गीता-ज्ञान की सार्थकता – 33
सार-संक्षेप –
एक
गृहस्थ को अपने जीवन कैसे जीना चाहिए, यह बात हमें गीता से अधिक अच्छे तरीके से
कोई अन्य समझा नहीं सकता | हम अपने मन की शुद्धि के लिए न जाने कितने प्रपंच करते रहते
हैं | निरुद्देश्य भटकते रहते हैं और जीवन का संध्या-काल आ जाता है और मन की
अशांति मिट नहीं पाती | गीता मन को शांत करने का सुगम मार्ग बताती है | मनुष्य जीवन
में इस भौतिक शरीर से कर्म होंगे ही | सकाम कर्म विकारों के जनक हैं और विषय-भोगों
अर्थात सांसारिक सुख प्राप्त करने की इच्छा से किये जाते हैं | हम अपने जीवन में
यह तो इच्छा रखते हैं कि परमात्मा हमें सभी दोषों और विकारों से मुक्त रखे परन्तु
कर्म ऐसे करते हैं और इस प्रकार के करते हैं कि विकारों का त्याग न होकर दिन
प्रतिदिन उनमें वृद्धि ही होती जाती है | ऐसी स्थिति में हमें अपने कर्मों के स्वरूप
के बारे में गंभीरता से विचार करना होगा | कर्मों के स्वरूप में परिवर्तन करके ही हम
समस्त विकारों से दूर हो सकते हैं | यही कर्म-योग है और इस कर्म-योग को साधने का
सर्वोत्तम मार्ग है, भक्ति और ज्ञान | ज्ञान इस बात का सदैव बना रहे कि कर्म हम नहीं
करते है बल्कि प्रकृति के गुणों के द्वारा ही होते हैं | जिस दिन हमें इस बात का
ज्ञान हो जायेगा तो हम स्वयं को किसी भी कर्म का कर्ता नहीं मानेंगे | कर्ता-भाव रखना
ही समस्त विकारों की जड़ है |
अब प्रश्न यह है कि हम विकार से मुक्त एक बार तो हो जाते हैं परन्तु वही
विकार हमारे भीतर पुनः प्रवेश पा जाता है | मोह ही ऐसा विकार है, जो मन के बाहर
भीतर होता रहता है | इसका कारण है कि हमें अभी तक कर्म का विज्ञान पूर्ण रूप से
समझ में नहीं आया है | जब तक कर्म-विज्ञान पूर्ण रूप से समझ में नहीं आएगा तब तक
विकार बार-बार आते जाते रहेंगे | ज्ञान जब आत्मसात नहीं हो सके तो अपने आप को
परमात्मा को समर्पित कर दें | संसार से प्रेम करने के स्थान पर परमात्मा से प्रेम
करें | इससे आपका कर्ता-भाव भी समाप्त हो जायेगा और आपको ज्ञान भी प्राप्त हो
जायेगा | इसीलिए भक्ति-योग को ज्ञान-योग से श्रेष्ठ बताया गया है | भक्ति योग से
आपके भीतर के कामादि सभी विकार चले जायेंगे और आप परम शांति को उपलब्ध हो जायेंगे |
गीता-ज्ञान की सार्थकता को मैंने अल्प रूप से समझाने का प्रयास किया है |
मैं जानता हूँ कि गीता की सार्थकता को शब्दों के एक निश्चित क्षेत्र में बाँध पाना
असंभव है फिर भी एक प्रयास किया है | इस श्रृंखला में गीता-ज्ञान की सार्थकता
बतलाने के लिए केवल ‘विकार’ विषय को ही केंद्र बिंदु बनाया है | अन्य कई क्षेत्रों
और विषयों में भी इस ज्ञान की सार्थकता है | विभिन्न क्षेत्रों में गीता-ज्ञान की
सार्थकता पर भविष्य में विचार करेंगे | आप सभी पाठकों का साथ बने रहने के लिए आभार
|
पुनश्च -आज इस श्रृंखला का समापन होना था परन्तु इस विषय से
सम्बंधित कुछ प्रश्न आये हैं, जिनमें से दो महानुभावों के प्रश्न बड़े महत्वपूर्ण
है और जिनका उत्तर देना गीता-ज्ञान को और अधिक स्पष्ट करेगा, ऐसा मेरा मानना है |
वैसे इनके उत्तर इस श्रृंखला में लगभग आ गये है परन्तु हो सकता है कि मैं उनको
स्पष्ट रूप से समझा नहीं पाया हूँ | अतः इस श्रृंखला को कुछ समय के लिए और आगे
बढ़ाना आवश्यक समझा गया है | कृपया साथ बने रहें, आभार |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
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