Wednesday, April 4, 2018

गीता-ज्ञान की सार्थकता - 32


गीता-ज्ञान की सार्थकता – 32
                                 प्रारब्ध से मिलने वाले भोग और सुख को प्राप्त करने के लिए कर्म करने आवश्यक हैं | विषय-भोग को परमात्मा का प्रसाद मानकर त्याग पूर्वक भोगें और न तो उन भोगों के प्रति आसक्त हों जो हमें भाग्य से उपलब्ध हुए हैं और न ही उन कर्मों के प्रति आसक्त हों जो प्रारब्ध के कारण हमारे शरीर को करने पड़ रहे हैं | प्रारब्ध से मिलने वाले भोगों को भोग लेने के लिए किये जाने वाले कर्मों के अतिरिक्त भी अन्य कर्म करने को मनुष्य विवश है | ऐसा प्रत्येक कर्म नए जीवन के लिए प्रारब्ध बनाता है | ऐसे कर्मों को करने में हमारी भूमिका किस प्रकार की होनी चाहिए, यह सबसे अधिक महत्वपूर्ण है |  इसके लिए दो विकल्प हैं | प्रथम विकल्प है, ज्ञान का और दूसरा विकल्प है, भक्ति का | इसीलिए गीता में भगवान श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन को कर्म-योग को आधार बनाते हुए ज्ञान-योग और भक्ति योग कहा है | गीता में भगवान श्री कृष्ण द्वारा सर्वप्रथम कर्म-योग, उसके बाद ज्ञान योग और अंत में भक्ति और शरणागति को स्पष्ट किया गया है | श्री कृष्ण का उद्देश्य एक गृहस्थ को इस संसार में रहते हुए और कर्म करते हुए संन्यस्थ करने का था, जिससे वह कर्म करते हुए भी परमात्म-तत्व को पा सकें | संन्यासी होने का अर्थ संसार से भागकर जंगल में चले जाना नहीं है बल्कि कर्मों के प्रति आसक्त न होने से है अर्थात एक गृहस्थ का इस संसार में रह कर कर्म करते हुए संन्यासी बन जाना है |
            ब्रह्मलीन स्वामी श्री रामसुख दासजी महाराज ने इन तीनों योगों को बहुत ही अल्प शब्दों में स्पष्ट करते हुए कहा है कि आप जो भी कर्म कर रहे हो उन्हें संसार की सेवा में अर्पित कर दो (कर्म-योग) या उन कर्मों को प्रकृति में अर्पण कर दो (ज्ञान-योग) अथवा सभी किये जाने वाले कर्मों को परमात्मा के लिए करना मानो (भक्ति-योग) अर्थात सभी कर्मों को परमात्मा को समर्पित कर दो | इनसे कम शब्दों में कर्म-बंधन से मुक्त होने को स्पष्ट नहीं किया जा सकता | स्वामी जी की इस बात का सार यह है कि “कर्म हम अपने लिए नहीं कर रहे है, इस बात का सदैव ध्यान रखें | कर्म या तो संसार की सेवा के लिए हो रहे हैं या प्रकृति के अनुसार हो रहे हैं अथवा फिर परमात्मा के लिए किये जा रहे हैं |” जब कर्म हम स्वयं के लिए नहीं कर रहे हैं, इसका अर्थ यह हुआ कि हम कर्म के प्रति आसक्त भी नहीं है | जब कर्मासक्ति नहीं होगी तो कर्म-बंधन भी नहीं होगा | कर्म बंधन नहीं है तो कामादि विकार उत्पन्न होने का प्रश्न ही पैदा नहीं होगा | जब हमारे जीवन में कोई कर्म-बंधन ही नहीं है, इसका अर्थ है कि हम जीवन-मुक्त हैं |
                गीता-ज्ञान की सार्थकता जीवन-मुक्त होने में है | इस संसार में रहते हुए हम कर्म भी करेंगे और कर्मासक्त भी नहीं होंगे | इस प्रक्रिया में सबसे महत्वपूर्ण भक्ति है | भागवत में कहा गया है कि भक्ति के दो पुत्र हैं, ज्ञान और वैराग्य | जब व्यक्ति संसार के स्थान पर परमात्मा से प्रेम करने लगता है, उसका नाम ही भक्ति है | जब व्यक्ति में भक्ति का पदार्पण होता है, ज्ञान और वैराग्य दोनों भक्ति के पीछे-पीछे आ ही जायेंगे | ज्ञान का अर्थ है, बुद्धि का उपयोग करते हुए मन पर नियंत्रण करना | यह ज्ञान-योग हुआ | वैराग्य का अर्थ है, कर्म करने में राग का न होना अर्थात कर्मों के प्रति आसक्ति का न होना | यह कर्म-योग हुआ | एक गृहस्थ के जीवन में गीता की सार्थकता अधिक है क्योंकि इसमें समाहित ज्ञान हमें संसार में रहकर कर्म करते हुए भी परमात्मा तक ले जाने की क्षमता रखता है |
कल सार-संक्षेप
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

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