Sunday, April 8, 2018

गीता-ज्ञान की सार्थकता - 36


गीता-ज्ञान की सार्थकता – 36
                    फिर वही प्रश्न कि इन विकारों से बचें कैसे ? बचने के भी वही तीन मार्ग-कर्म, ज्ञान और भक्ति | कर्म हमारे भीतर कर्तापन पैदा कर सकता है यानि मोह (अज्ञान) और अहंकार स्वयं के कर्ता होने का | ज्ञान अहंकार ला सकता है, स्वयं के ज्ञानी हो जाने का | शेष रहा एक- भक्ति-मार्ग | इस मार्ग पर चलने वाले व्यक्ति के सामने विकार ग्रस्त होने के कम अवसर हैं हालाँकि इसमें भी व्यक्ति कभी–कभी संशय ग्रस्त हो सकता है | इसीलिए गीता के अंतिम और समापन चरण में संशयग्रस्त अर्जुन को भगवान श्री कृष्ण सब कुछ छोड़-छाड़ कर शरणागत होने का कह देते हैं –‘सर्व धर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज’| अतः सरलतम उपाय हुआ, शरणागति | हरिः शरणम् आश्रम, हरिद्वार के आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा शरणागति पर एक भजन सुनाया करते हैं – ‘नाथ मैं शरण आयो जी, जच जिस तरह खेल खिलाओ, थे मन चाह्यो जी, नाथ मैं शरण आयो जी .......’|  शरणागत हो जाने से कोई भी विकार भीतर रह ही नहीं सकता और न ही उसके पुनः लौट आने का खतरा रहता है | शरणागति अर्थात न तो कुछ करने का राग, न कुछ जान लेने का अहंकार और न ही परमात्मा के बारे में किसी प्रकार का संशय | कर्म आपको राजस में भटका सकते हैं, ज्ञान राजसिक गुणों से सात्विक गुणों की ओर ले जाता है, भक्ति सत्व गुणों से भरकर आपको सात्विक गुणों के उच्च स्तर पर पहुंचा सकती है परन्तु शरणागति आपको सभी गुणों से परे ले जाकर गुणातीत कर सकती है | इस प्रकार शरणागति सर्वश्रेष्ठ हुई, तभी तो मीरा भी बोल उठी थी -‘मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई ...|’
                     कहने का अर्थ है कि हमें परमात्मा के प्रति पूर्ण श्रद्धा-भाव रखना होगा और समर्पण के साथ अनन्य भक्त बनना पड़ेगा | किसी भी प्रकार का संशय मन में न रखते हुए शरणागत हो जाएँ | कर्म करना छोड़ना नहीं है बल्कि उनमें सुधार करते हुए नैष्कर्म्यता को अपनाना होगा | किसी भी कर्म का कर्ता नहीं बनना है | ज्ञान-योग यही बात तो कहता है कि सभी कर्म प्रकृति के गुणों के कारण होते हैं | गुणों में सुधार करते हुए उनके अनुसार कर्म करते रहना ही कर्म-योग है | सद्गुणों से किये जाने वाले कर्म ही निष्काम-कर्म हैं | माया का अर्थ है भ्रम | भ्रम इस बात का कि मैं कर्म करता हूँ जबकि सत्य बात यह है कि हम कर्म करते नहीं हैं बल्कि हमारे माध्यम से कर्म होते हैं | पुत्र हमारा नहीं है, बल्कि हमारे माध्यम से इस संसार में उसका आगमन हुआ है | इस बात को हम स्वीकार करें तो पुत्र में मोह पैदा नहीं होगा, परिवार में मोह पैदा नहीं होगा | भगवान ने अर्जुन को स्पष्ट रूप से कह दिया था कि इस युद्ध में खड़े सभी योद्धाओं का मरना मेरे द्वारा  पहले ही निश्चित किया जा चूका है, तूं तो इनको मारने का केवल निमित्त मात्र  बन जा | हुआ भी वही, जो श्री कृष्ण ने कहा था परन्तु अर्जुन ने स्वयं को निमित्त मात्र कहाँ माना था ? वह तो महाभारत युद्ध के उपरांत श्री कृष्ण द्वारा दिया गया समस्त ज्ञान भूलकर उन योद्धाओं को मारने के लिए स्वयं को कर्ता मान बैठा था | यही अर्जुन का अहंकार था और हम भी अपने जीवन में ऐसे एक नहीं अनेकों अहंकार पाले हुए बैठे हैं |
               हम भोजन करते हैं और भोजन पचाने की क्रिया हमारे उदर में स्वतः होती है | क्या हम कह सकते हैं कि किये गए इस भोजन को मैं पचा रहा हूँ ? नहीं कह सकते क्योंकि भोजन स्वतः ही प्रकृति प्रदत्त गुणों के कारण पचता है | हम केवल इतना कह सकते हैं कि मेरी पाचन शक्ति अच्छी/ख़राब है | परन्तु जब हमारा विवाह हो जाता है, पत्नी आ जाती है और फिर पुत्र पैदा हो जाता है तब कहने लग जाते हैं-यह मेरी पत्नी/पुत्र है ? क्यों कहते हैं ? नहीं कहना चाहिए | हम किसी भी कर्म को करने के केवल एक माध्यम मात्र हैं, कर्ता नहीं हैं | गोस्वामीजी मानस में कहते हैं –
मैं अरु मोर तोर तैं माया | जेहिं बस कीन्हें जीव निकाया ||
गो गोचर जहँ लगि मन जाई | सो सब माया जानेहु भाई ||
                            अरण्यकाण्ड -15/2-3
भगवान राम अपने अनुज लक्ष्मण को कह रहे हैं कि मैं और मेरा, तूं और तेरा – यही माया है; जिसने सभी जीवों को अपने वश में कर रखा है | इन्द्रियों के विषय और जहाँ तक मन जाता है, हे भाई ! उस सबको माया जानना |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

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