किये हैं उनसे तुम्हारा यह स्वभाव बना और इस जन्म में यही स्वभाव संस्कार बना जिसके कारण तुम क्षत्रिय कुल में पैदा हुए हो |अतः तुम इस स्वाभाविक कर्म अर्थात क्षत्रिय कर्म के वश में हो, जिसके फलस्वरूप तुम्हें भोग-कर्म के रूप में वर्तमान जन्म में युद्ध करना ही पड़ेगा |
क्रमशः 
                     || हरिः शरणम् ||             

Wednesday, December 24, 2014

कर्म-योग |-7

          सभी कर्म जो इन्द्रियों द्वारा किये जाते हैं, उन सब कर्मों में भूमिका जड़ तत्वों की होती है |चेतन तत्व-आत्मा की इन कर्मों में किसी भी प्रकार की भूमिका नहीं होती है |गीता में भगवान 13 वें अध्याय, क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग नामक अध्याय में एकदम स्पष्ट करते हैं| वे अर्जुन को कहते हैं -                   
             अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः |                                               
 शरीरस्थोपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते || गीता 13/31||
                            अर्थात् हे कुन्तीनन्दन ! यह पुरुष (चेतन, आत्मा) अनादि होने से और गुणों से रहित होने से अविनाशी परमात्मा स्वरूप ही है | यह शरीर में रहता हुआ भी न करता है और न ही लिप्त होता है |                       
                  यहाँ परमात्मा श्री कृष्ण स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि आत्मा इस भौतिक शरीर में रहते हुए कर्मों को न तो करता है और न ही कर्मों में लिप्त होता है |आप आत्मा है, शरीर नहीं है |इस प्रकार आप न तो कर्म कर सकते हैं और न ही कर्मों में लिप्त हो सकते हैं | कर्ता तो जड़ तत्व, यह शरीर है ,ऐसे में चेतन तत्व यानि आत्मा कर्ता कैसे हो सकती है ? आप आत्मा हैं, शरीर नहीं है ,ऐसे में आप कर्ता हो ही नहीं सकते |

                अब प्रश्न यही उठता है कि जब व्यक्ति कर्ता नहीं है तो फिर उसे कर्म करने की स्वतंत्रता कैसे है ? कर्म करने की स्वतंत्रता में प्रकृति के शेष बचे तीन तत्वों यानि मन, बुद्धि और अहंकार की भूमिका होती है |उपरोक्त तीन तत्व केवल मनुष्य नाम के प्राणी के शरीर में ही उपस्थित होते हैं, अन्य किसी भी प्राणी में नहीं |यही कारण है कि अन्य सभी प्राणी केवल भोग-कर्म ही कर सकते हैं जबकि मनुष्य भोग-कर्म के साथ साथ योग-कर्म भी कर सकता है |इसीलिए मनुष्य की योनि को भोग योनि के साथ साथ योग-योनि या कर्म-योनि भी कहा जाता है जबकि अन्य प्राणियों की योनि को केवल भोग-योनि कहा जाता है |
                 लेकिन यह कर्म करने की स्वतंत्रता भी सम्पूर्ण स्वतंत्रता नहीं है | जैसा कि भगवान श्री कृष्ण गीता में बार बार अर्जुन को यही समझाते हैं कि तू कौन होता है युद्ध करने वाला या युद्ध न करने वाला ? जब युद्ध भूमि कुरुक्षेत्र में अर्जुन ने ,अपने और दुर्योधन ,दोनों ही पक्षों में अपने सगे-सम्बन्धियों, परिवारजनों और मित्रों को देखा तब उसे लगा कि इस युद्ध में जीत चाहे किसी की भी हो, मरने वाले तो उसके अपने ही होंगे |ऐसा विचार कर उसने हथियार डाल दिए और युद्ध से पलायन की बात करने लगा | अगर कर्म करने की पूर्ण स्वतंत्रता मनुष्य को होती तो अर्जुन कभी का युद्ध भूमि छोड़ भाग खड़ा होता |परन्तु श्री कृष्ण ने उसे समझाया कि युद्ध करने या न करने का निर्णय तू स्वयं कर ही नहीं सकता क्योंकि कर्म मनुष्य प्रकृति के गुणों के वश में होकर करता है अर्थात मनुष्य कर्म करने के लिए स्वतन्त्र तो है परन्तु उसके द्वारा किये जाने वाले कर्म प्रकृति के गुणों के अधीन होते हैं | ऐसे में कहा जा सकता है कि मनुष्य को अपने जीवन में कर्म करने की स्वतंत्रता अवश्य है परन्तु प्रकृति के गुणों के वश में रहकर ही वह कर्म करेगा |
क्रमशः 
                   ॥ हरिः शरणम् ॥ 
 

Monday, December 22, 2014

कर्म-योग |-6

             जब इस शरीर में सभी कर्म प्रकृति के गुणों के कारण ही होते हैं अथवा किये जाते हैं ,तो फिर ऐसे कर्मों का कोई कर्ता कैसे हो सकता है ?इसी बात को और अच्छे तरीके से स्पष्ट करने का प्रयास करता हूँ | किसी भी व्यक्ति में तीन मूल तत्व उपस्थित होते हैं - भौतिक शरीर, मन और आत्मा | शरीर बनता हैं, पांच भौतिक तत्वों से, यथा -भूमि, आकाश, जल, वायु और अग्नि | पांच ज्ञानेन्द्रियाँ और पांच उनके विषय भी इन पञ्च भौतिक तत्वों का प्रतिनिधित्व करते हैं | भूमि से नाक और गंध, आकाश से कान और शब्द या ध्वनि, जल से जिह्वा और स्वाद ,अग्नि से आँख और दृष्टि तथा वायु से त्वचा और स्पर्श से/का ज्ञान |परन्तु इन पंद्रह तत्वों के बाद भी कर्म करने लिए पांच कर्मेन्द्रियाँ आवश्यक है |उपरोक्त बीस तत्वों के साथ जब मन, बुद्धि और अहंकार का तादात्म्य स्थापित होता है तब व्यक्ति कर्म करने की अवस्था को उपलब्ध होता है | इस प्रकार जब मनुष्य शरीर में उपरोक्त 23 जड़ तत्व इकट्ठे हो जाते हैं तब उसके कर्म करने की स्थिति में आने के लिए 24 वें तत्व के रूप में आत्मा का प्रवेश होता है |
                                          यह आत्मा ही चेतन तत्व है, जो किसी भी प्रकार का कोई कर्म नहीं करती है, जबकि कर्म करने वाले जो शेष 23 तत्व हैं, वे सभी जड़ तत्व है | कर्म जड़ तत्व करते हैं न कि चेतन तत्व | प्रारम्भिक 20 जड़ तत्वों (मन, बुद्धि और अहंकार को छोड़कर) का आधार पांच भौतिक तत्व ही हैं |इन पांच भौतिक तत्वों को प्रकृति में आप कर्म करते हुए साफ साफ देख सकते हैं |पृथ्वी या भूमि आपको सभी दैनिक आवश्यकताओं को पूरा करने के साधन उपलब्ध करवाती है, यह उसका कर्म है |इससे उत्पन्न घ्रानेंद्रिय से आप गंध का अनुभव कर सकते हैं |जल के कर्म आप समुद्र में देख सकते है ,जिसमें सदैव ही लहरें उठती रहती है | इसके जल से भाप बनकर बादल उठते हैं जो दूरस्थ स्थानों पर जाकर बरसते हैं | इस बरसे जल से हमें भूख मिटाने के लिए अन्न और प्यास बुझाने के लिए जल प्राप्त होता है |जल का प्रतिनिधित्व करने वाली इन्द्रिय जीभ है, जिससे आप स्वाद का अनुभव कर सकते हैं | जीभ का कर्म स्वाद का ज्ञान करना है | वायु का कर्म है-बहना |जिसका स्पष्ट अनुभव आप इसका प्रतिनिधित्व करने वाली इन्द्रिय त्वचा से कर सकते हैं | त्वचा का कर्म है-स्पर्श का ज्ञान, छूकर किसी का अहसास कराना, जैसे ठंडा, गर्म, पतला, मोटा आदि |अग्नि का कर्म है-गर्मी और प्रकाश देना |इसका प्रतिनिधित्व करने वाली इन्द्रिय है नेत्र| नेत्रों से हम दृष्टि पाते है| इस प्रकार नेत्र का कर्म है-देखना | इसी प्रकार आकाश में हम शब्द या ध्वनि का अनुभव कर सकते हैं |आकाश का प्रतिनिधित्व करने वाली इन्द्रिय है-श्रवनेंद्रिय यानि कान | कानों से हमें आवाज और उसकी दिशा का ज्ञान प्राप्त होता है | 
क्रमशः 
                           || हरिः शरणम् ||

Sunday, December 21, 2014

कर्म-योग |-5

                       हमने कर्मों को दो भागों में विभाजित किया है |अगर गंभीरता से देखा जाये तो भोग-कर्म वास्तव में ऐसे कर्म है जिस पर करने वाले का किसी भी प्रकार से नियंत्रण नहीं है, जबकि योग-कर्म का नियंत्रण सदैव ही कर्ता के पास होता है और समस्त ब्रह्माण्ड में एक मात्र मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जिसको अपने मन के अनुसार कर्म करने की स्वतंत्रता है और वह इसी के अनुरूप योग-कर्म करता भी है | अतः जहाँ पर भी और जिस किसी भी शास्त्र में कर्म नाम से जो भी उल्लेखित है, उन सबका तात्पर्य योग-कर्म से ही है | अतः इस श्रृंखला में आगे जहाँ भी कर्म शब्द का प्रयोग होगा ,उसका अभिप्राय योग-कर्म से ही होगा | यह सब कर्म मनुष्य एक कर्ता बन कर करता अवश्य है परन्तु वास्तव में वह इन कर्मों का कर्ता होता नहीं है |आप कहेंगे कि एक तरफ आप कह रहे हैं कि मनुष्य ही एक मात्र ऐसा प्राणी है जिसको कर्म करने की स्वतंत्रता है और दूसरी तरफ कहते हैं कि वह कर्ता नहीं है | ऐसा विरोधाभास क्यों ?              
                                   गीता में भगवान श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं-                                                                                              प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वशः ।                                                                                                 अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते I।3/27।।                
अर्थात् वास्तव में सम्पूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं तो भी जिसका अंतःकरण अहंकार से मोहित हो रहा है, ऐसा अज्ञानी ‘मैं कर्ता हूँ’ ऐसा मानता है |
क्रमशः
                                            || हरिः शरणम् ||

Friday, December 19, 2014

कर्म-योग |-4

भोग-कर्म और योग-कर्म के बारे में गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
                सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि |
                प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ||गीता 3/33||
अर्थात् सभी प्राणी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात् अपने स्वभाव के परवश हुए कर्म करते हैं |ज्ञानवान भी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता है |फिर इसमें किसी का हठ क्या करेगा? 
      यहाँ भगवान स्पष्ट कहते हैं कि सभी प्राणी अपने स्वभाव के परवश हुए कर्म करते हैं |पूर्व मनुष्य जन्म में किये हुए कर्मों (योग-कर्मों) से उसके स्वभाव का निर्माण होता है | यही स्वभाव नए जन्म में उसके साथ रहता है |नए शरीर में प्राणी अपने उसी पूर्व-जन्म के स्वभाव के वश में रहता है |इस नए शरीर में वह चाहे कितना ही हठ करे ,वह स्वभाव के परवश हुए भोग-कर्म करेगा ही | उसके हठ के अनुरूप किसी भी प्रकार के कर्म हो ही नहीं सकते |ज्ञानवान भी इसी प्रकार अपनी प्रकृति के अनुसार कर्म करने का प्रयास  करता है |इस प्रयास से व्यक्ति भोग-कर्म के साथ साथ योग-कर्म कर सकता है |अगर कोई मनुष्य कर्म करने को अनुचित मान भी ले और कर्म न करने की ठान ले, तो भी उसे अपने पूर्व-जन्म के स्वभाव के अनुसार भोग-कर्म करने को तो विवश होना ही पड़ेगा |इसी कारण से गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि इस संसार में कोई भी व्यक्ति बिना कर्म किये रह ही नहीं सकता |अपनी जिद्द से वह योग-कर्म से विमुख अवश्य हो सकता है परन्तु भोग-कर्म करने से वंचित नहीं हो सकता |इन्हीं भोग-कर्मों को करते हुए वह एक दिन योग-कर्म करने को भी विवश हो जायेगा | इस प्रकार कर्मों की एक अंतहीन श्रृंखला बन जाती है जिसके पाश से छूट पाना साधारण मनुष्य के वश में नहीं है | 
   क्रमशः 
                        || हरिः शरणम् || 

Tuesday, December 16, 2014

कर्म-योग |-3

कर्म-
      कर्म ही इस संसार को गतिमान बनाये रखने की धुरी है | सारा संसार कर्म के चारों और परिक्रमा कर रहा है |जिस दिन यह कर्मों का संसार समाप्त हो जायेगा, वह दिन इस भौतिक संसार का भी अंतिम दिन होगा | कर्म इस भौतिक संसार का आधार है क्योंकि परमात्मा ने कर्म करते रहने को ही प्राथमिकता दी है | बिना कर्म किये इस संसार में न तो कुछ प्राप्त किया जा सकता है और न ही कुछ खोया जा सकता है | रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है- “कर्म प्रधान बिस्व करि राखा ” अर्थात् परमात्मा ने इस संसार में कर्म को ही मुख्य भूमिका में रखा है | कर्म के बिना इस संसार का गतिमान बने रहना मुश्किल है |अगर कर्म नहीं है तो संसार भी नहीं है और इसी प्रकार कर्म हैं तो यह संसार है |
      जब कर्म की प्रधानता इस संसार में है और कर्म पर ही संसार का अस्तित्व टिका हुआ है तो यह जानना महत्वपूर्ण होगा कि कर्म कैसे होते हैं , कौन करता है और क्यों करता है ? हम सब कर्म में विश्वास रखते हैं |यह इसी बात से साबित होता है कि प्रत्येक दिन प्रातःकाल से ही मनुष्य कर्म करने में लग जाता है | समस्त विश्व में भारत ही एक मात्र देश है जहाँ प्रत्येक व्यक्ति किसी विशेष कर्म को करने से पहले परमात्मा का स्मरण अवश्य करता है | इसका कारण गीता में भगवान श्री कृष्ण सटीक रूप से स्पष्ट करते हैं | कही भी, किसी प्रकार का विरोधाभास नहीं है |कर्म की व्याख्या जिस प्रकार से श्रीमद्भगवद्गीता में की गई है उतनी सटीक व्याख्या आपको अन्य किसी भी धर्मशास्त्र में नहीं मिलेगी |
   कर्म करने के बारे में गीता में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को समझाते हुए कहते हैं-
                  न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् |
                  कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणै : ||गीता 3/5 ||
   अर्थात् निःसंदेह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षण मात्र भी बिना कर्म किये नहीं रहता; क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृति जनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है |

                यहाँ एकदम स्पष्ट है कि समस्त मनुष्य जो भी योग-कर्म करते हैं ,वे कर्म व्यक्ति के प्राकृतिक गुणों के कारण ही होते हैं | जैसा कि हम जानते है कि प्रकृति के तीन गुण है-सत, रज और तम | प्रत्येक व्यक्ति में उपरोक्त तीनों गुण ही उपस्थित होते हैं परन्तु जिस गुण की प्रधानता होती है, व्यक्ति का स्वभाव उसी गुण के अनुरूप माना जाता है | जिस पुरुष में सात्विक गुणों की प्रधानता होती है, वह व्यक्ति प्रायः सात्विक कर्म ही करता है ,परन्तु उस व्यक्ति में सत गुण के साथ रज और तम गुण भी उपस्थित होते हैं उस कारण से यदा कदा उससे सात्विक कर्म के अलावा अन्य प्रकार के कर्म भी हो जाते हैं |अतः यह कहना एकदम सही है कि व्यक्ति चाहे जितना मन में ठान ले कि यह करना है या यह नहीं करना है, मनुष्य के हाथ में कुछ भी नहीं है । करना या न करना , होना अथवा न होना तो उसमें उपस्थित गुणों के वश में है । अतः मनुष्य अपने में ही उपस्थित गुणों के परवश होकर उन्हीं के अनुरूप कर्म करने को बाध्य होता है | 
क्रमशः    
                     || हरिः शरणम् ||

Sunday, December 14, 2014

कर्म-योग |-2

                       मानव जन्म में किये जाने वाले योग-कर्म तथा कर्म-योग,इन दोनों में बहुत बड़ा अंतर  है । अतः इन दो शब्दों को लेकर किसी भी प्रकार का भ्रम रखने की आवश्यकता नहीं है । कर्म-योग ,एक ऐसी उच्च अवस्था का नाम है जिसे प्रत्येक मनुष्य प्राप्त करना चाहता  है । इस अवस्था को प्राप्त करने के लिए मनुष्य को योग-कर्म करना आवश्यक है । प्रत्येक योग-कर्म करने वाला व्यक्ति कर्म-योगी नहीं हो सकता परन्तु कर्म-योगी बनने के लिए योग-कर्म करना  प्रत्येक आकांक्षी मनुष्य के लिए आवश्यक है ।योग-कर्म और कर्म-योग के बीच केवल मात्र यही सम्बन्ध है ।दोनों को एक समझ लेना उचित नहीं है ।
                      आजकल हम किसी भी मंच से ,किसी भी व्यक्ति को कर्म-योगी की उपाधि से विभूषित कर देते हैं । ऐसा कहना  हमारी गलत सोच का परिणाम है ।जब प्रत्येक मनुष्य को कर्म करने की स्वतंत्रता है और प्रत्येक के लिए कर्म करने आवश्यक हैं तथा इस संसार में कोई भी व्यक्ति कर्म किये बिना नहीं रह सकता तो ऐसे में प्रत्येक कोई कर्म-योगी नहीं हो जायेगा ।  कर्म-योगी बनने के लिए केवल मात्र योग-कर्म करने ही पर्याप्त नहीं है । कर्म-योग एक साधना का नाम है जिसे प्रत्येक प्रकार के योग-कर्म करते हुए प्राप्त नहीं किया जा सकता । हाँ,योग-कर्म ही एक मात्र ऐसा साधन है जिसे करते हुए मनुष्य कर्म-योग को प्राप्त हो सकता है । अतः हमें सबसे पहले यह जानना आवश्यक है कि योग-कर्म क्या है? योग-कर्म कितने प्रकार के है ? किस प्रकार के योग-कर्म करते हुए व्यक्ति कर्म-योग को उपलब्ध हो सकता है ?जब तक हम योग-कर्म को सही प्रकार से नहीं समझेंगे तब तक कर्म-योग को उपलब्ध नहीं होंगे । कर्म-योग को उपलब्ध हो जाना ही कर्म-योगी हो जाना है ।
क्रमशः
                                           ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Thursday, December 11, 2014

कर्म-योग|-1

                                     इस संसार में जिसने भी जन्म लिया है,वह एक पल के लिए भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता । इस धरती पर समय समय पर विभिन्न अवतार लेकर परमात्मा भी आये हैं और सभी ने अपने अपने अनुसार कर्म किये हैं । मानव ही नहीं बल्कि प्रत्येक जीव यहाँ पर कर्म करने को विवश हैं | अंतर सिर्फ इतना ही है कि अन्य प्राणी पूर्व मानव जन्म में किये गए कर्मों का फल भोगने के लिए कर्म करने को विवश है जबकि मनुष्य पूर्व जन्मों में किये गए कर्मों का फल भोगने के साथ ही साथ इस जन्म में स्वेच्छा से कर्म करने को स्वतन्त्र है । यह कर्म करने की स्वतंत्रता ही उसमे कर्म करने के प्रति कामना उत्पन्न करती है । अन्य जीवों में कर्म करने की स्वतंत्रता न होने के कारण उनमे कामना पैदा होने का प्रश्न ही नहीं है ।
                        पूर्व मानव जन्म में किये गए कर्मों के फलस्वरूप जो भी कर्म प्राणी द्वारा किये जाते है ,वे कर्म भोग-कर्म कहलाते हैं । अतः मनुष्य और अन्य प्राणी जो भी कर्म ,पूर्व के जन्मों में किये गए कर्मों के फलों के भोग स्वरुप करते हैं उन्हें हम कर्म नहीं कह सकते हैं । केवल अपनी कर्म करने की स्वतंत्रता ही मनुष्य जीवन में किये गए कर्मों के भविष्य का निर्धारण करती है,अतः ये ऐसे किये जाने वाले कर्म ही वास्तविकता में कर्म कहे जाते हैं । इसी कर्म स्वतंत्रता के कारण मनुष्य द्वारा किये जा रहे कर्म विशेष होते हैं ।
                     इस प्रकार से हम कर्मों को प्रमुख रूप से दो भागों में बाँट सकते हैं-भोग-कर्म और योग-कर्म । भोग-कर्म वे कर्म होते हैं जो पूर्व जन्म में किये गए कर्मों के परिणाम स्वरुप प्रत्येक प्राणी को अपने जीवन काल में करने पड़ते हैं । इन भोग-कर्मों के करने में सम्बंधित प्राणी का किसी भी प्रकार का नियंत्रण नहीं रहता है । दूसरे प्रकार के कर्म यानि योग-कर्म करने का अधिकार सभी प्राणियों में केवल मनुष्य को प्राप्त है । मनुष्य को स्वतंत्रता है कि वह अपने मन के अनुसार किसी भी प्रकार का कर्म कर सकता है । इन्हें हम योग-कर्म इसलिए कहते हैं क्योंकि इन कर्मों का सम्पूर्ण लेखा-जोखा मानव के चित्त में अंकित होकर बढ़ता जाता है (कर्मों का योग) और मानव देह की समाप्ति पर इन कर्मों का विश्लेषण आत्मा करती है और उसी  के अनुरूप किसी भी प्राणी के रूप में पुनर्जन्म पाकर भोग-कर्म करने को विवश होना पड़ता है ।
क्रमशः
                                                ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Monday, December 8, 2014

कर्म और कर्मयोग ।

                 गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कर्म करते रहने की सलाह दी।यह ज्ञान "कर्मयोग" नाम से जाना जाता है।गीता के इसी "कर्मयोग" को ही सबसे ज्यादा पसंद करते हैं परंतु वास्तव में इसे बहुत कम लोगों ने समझा है।गीता के इसी कर्मयोग को बहुत से दार्शनिक और ज्ञानी महापुरुषों ने अपनी समझ के अनुसार इसकी व्याख्या की है।उनकी व्याख्या को मैंने भी पढा है और पूरी तरह किसी से भी संतुष्ट नहीं हूँ।उन सभी व्याख्याओं को पढने और गीता के अध्ययन के बाद "कर्मयोग" के बारे  में जो मेरी समझ में आया है वह पूर्व में की गई व्याख्याओं से कुछ भिन्न अवश्य है परंतु आलोच्य बिल्कुल भी नहीं है।आलोच्य कोई भी व्याख्या हो ही नहीं सकती है क्योंकि वे सब संबधित व्यक्तियों द्वारा अपनी अपनी सोच और समझ से की गई है।जैसा भी व्यक्ति समझता है, वह वैसा ही व्यक्त करता है और अपनी सोच और समझ के अनुसार सभी का अपना एक सत्य होता है।अतः उसकी इस सत्यता पर अंकुश लगाने का अर्थ है, परमात्मा की सत्ता पर प्रश्न चिन्ह लगाना। मेरी तरह ही सभी को यह स्वतंत्रता है कि वह अपने विचार रखे।अतः कर्मयोग की कोई भी व्याख्या कभी भी आलोच्य नहीं है। इसी भावना के साथ मैं भी" कर्मयोग "पर अपने विचार रखने का प्रयास कर रहा हूं।
              कर्म को जैसा गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है, वह हमने उसके ठीक विपरीत उसे समझा है। गीता का ज्ञान हम सहस्राब्दियो से पढते और सुनते आ रहे हैं, फिर भी हम इस छोटे से शब्द" कर्म " को सही तरीके से समझ नहीं पाए हैं ।प्रायः हम प्रत्येक प्रकार के होते हुए कर्म को ही कर्मयोग तथा कर्ता को कर्मयोगी घोषित कर देते हैं जो कि पूरी तरह से असत्य है।ऐसे में यह जानने की जरूरत है कि आखिर कर्म की सत्यता क्या है? जिस दिन आप कर्म के बारे में पूर्ण रूप से जान और समझ लेंगे,  आप भी कर्मयोग के मार्ग पर चलकर कर्मयोगी बन सकते हैं।
                कर्मयोग आम व्यक्ति को समझ में आ जाए, उसी भाषा और अंदाज में अपने विचार व्यक्त करने का प्रयास कर रहा हूं। कितना सफल हो पाउँगा , ऐसा किसी भी प्रकार का विचार मेरे मन में कहीं भी नहीं है । इस तरह का कोई भी विचार का न होना ही कर्मयोग का एकमात्र और महत्वपूर्ण सिध्दांत है।इस दौरान अगर कोई भी प्रश्न, कर्म, कर्मयोग अथवा कर्मयोगी के सम्बन्ध में तो उनका स्वागत है। मेरे से जहां तक संभव होगा आपकी शंकाओं के समाधान का प्रयास करूंगा।
             पिछले कुछ समय से स्वास्थ्य और सामाजिक प्रतिबद्धताओं के कारण नियमित रूप से लेखन कार्य नहीं कर पा रहा हूँ। भविष्य में इसे नियमित करने का प्रयास करूंगा। आशा है आप सभी से सहयोग मिलेगा।सप्ताह में कम से कम दो बार का क्रम तो बना रहेगा, ऐसी आशा है।
                      ।। हरि : शरणम्।। 

Friday, December 5, 2014

सुख-सुविधा |

                  समाज में सभी सुखी रहना चाहते हैं, लेकिन यह हो कैसे? इसका एक सूत्र है-प्रेम। वस्तुत: प्रेम वह तत्व है जो प्रेम करने वाले को सुखी तो बनाता ही है, जिससे प्रेम किया जाता है वह भी सुखी होता है।
                 याद रखें, सुख और सुविधा दो भिन्न चीजें हैं। जो शरीर को आराम पहुंचाता है वह सुख नहीं, सुविधा है, लेकिन सुख का संबंध आत्मा से होता है। आप अच्छे घर में रहते हैं, अच्छी कार में बैठते हैं, एयरकंडीशन ऑफिस में काम करते हैं उससे आपके शरीर को सुविधा प्राप्त होती है, परंतु आप सत्य बोलते हैं, सबको प्रेम करते हैं, ईमानदारी और नैतिकता का व्यवहार अपनाते हैं, सच्चाई और संवेदना दर्शाते हैं, अहिंसा के मार्ग पर चलते हैं तो उससे आपको जो सुख मिलता है वह आत्मिक सुख कहलाता है। यही सुख व्यक्ति और समाज को सुखी बनाता है। जिंदगी के सफर में नैतिक व मानवीय उद्देश्यों के प्रति मन में अटूट विश्वास होना जरूरी है। कहा जाता है आदमी नहीं चलता, उसका विश्वास चलता है। आत्मविश्वास सभी गुणों को एक जगह बांध देता है यानी विश्वास की रोशनी में मनुष्य का संपूर्ण व्यक्तित्व और आदर्श उजागर होता है। दुनिया में कोई भी व्यक्ति महंगे वस्त्र, आलीशान मकान, विदेशी कार, धन-वैभव के आधार पर बड़ा या छोटा नहीं होता। उसकी महानता उसके चरित्र से बंधी है और चरित्र उसी का होता है जिसका खुद पर विश्वास है।
              मनुष्य के भीतर देवत्व है, तो पशुत्व भी है। 'सर्वे भवंतु सुखिन:' का पुरातन भारतीय मंत्र संभवत: दानवों को नहीं सुहाया और उन्होंने अपने दानवत्व को दिखाया। पूर्वजों के लगाए पेड़ आंगन में सुखद छांव और फल-फूल दे रहे थे, लेकिन जब शैतान जागा और दानवता हावी हुई तो भाई-भाई के बीच दीवार खड़ी हो गई। बड़े भाई के घर में वृक्ष रह गए और छोटे भाई के घर में छांव पडऩे लगी। अधिकारों में छिपा वैमनस्य जागा और बड़े भाई ने सभी वृक्षों को कटवा डाला। पड़ोसियों ने देखा तो दुख भी हुआ। उन्होंने पूछा इतने छांवदार और फलवान वृक्ष को आखिर कटवा क्यों दिया? उसने उत्तर दिया, क्या करूं पेड़ों की छाया का लाभ दूसरों को मिल रहा था और जमीन मेरी रुकी हुई थी। वर्तमान में हमने जितना पाया है, उससे कहीं अधिक खोया है। भौतिक मूल्य इंसान की सुविधा के लिए हैं, इंसान उनके लिए नहीं है।
                                      || हरिः शरणम् || 

Tuesday, December 2, 2014

गीता-जयंती|

                                 आज मोक्षदा एकादशी है । आज ही के दिन कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में महाभारत युद्ध से पूर्व भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को कर्म-योग का ज्ञान दिया था। यह ज्ञान श्रीमद्भगवद्गीता में संकलित है । यह ज्ञान द्वापरयुग के अंत में और कलियुग के प्रारम्भ से कुछ समय पूर्व ही दिया गया था । आज  हम कलियुग में जी रहे हैं । आज के इस युग में हमारे में बहुतायत अर्जुन जैसे लोगों की है,जो किंकर्तव्यविमूढ़ है । क्या किया जाये और क्या न किया जाये,उनके सामने स्पष्ट नहीं है । ऐसे में यह गीता नामक शास्त्र ,हम सबका एक अच्छा मार्गदर्शक सिद्ध हो सकता है । बस, आवश्यकता है कि हम इस शास्त्र के महत्व को समझे और इसको आत्मसात करें । इस ग्रन्थ को  पढ़ने के उपरांत ही अनुभव होता है कि कितनी गहनता है इसमें ?
                                      इसके अध्ययन के प्रारम्भिक दौर में हो सकता है कि विषय कुछ नीरस सा महसूस हो,परन्तु इसका सतत अध्ययन करने से पता चलेगा कि कितना सरल है इसका अध्ययन ? हाँ,यह अवश्य है कि जब तक हमारे सामने अर्जुन जैसी परिस्थितियां पैदा नहीं होगी,तब तक हमारा गीता के प्रति आकर्षण बनना कठिन है । एक बार गीता के ज्ञान सागर में उतरें,आप इसके अन्दर डूबते चले जायेंगे । यही इस ग्रन्थ की विशेषता है ।
                          हम ऋणी हैं अर्जुन के ,जिसके कारण हमें इतना पवित्र ज्ञान प्राप्त हो सका । इस पावन दिवस पर आप सभी को गीता-जयंती की  शुभकामनायें ।
                                       ॥ हरिः शरणम् ॥