Friday, April 6, 2018

गीता-ज्ञान की सार्थकता - 34


गीता-ज्ञान की सार्थकता – 34
                  ‘गीता-ज्ञान की सार्थकता’ पर कुछ प्रश्न आये हैं | इनमें से कुछ प्रश्न हम चर्चा के लिए लेंगे | अर्जुन जब गीता-ज्ञान को सार्थक नहीं कर सका तो हमारी स्थिति तो उनसे भी दयनीय है, हम इस ज्ञान को कैसे सार्थक कर पाएंगे ? गीता-ज्ञान एक ऐसी भूल-भूलैया है कि इसको साधारण व्यक्ति समझ ही नहीं पाता ? क्या मापदंड है, जिनसे हम समझ सकें कि हम सही चल रहे हैं ? आपने जो सरल-सहज राह बताई है, क्या उसका अनुपालन जीवनपर्यंत किया जा सकता है ? हम समस्त विकारों को बाहर निकाल बाहर कर देते है परन्तु वे फिर वापिस लौट आते हैं, क्यों ? इन विकारों को न वापिस न आने देने के क्या उपाय है ? ये कुछ प्रश्न हैं, जिनका उत्तर देना आवश्यक है | हालाँकि कुछ प्रश्नों के उत्तर इस श्रृंखला में आ गए हैं, फिर भी इनको पुनः और अधिक स्पष्ट करने का प्रयास करूँगा |
             सर्वप्रथम गीता के बारे में स्पष्ट कर दूँ कि यह किसी भी प्रकार की भूल-भूलैया नहीं है | अर्जुन के मानसिक स्तर में ज्यों-ज्यों ज्ञान पाकर सुधार होता गया, भगवान श्री कृष्ण उसे उच्च स्तर का ज्ञान देते चले गए | उदाहरण स्वरूप प्रारम्भ में श्री कृष्ण कहते हैं कि मैं सत भी हूँ और असत् भी मैं हूँ (गीता-9/11)| फिर कहते हैं, न मैं सत हूँ और न ही असत् हूँ (गीता-13/12)| मध्य में अर्जुन स्वीकार करता है कि आप सत और असत् दोनों से परे हैं (गीता-11/37)| तीनों बातें एक दूसरे से भिन्न लग सकती है परन्तु भिन्न नहीं है और  न ही यह भूल-भूलैया है | अर्जुन के मानसिक स्तर से कहते हुए दो बातें समझाई गयी है | शरीर(असत) भी मैं हूँ और सत(आत्मा) भी मैं हूँ | यह प्रारम्भिक स्तर की बात हुयी जब वह मोहग्रस्त था और अपने सगे-सम्बन्धियों को सामने देखकर विचलित हो गया था | उस समय भगवान ने उसके स्तर को देखते हुए कहा था कि परमात्मा अर्थात वे न तो शरीर है और न ही आत्मा अर्थात मैं न तो सत हूँ और न ही असत (गीता-9/11)| मध्य में जब अर्जुन का मानसिक स्तर में कुछ सुधार तब उसने स्वीकार किया कि परमात्मा सत और असत न होकर इन दोनों से परे हैं | अंत में भगवान ने उसे सत्यता बतला ही दी और कह दिया कि मैं असत(शरीर) भी नहीं हूँ और सत(आत्मा) भी नहीं हूँ | मैं इन दोनों से भी ऊपर (परमात्मा) हूँ | तीनों बातें एक ही हैं | परमात्मा के कारण ही शरीर और आत्मा का अस्तित्व लेना संभव हुआ है अतः शरीर(असत) और आत्मा (सत), दोनों ही परमात्मा के कारण होने से परमात्मा ही हुए | परन्तु दोनों अर्थात सत और असत मैं नहीं हूँ, कहने का आशय यह है कि सत और असत मेरे कारण अवश्य है परन्तु मैं वे दोनों ही नहीं हूँ | फिर प्रश्न यह उठता है कि आप आखिर हैं कौन ? इसका उत्तर देते हुए उन्होंने कहा है कि मैं इन दोनों, सत और असत से भी ऊपर हूँ | यह परे होना का अर्थ है, सत और असत उनके कारण से हैं परन्तु वे स्वयं सत और असत नहीं है बल्कि इन दोनों से ऊपर हैं | इस बात को और अधिक स्पष्ट रूप से समझने के लिए गीता के 15वें अध्याय के 16 और 17 सं. के श्लोक, श्री मद्भागवत महापुराण के दशम स्कंध के 82 वें अध्याय का 47 वां श्लोक तथा मुण्डकोपनिषद के तृतीय मुण्डक के प्रथम खंड के प्रथम व द्वितीय मन्त्र को गंभीरता से पढ़ें |
             इस प्रकार यह स्पष्ट है कि गीता एक भूल-भूलैया की तरह लगती अवश्य है परन्तु है नहीं | यह बार-बार अध्ययन करने और सत्संग से ही स्पष्ट होगी | एक सत-असत की बात ही नहीं, ऐसे एक दो उदाहरण और मिल जायेंगे जहां पर यूँ लगता है जैसे भ्रमित करने वाला ज्ञान है, यह | नहीं, भ्रमित बिलकुल नहीं करती गीता और  न ही भूल-भूलैया में भटकाती है | इसका ज्ञान एक दम स्पष्ट है | इसको सम्पूर्ण रूप से समझ जाने पर जो आत्मिक शांति मिलती है और जिस आनंद के सागर में आप उतरने लगोगे, वह गूंगे व्यक्ति की शर्करा है अर्थात उसका वर्णन नहीं किया जा सकता | आत्म-ज्ञान केवल अनुभव की बात है, न तो इसे कोई दे सकता है और न ही कोई इसे ले सकता है | इस ज्ञान को केवल अनुभव ही किया जा सकता है और इसका अनुभव होना गीता-ज्ञान को जीवन में उपयोग में लाये बिना संभव नहीं है | अब आते है, अगले प्रश्न पर जो कि बड़े महत्त्व का प्रश्न है और इस प्रश्न में प्रश्न-कर्ता की जिज्ञासा स्पष्ट रूप से समझ में आती है | प्रश्न है कि जब अर्जुन ही गीता-ज्ञान को सार्थक नहीं कर सका तो हम कैसे कर पाएंगे ?कल हम इसी प्रश्न पर आगे चर्चा करेंगे |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

No comments:

Post a Comment