Monday, April 2, 2018

गीता-ज्ञान की सार्थकता - 31


गीता –ज्ञान की सार्थकता – 31
                   विषय-भोग मनुष्य को शारीरिक सुख प्रदान करते हैं | सुख की अधिक से अधिक कामना रखना ही सबसे बड़ा विकार है | इन विकारों को मन के भीतर प्रवेश करने व पलते रहने से बचने का क्या उपाय है ? आज के इस आधुनिक युग में जहाँ प्रत्येक वस्तु, व्यक्ति, साधन और व्यवस्था प्रतिपल बदल रहे हैं, वहां इन सुखों के पीछे दौड़ते रहना कोई बुद्धिमानी नहीं है | हरिः शरणम् आश्रम, हरिद्वार के आचार्य गोविन्द राम शर्मा इस सम्बन्ध में एक दृष्टान्त सुनाते हैं | एक बार गाँव के ठाकुर ने अपने पास जमीन पाने की कामना लिए आये एक व्यक्ति को कह दिया कि आज सूर्यास्त से पहले तुम जितनी जमीन को अपने कदमों से नाप लोगे, उतनी जमीन तुम्हें दे दूंगा | इतना सुनते ही वह व्यक्ति जमीन नापने को दौड़ पड़ा | जरा सा भी विलम्ब करना उसको उचित नहीं लगा | वह बिना विश्राम किये लगातार दौड़ता रहा | दोपहर हुई परन्तु वह नहीं रुका | थक कर चूर-चूर हो रहा था परन्तु उसकी दौड़ समाप्त नहीं हुई | सूरज उसके सिर पर तेज चमकता हुआ अपनी गर्मी से उसे और अधिक थका रहा था परन्तु वह व्यक्ति कहाँ रुकने वाला था | वह क्षण भर के लिए भी विश्राम किये बिना लगातार दौड़ता जा रहा था | उसे अभी भी अपने द्वारा नापी  गयी जमीन बहुत ही कम प्रतीत हो रही थी | थोड़ी देर में शाम भी उतरने लगी | लगातार दौड़ते-दौड़ते वह व्यक्ति अब बुरी तरह से थक चूका था | उसने ऊपर आसमान पर दृष्टि डाली | देखा, सूर्यास्त होने में अभी भी कुछ समय शेष था | उसने अपनी बची-खुची शक्ति बटोरी और पूरे जोश से दौड़ लगा दी | आखिर शरीर की शक्ति की भी एक सीमा होती है | अंततः उसकी शारीरिक शक्ति ने उसका साथ छोड़ दिया | वह गश खाकर जमीन पर गिर पड़ा | अपने घोड़े पर सवार हुआ ठाकुर उसके पीछे-पीछे चला आ रहा था |
                      ठाकुर ने जब उसको जमीन पर थककर गिरते हुए देखा, तो तुरंत अपने घोड़े पर से उतरकर उस व्यक्ति तक पहुंचा | उसने देखा कि जमीन पर गिरे व्यक्ति के प्राण पखेरू उड़ चुके हैं | दिन भर उस साधारण से व्यक्ति ने दौड़ते हुए कई मील जमीन नाप डाली थी परन्तु वास्तव में उसे केवल छः फिट जमीन चाहिए थी, जिस पर वह अभी मृतावस्था में पड़ा था |  उसकी असंतुष्टि ने उसकी जान ले ली थी | उसकी इस प्रवृति ने कि जो अब तक मिला है, वह अपर्याप्त है, उसे मार डाला था | यह है, लोभ प्रवृति |
                         लोभ काम को पैदा करता है और काम लोभ को | अतः हमें सर्वप्रथम लोभ से दूर रहने के लिए संतोष धारण करना होगा | परमात्मा ने प्रारब्ध स्वरूप हमें जितना दिया है वह बहुत है, पर्याप्त है; यही संतोष है | संतोष धारण करने के लिए किसी प्रकार का विशेष प्रयास नहीं करना पड़ता | संतोष की अवस्था को उपलब्ध होने के लिए न ज्ञान चाहिए, न भक्ति | जीवन में संतोष के पदार्पण के साथ ही भक्ति स्वतः ही प्रवेश पा लेती है | ब्रह्मलीन स्वामी रामसुख दासजी महाराज कहा करते थे-
दौड़ सके तो दौड़ ले जब लगि तेरी दौड़ |
दौड़ थक्या धोखा मिट्या, वस्तु ठौड़ की ठौड़ ||
            हमारे जीवन की यही वास्तविकता है, इससे हम मुंह नहीं मोड़ सकते | एक न एक दिन इसको स्वीकार करना ही होगा, तो फिर अभी क्यों नहीं स्वीकार कर लेते ? संतोषी सदा सुखी |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

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