Tuesday, April 10, 2018

गीता-ज्ञान की सार्थकता - 38 (समापन कड़ी) -


गीता-ज्ञान की सार्थकता – 38 (समापन कड़ी)-
                अगला प्रश्न है कि क्या मापदंड हो जिससे समझ सकें कि आध्यात्मिकता के मार्ग पर हम सही चल रहे हैं ? आपको सदैव अपने भीतर जन्म ले रहे विकारों पर पैनी दृष्टि रखनी होगी | क्रोध आता है, तो क्रोध को ध्यान से देखें | पता लगाओ कि क्रोध किस कामना के पूरा न होने से आया है | उस कामना का विश्लेषण करो कि क्या आपकी यह कामना शुभ थी अथवा अशुभ | अशुभ कामना है तो भविष्य में ऐसी कामना न करें ही नहीं और शुभ कामना है तो यह समझें कि जिस व्यक्ति पर क्रोध आया है, वह आपकी शुभ कामना को सही रूप से समझ नहीं पाया है | इस क्रोध से आपका ही नुकसान हो रहा है, सामने वाले का नहीं | इस प्रकार के क्रोध को करने से क्या लाभ ? धीरे-धीरे आप देखेंगे कि आपका क्रोध कम हो रहा है, उसकी आवृति और तीव्रता दोनों ही कम होती जा रही है | कामनाओं पर भी नियंत्रण स्थापित होता जा रहा है | इस प्रक्रिया के सतत चलते रहने से धीरे-धीरे दूसरे दोष और विकारों से भी आप मुक्त होते चले जायेंगे | प्रारम्भ में कुछ असुविधा हो सकती है, परन्तु धैर्य के साथ ऐसा करते रहेंगे तो विकारों से दूर रहने में सफलता मिलने लगेगी | इस प्रकार आप अपनी स्वयं की प्रगति का आकलन कर सकते हैं |
                            अगला प्रश्न है कि आपने जो सहज सरल राह बतलाई है, क्या उसका पालन जीवन पर्यंत किया जा सकता है ? मैं बड़ी विनम्रता के साथ कहना चाहता हूँ कि मैंने स्वयं के स्तर पर कोई राह नहीं सुझाई है बल्कि विभिन्न धर्म ग्रंथ विशेष रूप से गीता को पढ़कर यह राह जो कुछ मेरे समझ में आई है वह आपके साथ साझा की है | मैं स्वयं अभी भी इस राह पर चलने का प्रयास कर रहा हूँ और मैंने पाया है कि मेरा जीवन इन विकारों से धीरे-धीरे मुक्त हो रहा है और एक आनंद की अनुभूति मैं स्वयं के भीतर कर रहा हूँ | यह राह परमात्मा की राह है और इसका अनुगमन जीवन पर्यंत करने से ही आनंद की अवस्था को उपलब्ध हुआ जा सकता है | इसका अनुपालन करने की मन में इच्छा होनी चाहिए, फिर जीवन में कुछ भी असंभव नहीं है |
                    एक प्रश्न और - भारतीय संविधान की धाराओं में दंड का प्रावधान भी है और बचने की धाराएँ भी हैं | ऐसा घुमावदार जीवन न हो ? संविधान मानव निर्मित और परिवर्तनीय है | गीता-ज्ञान शाश्वत ज्ञान है, संविधान से इसकी तुलना नहीं की जा सकती | संविधान में विभिन्न धाराएँ हम मनुष्यों के द्वारा डाली गयी हैं | इनमें हमारा निजी स्वार्थ अथवा दुष्टता जुड़ी हो सकती है | भगवान द्वारा दिए गए गीता-ज्ञान में ऐसा नहीं हैं | हाँ, अगर हमारा स्वार्थ हो अथवा हमारे भीतर दुष्टता प्रवेश कर जाये तो हम उस ज्ञान की व्याख्या अपने स्वार्थ के अनुसार कर लेते हैं | अनुचित व्याख्या सदैव अनुचित ही रहेगी | गीता-ज्ञान सत्य का ज्ञान है इसको कितना भी मोड़ने तोड़ने का प्रयास करें, सत्य कभी भी बदल नहीं सकता | गीता-ज्ञान का अनुसरण करने से जीवन घुमावदार नहीं हो सकता बल्कि उलझा हुआ घुमावदार जीवन भी  सीधा-सादा और सरल हो जायेगा |
                      अंत में एक बहिन जी का प्रश्न ले लेते हैं | प्रश्न है कि मोह आदि विकार चला जाता है परन्तु पुनः लौट आता है, ऐसे में क्या करना चाहिए जिससे कि विकार वापिस नहीं आये ? अगर बाहर किया हुआ विकार वापिस लौट आता है इसका एक ही अर्थ है कि विकार का त्याग मन से नहीं किया गया था बल्कि यह एक सम सामयिक किया गया त्याग था, जिसे साधारण भाषा में मसानिया वैराग (किसी मृतक की अंत्येष्टि में जाने से उत्पन्न हुआ वैराग्य ) कहा जाता है | जीवन में विषम परिस्थितियां बन जाने पर हम एक बार उस विकार को त्याग तो देते है परन्तु बार-बार विषय-चिंतन से वह विकार पुनः लौट आता है | विकारों के इस आवागमन को रोकने का एक मात्र उपाय है, समस्त विषयों के प्रति अनासक्त हो जाना | विषय-भोग उपलब्ध हुए  तो अच्छा  नहीं मिल पाए तो भी ठीक | न विषयों के प्रति आसक्ति और न ही इनसे विरक्ति | ऐसे में अनासक्ति ही एक मात्र उपाय है, विकारों को नियंत्रित करने के लिए |
               मैंने अपने विवेक से कुछ प्रश्नों के उत्तर देने का प्रयास किया है | फिर भी कुछ शेष रह गया हो, तो सत्संग के माध्यम से जानने और समझने का प्रयास करें | आप सभी का आभार |  
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

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