विशाखापत्तनम से भाई श्री सत्यव्रत जी का एक प्रश्न आया है-
कोई मनुष्य कामना क्रोध विकार के वशीभूत कोई अपराध कर दे तो न्यायालय उसे सजा देता है तो क्या ईश्वर उसे उसके दुष्कर्म की फिर सजा देंगे ?
इस प्रश्न में महत्वपूर्ण बात यह है कि इस संसार, इस देश और यहाँ के संविधान के अनुसार न्यायालय जो कुछ भी सज़ा देता है वह एक मानव निर्मित विधान के अंतर्गत देता है | इसमें कई आयाम सम्मिलित होते हैं | बहुधा अपराधी अपने आर्थिक प्रभाव से गवाहों आदि को प्रभावित कर सज़ा से बच निकलते हैं और कुछ ही अपराधियों को सज़ा मिल पाती है | इस सज़ा के बाद भी क्या ईश्वर उसे, उसी दुष्कर्म की फिर सज़ा देंगे ? मूल प्रश्न यही है |
आपको एक बात स्पष्ट कर दूँ कि ईश्वर किसी को भी किसी प्रकार की सज़ा नहीं देता | वे बड़े दयालु हैं | सज़ा देते हैं, हमारे अपने द्वारा किये गए कर्म | कर्म-विज्ञान यह कहता है कि जैसा आप करोगे वैसा ही आप फल भोगेंगे, जैसा आप बोओगे वैसा ही आपको काटना पड़ेगा | कर्म और उसका फल प्रकृति का विधान है | परमात्मा ने प्रकृति को बनाया है और फिर प्रकृति ने अपना विस्तार त्रिगुणी व्यवस्था स्थापित करके किया | इस त्रिगुणी व्यवस्था के अनुसार कर्म किये जाते हैं अथवा होते हैं | फिर इन कर्मों का फल व्यक्ति को भोगना पड़ता है | इसमें किसी प्रकार का परिवर्तन प्रकृति नहीं करती | संसार के न्यायालय से सज़ा का प्रकृति के न्याय से कोई सम्बन्ध नहीं है | अतः कहा जा सकता है कि यहाँ मिली सज़ा के बाद भी प्रकृति का न्याय होकर रहेगा यह निश्चित है |
इस सज़ा में परिवर्तन करने का अधिकार अर्थात प्रकृति के न्याय में हस्तक्षेप करने का अधिकार केवल परमात्मा के पास है | भागवत में नरसिंह भगवान भक्त प्रह्लाद को कहते हैं, ”भोगेन पुण्यं कुशलेन पापम्” अर्थात किये गए पुण्य के फल तो भुगतने ही पड़ेंगे परन्तु किये गए पाप के फल की तीव्रता कम की जा सकती है | गोस्वामीजी मानस में कहते हैं – ‘सन्मुख होहि जीव मोहि जबहीं | जनम कोटि अघ नासहिं तबहीं ||’ अर्थात परमात्मा के भजन में लगकर पापों को नष्ट किया जा सकता है | महर्षि वाल्मीकि और अजामिल इसके उदाहरण हैं |
सारांश यह है कि न तो यहाँ की न्याय व्यवस्था के अनुसार प्रकृति न्याय करती है और न ही प्राकृतिक न्याय को प्रकृति स्वयं परिवर्तित कर सकती है | दुष्कर्म की सज़ा संसार का न्यायालय कम दे अथवा अधिक, केवल परमात्मा के मार्ग पर चले जाने से ही उस दुष्कर्म से मिलने वाली सज़ा की तीव्रता को कम किया जा सकता है अन्यथा प्रकृति तो अपने स्तर पर न्याय करेगी ही |
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
कोई मनुष्य कामना क्रोध विकार के वशीभूत कोई अपराध कर दे तो न्यायालय उसे सजा देता है तो क्या ईश्वर उसे उसके दुष्कर्म की फिर सजा देंगे ?
इस प्रश्न में महत्वपूर्ण बात यह है कि इस संसार, इस देश और यहाँ के संविधान के अनुसार न्यायालय जो कुछ भी सज़ा देता है वह एक मानव निर्मित विधान के अंतर्गत देता है | इसमें कई आयाम सम्मिलित होते हैं | बहुधा अपराधी अपने आर्थिक प्रभाव से गवाहों आदि को प्रभावित कर सज़ा से बच निकलते हैं और कुछ ही अपराधियों को सज़ा मिल पाती है | इस सज़ा के बाद भी क्या ईश्वर उसे, उसी दुष्कर्म की फिर सज़ा देंगे ? मूल प्रश्न यही है |
आपको एक बात स्पष्ट कर दूँ कि ईश्वर किसी को भी किसी प्रकार की सज़ा नहीं देता | वे बड़े दयालु हैं | सज़ा देते हैं, हमारे अपने द्वारा किये गए कर्म | कर्म-विज्ञान यह कहता है कि जैसा आप करोगे वैसा ही आप फल भोगेंगे, जैसा आप बोओगे वैसा ही आपको काटना पड़ेगा | कर्म और उसका फल प्रकृति का विधान है | परमात्मा ने प्रकृति को बनाया है और फिर प्रकृति ने अपना विस्तार त्रिगुणी व्यवस्था स्थापित करके किया | इस त्रिगुणी व्यवस्था के अनुसार कर्म किये जाते हैं अथवा होते हैं | फिर इन कर्मों का फल व्यक्ति को भोगना पड़ता है | इसमें किसी प्रकार का परिवर्तन प्रकृति नहीं करती | संसार के न्यायालय से सज़ा का प्रकृति के न्याय से कोई सम्बन्ध नहीं है | अतः कहा जा सकता है कि यहाँ मिली सज़ा के बाद भी प्रकृति का न्याय होकर रहेगा यह निश्चित है |
इस सज़ा में परिवर्तन करने का अधिकार अर्थात प्रकृति के न्याय में हस्तक्षेप करने का अधिकार केवल परमात्मा के पास है | भागवत में नरसिंह भगवान भक्त प्रह्लाद को कहते हैं, ”भोगेन पुण्यं कुशलेन पापम्” अर्थात किये गए पुण्य के फल तो भुगतने ही पड़ेंगे परन्तु किये गए पाप के फल की तीव्रता कम की जा सकती है | गोस्वामीजी मानस में कहते हैं – ‘सन्मुख होहि जीव मोहि जबहीं | जनम कोटि अघ नासहिं तबहीं ||’ अर्थात परमात्मा के भजन में लगकर पापों को नष्ट किया जा सकता है | महर्षि वाल्मीकि और अजामिल इसके उदाहरण हैं |
सारांश यह है कि न तो यहाँ की न्याय व्यवस्था के अनुसार प्रकृति न्याय करती है और न ही प्राकृतिक न्याय को प्रकृति स्वयं परिवर्तित कर सकती है | दुष्कर्म की सज़ा संसार का न्यायालय कम दे अथवा अधिक, केवल परमात्मा के मार्ग पर चले जाने से ही उस दुष्कर्म से मिलने वाली सज़ा की तीव्रता को कम किया जा सकता है अन्यथा प्रकृति तो अपने स्तर पर न्याय करेगी ही |
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||