गीता-ज्ञान की सार्थकता – 30
विषय-भोग, विकार
(कामादि), कर्म, कर्म-फल और पुनः विषय-भोग भोगना, यह अटूट चक्र कैसे टूट सकता है ?
इस चक्र को तोड़ने के लिए हमें इसकी कमजोर कड़ी पर तीव्र प्रहार करना पड़ेगा | इस
चक्र की सबसे कमजोर कड़ी है-विकार | हम स्वयं के मन में विकार को बाहर निकल सकते
हैं और फिर पुनः प्रवेश करने से रोक सकते हैं | मुख्य विकार है-काम और मोह | सर्वप्रथम
हमें इन दोनों विकारों को बाहर निकाल फेंकने के लिए क्या करना होगा ? इसके लिए विकार
की मूल उत्पत्ति कैसे होती है, इसको जानना होगा | कर्म करने के कारण फल के रूप में
हमें विषय-भोग प्राप्त होते हैं और ये भोग हमारे भीतर विभिन्न विकारों (दोषों) को
जन्म देते हैं | अतः किसी भी विकार को उत्पन्न होने से रोकने के लिए हमें कर्म का
सहारा लेना पड़ेगा | कर्म का सहारा लेने के दो कारण है | प्रथम कारण, मनुष्य ही एक
मात्र ऐसी योनि है, जिसमें मनुष्य कर्म करने को स्वतन्त्र है यानि वह स्वयं की
इच्छानुसार कर्म कर सकता है | स्वयं की इच्छा को नियंत्रित कर हम कर्म का स्वरूप
परिवर्तित कर सकते हैं अर्थात सकाम कर्म के स्थान पर निष्काम कर्म कर सकते हैं | दूसरा
कारण, मनुष्य अपने जीवन में कभी भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता | इसलिए कर्म करने
को हम विवश है | ऐसा जीवन में कभी भी नहीं हो सकता कि हम किसी प्रकार का कर्म ही न
करें | अतः कर्म तो करने ही पड़ेंगे, तो फिर ऐसे कर्म क्यों न करें, जिससे हमारा जीवन
विकार-मुक्त जीवन बन सके |
हमने इस अटूट चक्र में से केवल विकार और कर्म को ही क्यों चुना, अन्य में विषय-भोग
को भी तो चुन सकते थे ? इसका कारण है कि जिस संसार में हम रहते हैं, उसमें विभिन्न
विषय प्रचुर मात्रा में भोग के लिए उपलब्ध हैं | अतः हम विषयों से किसी भी प्रकार
से दूर नहीं भाग सकते | जीवन में समय-समय पर इन विषयों से आमना-सामना होता रहेगा
ही | कामना को इसलिए नहीं चुना क्योंकि अपने जीवन में कोई भी व्यक्ति कामना को उठने
से रोक नहीं सकता | हाँ, कामनाओं पर नियंत्रण स्थापित लिया जा सकता है | इस जीवन
की वास्तविकता यही है कि मन में बिना किसी कामना के रहे इस जीवन की कल्पना नहीं की
जा सकती | सबसे महत्वपूर्ण बात, बिना कामना के हम आत्म-ज्ञान को भी उपलब्ध नहीं हो
सकते | अतः कामनाएं जीवन से बाहर नहीं हो सकती और न ही विषय बाहर हो सकते हैं |
इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि पूर्व मानव जीवन में की गयी
विषय-भोग की कामना इस जीवन में कर्म करते हुए भोग अवश्य ही उपलब्ध कराएगी ही | उन
भोगों को भोगे बिना आप कहीं पर भी भाग कर नहीं जा सकते | इसी सांसारिक सुख को
प्राप्त करने के लिए परमात्मा ने हमें ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ और मन दिया
है | मनुष्य भोगों से शारीरिक सुख प्राप्त करते हुए केवल एक कार्य अवश्य ही कर
सकता है | वह इन भोगों के प्रति आसक्त न हो | भोगों से आसक्ति तभी पैदा नहीं होगी
जब हम प्रारब्ध स्वरूप प्राप्त हो रहे भोगों को त्याग पूर्वक भोगें | त्याग पूर्वक
भोगने का आशय है कि प्रारब्ध स्वरूप मिले सुख को परमात्मा का प्रसाद मानते हुए उनको
ग्रहण करें परन्तु उन भोगों को पकडे नहीं, उनमें डूबे नहीं | भोगों से सुख लेना
किसी भी प्रकार अनुचित नहीं है परन्तु जब प्रारब्ध स्वरूप मिलने वाले सुख समाप्त
हो जाएँ, तब दुःखी न हो | दुःखी होना कामना को जन्म देगा और फिर पुनः वैसे ही सुख
प्राप्त करने के लिए हम कर्म के माध्यम से प्रयास करने लगेंगे | आपको ऐसा आभास
होगा कि आपके प्रयास एक न एक दिन अवश्य रंग लायेंगे और आप वैसे ही सुख पुनः प्राप्त
कर लेंगे जैसे सुख पूर्व में प्राप्त हुए थे | बस, यहाँ पर आकर स्थिति आपके जीवन
को एक तीव्र मोड़ दे देती है | आप इच्छानुसार कर्म अवश्य कर सकते हैं, इच्छानुसार
उनका फल प्राप्त नहीं कर सकते | यही इस मनुष्य जीवन की वास्तविकता है |
अभी
तक आप जीवन की वास्तविकता से अपरिचित हैं | काम और अर्थ केवल उतना ही इस जीवन में
प्राप्त होगा जितना उनको पाने के लिए आपने पूर्वजन्म में प्रयास किये थे, उससे
रत्ती भर भी अधिक अथवा कम नहीं | मनुष्य जीवन की वास्तविकता यह है कि आपको इस जीवन
में अपने प्रारब्ध (भाग्य) में लिखे से अधिक केवल धर्म और मोक्ष उपलब्ध हो सकता
है, काम और अर्थ नहीं |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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