Saturday, April 7, 2018

गीता-ज्ञान की सार्थकता - 35


गीता-ज्ञान की सार्थकता – 35
             हमारी आध्यात्मिक यात्रा में किसी प्रकार की प्रगति क्यों नहीं हो रही है ? ऐसा प्रश्न जब ब्रह्मलीन स्वामी श्री राम सुख दासजी महाराज से पूछा जाता तो वे एक दोहा सुनाया करते थे-
कुछ श्रद्धा कुछ दुष्टता, कुछ संशय कुछ ज्ञान |
घर का रहा न घाट का ज्यों धोबी का श्वान ||
            गीता-ज्ञान को अर्जुन पूर्ण रूप से सार्थक नहीं कर सका इसका कारण इस दोहे को समझने से कुछ सीमा तक समझ में आ जायेगा | हम भी तो अर्जुन की तरह ही हैं | हम गीता के प्रति श्रद्धा भाव तो रखते हैं परन्तु उस ज्ञान के अनुसार चलते नहीं है | हमें गीता से ज्ञान मिलता है, कुछ ज्ञान आत्मसात भी करते हैं और साथ ही कुछ संशय ग्रस्त भी रहते हैं | ऐसे में भला गीता-ज्ञान की क्या कमी है ? हम परमात्मा की सेवा, पूजा अर्चना सब कुछ मन लगाकर करते हैं परन्तु उसी परमात्मा के बनाये और बताये हुए सिद्धांतों का अनुगमन करने के प्रति सदैव संशयग्रस्त बने रहते हैं | हमें लगता है कि गीता-ज्ञान अलग बात है, उस ज्ञान के अनुसार इस संसार में रहकर जीवन चलाना मुश्किल है | हमारी सोच ही कुछ इस प्रकार की हो गयी है कि हम मानने लगे हैं कि संसार में रहना केवल संसार के अनुसार चलने से ही संभव है | मैं बिलकुल भी सहमत नहीं हूँ इस बात से | गीता-ज्ञान एक व्यावहारिक ज्ञान है और इसे व्यवहार में लाए जाने से ही आनंद की अनुभूति होगी | हमने इस ज्ञान को अब तक केवल एक किताबी ज्ञान बना रखा है, इस ज्ञान को जीवन में उतारने का प्रयास तक नहीं किया है हमने | अतः सभी प्रकार के संशय छोडिये और इस ज्ञान को एक-एक कर जीवन में उतारना प्रारंभ कीजिये | विज्ञान की पुस्तकों में लिखा है कि प्रत्येक क्रिया के विरुद्ध एक प्रतिक्रिया अवश्य और उसी अनुपात में होती है | इसी बात को सनातन शास्त्र शताब्दियों से कहते आ रहे हैं कि प्रत्येक कर्म का उसी अनुपात में फल अवश्य प्राप्त होता है | हमारी प्रत्येक क्रिया ही कर्म है | हम शताब्दियों तक इस बात को पढ़ते आये हैं परन्तु व्यवहार में नहीं ला सके | जिस एक व्यक्ति ने इस ज्ञान को भौतिक रूप से व्यवहार में लिया, तो उसने इस ज्ञान का उपयोग करते हुए रॉकेट बना डाला जिसके कारण आज अंतरिक्ष की यात्रा संभव हुई है | इसी ज्ञान का आध्यात्मिक स्तर पर उपयोग किया जाये तो व्यक्ति का कल्याण हो जाये |
              ज्ञान को केवल रटते रहने से कुछ नहीं होने वाला | रटते रहने से ही ज्ञान अगर सार्थक होता तो राम-राम रटते रहने वाला तोता कभी का जीवन-मुक्त हो गया होता | हमें गीता के प्रति श्रद्धा रखने के साथ-साथ उसमें समाहित ज्ञान को जीवन में उतारकर उपयोगी बनाना होगा तभी यह ज्ञान सार्थक सिद्ध होगा | कृषि-भूमि चाहे कितनी ही उपजाऊ हो, उस पर हल चलाने से ही उपज मिल सकती है अन्यथा केवल उसे बैठे –बैठे उस भूमि को निहारते रहिये | हम गीता को उपजाऊ भूमि मानते अवश्य हैं परन्तु उसमें समाहित ज्ञान को हल चलाकर उसका दोहन करना नहीं चाहते |
                   आपका प्रश्न उचित ही है कि समस्त ज्ञान भी अर्जुन को मुक्त नहीं कर सका, फिर हमें कैसे मुक्त करेगा ? भगवान श्री कृष्ण ने गीता में अर्जुन को कर्म और ज्ञान योग कहने के बाद भक्ति और शरणागति पर जाने से पहले एक बहुत महत्वपूर्ण बात कही है | गीता 7/14 में भगवान ने कहा है कि मेरी यह माया बड़ी दुस्तर है अर्थात मेरी माया को समझना और इससे पार हो जाना बड़ा कठिन है | इस माया के कारण ही हम गीता-ज्ञान को ग्रहण करके भी उसको बार-बार भूल जाते हैं | यह सब उस माया का ही प्रभाव है | अगर हम इस त्रिगुणी माया को भली भांति समझ लें तो तीनों गुणों का उल्लंघन कर गुणातीत हो सकते हैं | अर्जुन भी इस ज्ञान को पाकर सत्व गुण की अवस्था तक पहुँच गया था परन्तु गुणातीत नहीं हो सका क्योंकि वह परमात्मा के साथ रहते हुए भी उसकी इस माया से स्वयं को मुक्त नहीं कर पाया था | वह कुछ समय के लिए माया-जाल से निकलता और कुछ समय बाद पुनः उसी माया में उलझ जाता | उसके साथ ऐसा क्यों हुआ ऐसा ? कारण- मोह और अहंकार | मोह, परिवार का, अहंकार अपने आपको कर्ता मानने का | यह दो विकार ही हमें अर्जुन की तरह बार-बार गीता-ज्ञान से दूर ले जाते हैं और पुनः सांसारिक मोह-माया में उलझा देते हैं |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

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