Monday, April 9, 2018

गीता-ज्ञान की सार्थकता - 37


गीता-ज्ञान की सार्थकता – 37
                  इस माया को जान लेने और फिर उसी अनुसार अपने जीवन को बना लेने से ही हम गीता-ज्ञान को सार्थक कर पाएंगे अन्यथा आवागमन के चक्र से मुक्त नहीं हो पाएंगे | माया के कारण ही हमारी कभी श्रद्धा बढ़ती है और कभी दुष्टता; कभी हम ज्ञान को मानने लगते हैं, फिर उसी ज्ञान पर संशय भी करने लगते है | हमारी स्थिति ऐसी हो जाती है जैसी एक धोबी के कुत्ते की होती है | आया के साथ आया, गए के साथ गया | ऐसे में यह आवागमन कैसे मिटे ? माया भगवान ने बनाई ही हमें उलझाने के लिए है | अगर हम सभी माया का उल्लंघन कर जाये तो फिर यह संसार कैसे अनवरत रूप से चलेगा ? इस माया में हम स्वयं ही जानबूझकर उलझते हैं | एक मृग को जब दोपहर में प्यास लगती हैं तब वह मृग-तृष्णा को देखकर दूर कहीं पानी होना समझकर उस और दौड़ पड़ता है परन्तु वहां पहुँचने पर उसे पानी मिलता नहीं है | जल के होने का भ्रम तो कहीं और आगे बढ़ चूका होता है | इस प्रकार का भ्रम ही तो व्यक्ति को इधर से उधर, उधर से इधर दौड़ता रहता है | यह माया ही मृग-तृष्णा है | हमें सब कुछ अपनी इच्छानुसार प्राप्त कर लेने का भ्रम होता है और हम किसी न किसी को और कुछ न कुछ पाने के लिए जीवन भर दौड़ते रहते हैं | एक जीवन, फिर दूसरा जीवन, ऐसे ही न जाने कितने जीवन, अनंत जीवन | फिर भी प्यास कम होने के स्थान पर बढ़ती ही जाती है | इस अनंत यात्रा में हम उलझते जाते हैं परन्तु हमें प्राप्त कुछ भी नहीं होता | जिस दिन हम इस माया को पूर्णरूप से समझ जायेंगे फिर इसमें नहीं उलझेंगे | हमारी दौड़ भी थम जाएगी |
                   माया को समझकर सभी विकारों से हम स्वयं को मुक्त रख सकते हैं | विकार-मुक्त जीवन ही आनंददायक होता है | शेष सभी सुख-दुःख केवल भ्रम जाल हैं, इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं है | हमें गीता-ज्ञान के अनुसार स्वयं को ही बदलना होगा तभी इस ज्ञान की सार्थकता होगी |
                 प्रश्न यह उठता है कि भगवान ने यह माया फिर बनाई ही किस लिए ? अगर माया नहीं होती तो यह संसार अस्तित्व ही नहीं लेता | अगर माया को समझकर सभी व्यक्ति इससे पार चले जाते तो फिर अब तक यह संसार कभी का समाप्त हो चूका होता | माया उस परम पिता ने बनाई ही इसलिए है कि वह देखना चाहता है कि कौन इस माया को समझकर इसमें उलझने से बच जाता है ? माया में उलझने से बचने का अर्थ है, मायातीत हो जाना जो कि साक्षात् परमात्मा हैं | पूरे एक वर्ष तक हम एक कक्षा में अध्ययन रत रहते हैं | वर्ष के अंत में एक परीक्षा होती है, जिसमें प्रश्न पत्र के माध्यम से कई प्रश्न पूछे जाते हैं | जो इन सब प्रश्नों का सही-सही उत्तर दे देता है, वह विद्यार्थी सर्वोत्तम सिद्ध होता है | वह परीक्षक के द्वारा पूछे जाने वाले घुमावदार प्रश्नों के जाल में नहीं उलझता बल्कि उन प्रश्नों को समझकर उनका उत्तर देकर उनसे बाहर निकल जाता है | यह माया भी ऐसे ही घुमावदार उलझाने वाले प्रश्नों की तरह एक प्रश्न-पत्र है | हमें इसको समझकर इस भौतिक जगत में अपना किरदार निभाते हुए इस माया रुपी संसार के पार चले जाना है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

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