Wednesday, April 11, 2018

एक प्रश्न....

विशाखापत्तनम से भाई श्री सत्यव्रत जी का एक प्रश्न आया है-
कोई मनुष्य कामना क्रोध विकार के वशीभूत कोई अपराध कर दे तो न्यायालय उसे सजा देता है तो क्या ईश्वर उसे उसके दुष्कर्म की फिर सजा देंगे ?
इस प्रश्न में महत्वपूर्ण बात यह है कि इस संसार, इस देश और यहाँ के संविधान के अनुसार न्यायालय जो कुछ भी सज़ा देता है वह एक मानव निर्मित विधान के अंतर्गत देता है | इसमें कई आयाम सम्मिलित होते हैं | बहुधा अपराधी अपने आर्थिक प्रभाव से गवाहों आदि को प्रभावित कर सज़ा से बच निकलते हैं और कुछ ही अपराधियों को सज़ा मिल पाती है | इस सज़ा के बाद भी क्या ईश्वर उसे, उसी दुष्कर्म की फिर सज़ा देंगे ? मूल प्रश्न यही है |
आपको एक बात स्पष्ट कर दूँ कि ईश्वर किसी को भी किसी प्रकार की सज़ा नहीं देता | वे बड़े दयालु हैं | सज़ा देते हैं, हमारे अपने द्वारा किये गए कर्म | कर्म-विज्ञान यह कहता है कि जैसा आप करोगे वैसा ही आप फल भोगेंगे, जैसा आप बोओगे वैसा ही आपको काटना पड़ेगा | कर्म और उसका फल प्रकृति का विधान है | परमात्मा ने प्रकृति को बनाया है और फिर प्रकृति ने अपना विस्तार त्रिगुणी व्यवस्था स्थापित करके किया | इस त्रिगुणी व्यवस्था के अनुसार कर्म किये जाते हैं अथवा होते हैं | फिर इन कर्मों का फल व्यक्ति को भोगना पड़ता है | इसमें किसी प्रकार का परिवर्तन प्रकृति नहीं करती | संसार के न्यायालय से सज़ा का प्रकृति के न्याय से कोई सम्बन्ध नहीं है | अतः कहा जा सकता है कि यहाँ मिली सज़ा के बाद भी प्रकृति का न्याय होकर रहेगा यह निश्चित है |
इस सज़ा में परिवर्तन करने का अधिकार अर्थात प्रकृति के न्याय में हस्तक्षेप करने का अधिकार केवल परमात्मा के पास है | भागवत में नरसिंह भगवान भक्त प्रह्लाद को कहते हैं, ”भोगेन पुण्यं कुशलेन पापम्” अर्थात किये गए पुण्य के फल तो भुगतने ही पड़ेंगे परन्तु किये गए पाप के फल की तीव्रता कम की जा सकती है | गोस्वामीजी मानस में कहते हैं – ‘सन्मुख होहि जीव मोहि जबहीं | जनम कोटि अघ नासहिं तबहीं ||’ अर्थात परमात्मा के भजन में लगकर पापों को नष्ट किया जा सकता है | महर्षि वाल्मीकि और अजामिल इसके उदाहरण हैं |
सारांश यह है कि न तो यहाँ की न्याय व्यवस्था के अनुसार प्रकृति न्याय करती है और न ही प्राकृतिक न्याय को प्रकृति स्वयं परिवर्तित कर सकती है | दुष्कर्म की सज़ा संसार का न्यायालय कम दे अथवा अधिक, केवल परमात्मा के मार्ग पर चले जाने से ही उस दुष्कर्म से मिलने वाली सज़ा की तीव्रता को कम किया जा सकता है अन्यथा प्रकृति तो अपने स्तर पर न्याय करेगी ही |
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Tuesday, April 10, 2018

गीता-ज्ञान की सार्थकता - 38 (समापन कड़ी) -


गीता-ज्ञान की सार्थकता – 38 (समापन कड़ी)-
                अगला प्रश्न है कि क्या मापदंड हो जिससे समझ सकें कि आध्यात्मिकता के मार्ग पर हम सही चल रहे हैं ? आपको सदैव अपने भीतर जन्म ले रहे विकारों पर पैनी दृष्टि रखनी होगी | क्रोध आता है, तो क्रोध को ध्यान से देखें | पता लगाओ कि क्रोध किस कामना के पूरा न होने से आया है | उस कामना का विश्लेषण करो कि क्या आपकी यह कामना शुभ थी अथवा अशुभ | अशुभ कामना है तो भविष्य में ऐसी कामना न करें ही नहीं और शुभ कामना है तो यह समझें कि जिस व्यक्ति पर क्रोध आया है, वह आपकी शुभ कामना को सही रूप से समझ नहीं पाया है | इस क्रोध से आपका ही नुकसान हो रहा है, सामने वाले का नहीं | इस प्रकार के क्रोध को करने से क्या लाभ ? धीरे-धीरे आप देखेंगे कि आपका क्रोध कम हो रहा है, उसकी आवृति और तीव्रता दोनों ही कम होती जा रही है | कामनाओं पर भी नियंत्रण स्थापित होता जा रहा है | इस प्रक्रिया के सतत चलते रहने से धीरे-धीरे दूसरे दोष और विकारों से भी आप मुक्त होते चले जायेंगे | प्रारम्भ में कुछ असुविधा हो सकती है, परन्तु धैर्य के साथ ऐसा करते रहेंगे तो विकारों से दूर रहने में सफलता मिलने लगेगी | इस प्रकार आप अपनी स्वयं की प्रगति का आकलन कर सकते हैं |
                            अगला प्रश्न है कि आपने जो सहज सरल राह बतलाई है, क्या उसका पालन जीवन पर्यंत किया जा सकता है ? मैं बड़ी विनम्रता के साथ कहना चाहता हूँ कि मैंने स्वयं के स्तर पर कोई राह नहीं सुझाई है बल्कि विभिन्न धर्म ग्रंथ विशेष रूप से गीता को पढ़कर यह राह जो कुछ मेरे समझ में आई है वह आपके साथ साझा की है | मैं स्वयं अभी भी इस राह पर चलने का प्रयास कर रहा हूँ और मैंने पाया है कि मेरा जीवन इन विकारों से धीरे-धीरे मुक्त हो रहा है और एक आनंद की अनुभूति मैं स्वयं के भीतर कर रहा हूँ | यह राह परमात्मा की राह है और इसका अनुगमन जीवन पर्यंत करने से ही आनंद की अवस्था को उपलब्ध हुआ जा सकता है | इसका अनुपालन करने की मन में इच्छा होनी चाहिए, फिर जीवन में कुछ भी असंभव नहीं है |
                    एक प्रश्न और - भारतीय संविधान की धाराओं में दंड का प्रावधान भी है और बचने की धाराएँ भी हैं | ऐसा घुमावदार जीवन न हो ? संविधान मानव निर्मित और परिवर्तनीय है | गीता-ज्ञान शाश्वत ज्ञान है, संविधान से इसकी तुलना नहीं की जा सकती | संविधान में विभिन्न धाराएँ हम मनुष्यों के द्वारा डाली गयी हैं | इनमें हमारा निजी स्वार्थ अथवा दुष्टता जुड़ी हो सकती है | भगवान द्वारा दिए गए गीता-ज्ञान में ऐसा नहीं हैं | हाँ, अगर हमारा स्वार्थ हो अथवा हमारे भीतर दुष्टता प्रवेश कर जाये तो हम उस ज्ञान की व्याख्या अपने स्वार्थ के अनुसार कर लेते हैं | अनुचित व्याख्या सदैव अनुचित ही रहेगी | गीता-ज्ञान सत्य का ज्ञान है इसको कितना भी मोड़ने तोड़ने का प्रयास करें, सत्य कभी भी बदल नहीं सकता | गीता-ज्ञान का अनुसरण करने से जीवन घुमावदार नहीं हो सकता बल्कि उलझा हुआ घुमावदार जीवन भी  सीधा-सादा और सरल हो जायेगा |
                      अंत में एक बहिन जी का प्रश्न ले लेते हैं | प्रश्न है कि मोह आदि विकार चला जाता है परन्तु पुनः लौट आता है, ऐसे में क्या करना चाहिए जिससे कि विकार वापिस नहीं आये ? अगर बाहर किया हुआ विकार वापिस लौट आता है इसका एक ही अर्थ है कि विकार का त्याग मन से नहीं किया गया था बल्कि यह एक सम सामयिक किया गया त्याग था, जिसे साधारण भाषा में मसानिया वैराग (किसी मृतक की अंत्येष्टि में जाने से उत्पन्न हुआ वैराग्य ) कहा जाता है | जीवन में विषम परिस्थितियां बन जाने पर हम एक बार उस विकार को त्याग तो देते है परन्तु बार-बार विषय-चिंतन से वह विकार पुनः लौट आता है | विकारों के इस आवागमन को रोकने का एक मात्र उपाय है, समस्त विषयों के प्रति अनासक्त हो जाना | विषय-भोग उपलब्ध हुए  तो अच्छा  नहीं मिल पाए तो भी ठीक | न विषयों के प्रति आसक्ति और न ही इनसे विरक्ति | ऐसे में अनासक्ति ही एक मात्र उपाय है, विकारों को नियंत्रित करने के लिए |
               मैंने अपने विवेक से कुछ प्रश्नों के उत्तर देने का प्रयास किया है | फिर भी कुछ शेष रह गया हो, तो सत्संग के माध्यम से जानने और समझने का प्रयास करें | आप सभी का आभार |  
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Monday, April 9, 2018

गीता-ज्ञान की सार्थकता - 37


गीता-ज्ञान की सार्थकता – 37
                  इस माया को जान लेने और फिर उसी अनुसार अपने जीवन को बना लेने से ही हम गीता-ज्ञान को सार्थक कर पाएंगे अन्यथा आवागमन के चक्र से मुक्त नहीं हो पाएंगे | माया के कारण ही हमारी कभी श्रद्धा बढ़ती है और कभी दुष्टता; कभी हम ज्ञान को मानने लगते हैं, फिर उसी ज्ञान पर संशय भी करने लगते है | हमारी स्थिति ऐसी हो जाती है जैसी एक धोबी के कुत्ते की होती है | आया के साथ आया, गए के साथ गया | ऐसे में यह आवागमन कैसे मिटे ? माया भगवान ने बनाई ही हमें उलझाने के लिए है | अगर हम सभी माया का उल्लंघन कर जाये तो फिर यह संसार कैसे अनवरत रूप से चलेगा ? इस माया में हम स्वयं ही जानबूझकर उलझते हैं | एक मृग को जब दोपहर में प्यास लगती हैं तब वह मृग-तृष्णा को देखकर दूर कहीं पानी होना समझकर उस और दौड़ पड़ता है परन्तु वहां पहुँचने पर उसे पानी मिलता नहीं है | जल के होने का भ्रम तो कहीं और आगे बढ़ चूका होता है | इस प्रकार का भ्रम ही तो व्यक्ति को इधर से उधर, उधर से इधर दौड़ता रहता है | यह माया ही मृग-तृष्णा है | हमें सब कुछ अपनी इच्छानुसार प्राप्त कर लेने का भ्रम होता है और हम किसी न किसी को और कुछ न कुछ पाने के लिए जीवन भर दौड़ते रहते हैं | एक जीवन, फिर दूसरा जीवन, ऐसे ही न जाने कितने जीवन, अनंत जीवन | फिर भी प्यास कम होने के स्थान पर बढ़ती ही जाती है | इस अनंत यात्रा में हम उलझते जाते हैं परन्तु हमें प्राप्त कुछ भी नहीं होता | जिस दिन हम इस माया को पूर्णरूप से समझ जायेंगे फिर इसमें नहीं उलझेंगे | हमारी दौड़ भी थम जाएगी |
                   माया को समझकर सभी विकारों से हम स्वयं को मुक्त रख सकते हैं | विकार-मुक्त जीवन ही आनंददायक होता है | शेष सभी सुख-दुःख केवल भ्रम जाल हैं, इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं है | हमें गीता-ज्ञान के अनुसार स्वयं को ही बदलना होगा तभी इस ज्ञान की सार्थकता होगी |
                 प्रश्न यह उठता है कि भगवान ने यह माया फिर बनाई ही किस लिए ? अगर माया नहीं होती तो यह संसार अस्तित्व ही नहीं लेता | अगर माया को समझकर सभी व्यक्ति इससे पार चले जाते तो फिर अब तक यह संसार कभी का समाप्त हो चूका होता | माया उस परम पिता ने बनाई ही इसलिए है कि वह देखना चाहता है कि कौन इस माया को समझकर इसमें उलझने से बच जाता है ? माया में उलझने से बचने का अर्थ है, मायातीत हो जाना जो कि साक्षात् परमात्मा हैं | पूरे एक वर्ष तक हम एक कक्षा में अध्ययन रत रहते हैं | वर्ष के अंत में एक परीक्षा होती है, जिसमें प्रश्न पत्र के माध्यम से कई प्रश्न पूछे जाते हैं | जो इन सब प्रश्नों का सही-सही उत्तर दे देता है, वह विद्यार्थी सर्वोत्तम सिद्ध होता है | वह परीक्षक के द्वारा पूछे जाने वाले घुमावदार प्रश्नों के जाल में नहीं उलझता बल्कि उन प्रश्नों को समझकर उनका उत्तर देकर उनसे बाहर निकल जाता है | यह माया भी ऐसे ही घुमावदार उलझाने वाले प्रश्नों की तरह एक प्रश्न-पत्र है | हमें इसको समझकर इस भौतिक जगत में अपना किरदार निभाते हुए इस माया रुपी संसार के पार चले जाना है |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Sunday, April 8, 2018

गीता-ज्ञान की सार्थकता - 36


गीता-ज्ञान की सार्थकता – 36
                    फिर वही प्रश्न कि इन विकारों से बचें कैसे ? बचने के भी वही तीन मार्ग-कर्म, ज्ञान और भक्ति | कर्म हमारे भीतर कर्तापन पैदा कर सकता है यानि मोह (अज्ञान) और अहंकार स्वयं के कर्ता होने का | ज्ञान अहंकार ला सकता है, स्वयं के ज्ञानी हो जाने का | शेष रहा एक- भक्ति-मार्ग | इस मार्ग पर चलने वाले व्यक्ति के सामने विकार ग्रस्त होने के कम अवसर हैं हालाँकि इसमें भी व्यक्ति कभी–कभी संशय ग्रस्त हो सकता है | इसीलिए गीता के अंतिम और समापन चरण में संशयग्रस्त अर्जुन को भगवान श्री कृष्ण सब कुछ छोड़-छाड़ कर शरणागत होने का कह देते हैं –‘सर्व धर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज’| अतः सरलतम उपाय हुआ, शरणागति | हरिः शरणम् आश्रम, हरिद्वार के आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा शरणागति पर एक भजन सुनाया करते हैं – ‘नाथ मैं शरण आयो जी, जच जिस तरह खेल खिलाओ, थे मन चाह्यो जी, नाथ मैं शरण आयो जी .......’|  शरणागत हो जाने से कोई भी विकार भीतर रह ही नहीं सकता और न ही उसके पुनः लौट आने का खतरा रहता है | शरणागति अर्थात न तो कुछ करने का राग, न कुछ जान लेने का अहंकार और न ही परमात्मा के बारे में किसी प्रकार का संशय | कर्म आपको राजस में भटका सकते हैं, ज्ञान राजसिक गुणों से सात्विक गुणों की ओर ले जाता है, भक्ति सत्व गुणों से भरकर आपको सात्विक गुणों के उच्च स्तर पर पहुंचा सकती है परन्तु शरणागति आपको सभी गुणों से परे ले जाकर गुणातीत कर सकती है | इस प्रकार शरणागति सर्वश्रेष्ठ हुई, तभी तो मीरा भी बोल उठी थी -‘मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई ...|’
                     कहने का अर्थ है कि हमें परमात्मा के प्रति पूर्ण श्रद्धा-भाव रखना होगा और समर्पण के साथ अनन्य भक्त बनना पड़ेगा | किसी भी प्रकार का संशय मन में न रखते हुए शरणागत हो जाएँ | कर्म करना छोड़ना नहीं है बल्कि उनमें सुधार करते हुए नैष्कर्म्यता को अपनाना होगा | किसी भी कर्म का कर्ता नहीं बनना है | ज्ञान-योग यही बात तो कहता है कि सभी कर्म प्रकृति के गुणों के कारण होते हैं | गुणों में सुधार करते हुए उनके अनुसार कर्म करते रहना ही कर्म-योग है | सद्गुणों से किये जाने वाले कर्म ही निष्काम-कर्म हैं | माया का अर्थ है भ्रम | भ्रम इस बात का कि मैं कर्म करता हूँ जबकि सत्य बात यह है कि हम कर्म करते नहीं हैं बल्कि हमारे माध्यम से कर्म होते हैं | पुत्र हमारा नहीं है, बल्कि हमारे माध्यम से इस संसार में उसका आगमन हुआ है | इस बात को हम स्वीकार करें तो पुत्र में मोह पैदा नहीं होगा, परिवार में मोह पैदा नहीं होगा | भगवान ने अर्जुन को स्पष्ट रूप से कह दिया था कि इस युद्ध में खड़े सभी योद्धाओं का मरना मेरे द्वारा  पहले ही निश्चित किया जा चूका है, तूं तो इनको मारने का केवल निमित्त मात्र  बन जा | हुआ भी वही, जो श्री कृष्ण ने कहा था परन्तु अर्जुन ने स्वयं को निमित्त मात्र कहाँ माना था ? वह तो महाभारत युद्ध के उपरांत श्री कृष्ण द्वारा दिया गया समस्त ज्ञान भूलकर उन योद्धाओं को मारने के लिए स्वयं को कर्ता मान बैठा था | यही अर्जुन का अहंकार था और हम भी अपने जीवन में ऐसे एक नहीं अनेकों अहंकार पाले हुए बैठे हैं |
               हम भोजन करते हैं और भोजन पचाने की क्रिया हमारे उदर में स्वतः होती है | क्या हम कह सकते हैं कि किये गए इस भोजन को मैं पचा रहा हूँ ? नहीं कह सकते क्योंकि भोजन स्वतः ही प्रकृति प्रदत्त गुणों के कारण पचता है | हम केवल इतना कह सकते हैं कि मेरी पाचन शक्ति अच्छी/ख़राब है | परन्तु जब हमारा विवाह हो जाता है, पत्नी आ जाती है और फिर पुत्र पैदा हो जाता है तब कहने लग जाते हैं-यह मेरी पत्नी/पुत्र है ? क्यों कहते हैं ? नहीं कहना चाहिए | हम किसी भी कर्म को करने के केवल एक माध्यम मात्र हैं, कर्ता नहीं हैं | गोस्वामीजी मानस में कहते हैं –
मैं अरु मोर तोर तैं माया | जेहिं बस कीन्हें जीव निकाया ||
गो गोचर जहँ लगि मन जाई | सो सब माया जानेहु भाई ||
                            अरण्यकाण्ड -15/2-3
भगवान राम अपने अनुज लक्ष्मण को कह रहे हैं कि मैं और मेरा, तूं और तेरा – यही माया है; जिसने सभी जीवों को अपने वश में कर रखा है | इन्द्रियों के विषय और जहाँ तक मन जाता है, हे भाई ! उस सबको माया जानना |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Saturday, April 7, 2018

गीता-ज्ञान की सार्थकता - 35


गीता-ज्ञान की सार्थकता – 35
             हमारी आध्यात्मिक यात्रा में किसी प्रकार की प्रगति क्यों नहीं हो रही है ? ऐसा प्रश्न जब ब्रह्मलीन स्वामी श्री राम सुख दासजी महाराज से पूछा जाता तो वे एक दोहा सुनाया करते थे-
कुछ श्रद्धा कुछ दुष्टता, कुछ संशय कुछ ज्ञान |
घर का रहा न घाट का ज्यों धोबी का श्वान ||
            गीता-ज्ञान को अर्जुन पूर्ण रूप से सार्थक नहीं कर सका इसका कारण इस दोहे को समझने से कुछ सीमा तक समझ में आ जायेगा | हम भी तो अर्जुन की तरह ही हैं | हम गीता के प्रति श्रद्धा भाव तो रखते हैं परन्तु उस ज्ञान के अनुसार चलते नहीं है | हमें गीता से ज्ञान मिलता है, कुछ ज्ञान आत्मसात भी करते हैं और साथ ही कुछ संशय ग्रस्त भी रहते हैं | ऐसे में भला गीता-ज्ञान की क्या कमी है ? हम परमात्मा की सेवा, पूजा अर्चना सब कुछ मन लगाकर करते हैं परन्तु उसी परमात्मा के बनाये और बताये हुए सिद्धांतों का अनुगमन करने के प्रति सदैव संशयग्रस्त बने रहते हैं | हमें लगता है कि गीता-ज्ञान अलग बात है, उस ज्ञान के अनुसार इस संसार में रहकर जीवन चलाना मुश्किल है | हमारी सोच ही कुछ इस प्रकार की हो गयी है कि हम मानने लगे हैं कि संसार में रहना केवल संसार के अनुसार चलने से ही संभव है | मैं बिलकुल भी सहमत नहीं हूँ इस बात से | गीता-ज्ञान एक व्यावहारिक ज्ञान है और इसे व्यवहार में लाए जाने से ही आनंद की अनुभूति होगी | हमने इस ज्ञान को अब तक केवल एक किताबी ज्ञान बना रखा है, इस ज्ञान को जीवन में उतारने का प्रयास तक नहीं किया है हमने | अतः सभी प्रकार के संशय छोडिये और इस ज्ञान को एक-एक कर जीवन में उतारना प्रारंभ कीजिये | विज्ञान की पुस्तकों में लिखा है कि प्रत्येक क्रिया के विरुद्ध एक प्रतिक्रिया अवश्य और उसी अनुपात में होती है | इसी बात को सनातन शास्त्र शताब्दियों से कहते आ रहे हैं कि प्रत्येक कर्म का उसी अनुपात में फल अवश्य प्राप्त होता है | हमारी प्रत्येक क्रिया ही कर्म है | हम शताब्दियों तक इस बात को पढ़ते आये हैं परन्तु व्यवहार में नहीं ला सके | जिस एक व्यक्ति ने इस ज्ञान को भौतिक रूप से व्यवहार में लिया, तो उसने इस ज्ञान का उपयोग करते हुए रॉकेट बना डाला जिसके कारण आज अंतरिक्ष की यात्रा संभव हुई है | इसी ज्ञान का आध्यात्मिक स्तर पर उपयोग किया जाये तो व्यक्ति का कल्याण हो जाये |
              ज्ञान को केवल रटते रहने से कुछ नहीं होने वाला | रटते रहने से ही ज्ञान अगर सार्थक होता तो राम-राम रटते रहने वाला तोता कभी का जीवन-मुक्त हो गया होता | हमें गीता के प्रति श्रद्धा रखने के साथ-साथ उसमें समाहित ज्ञान को जीवन में उतारकर उपयोगी बनाना होगा तभी यह ज्ञान सार्थक सिद्ध होगा | कृषि-भूमि चाहे कितनी ही उपजाऊ हो, उस पर हल चलाने से ही उपज मिल सकती है अन्यथा केवल उसे बैठे –बैठे उस भूमि को निहारते रहिये | हम गीता को उपजाऊ भूमि मानते अवश्य हैं परन्तु उसमें समाहित ज्ञान को हल चलाकर उसका दोहन करना नहीं चाहते |
                   आपका प्रश्न उचित ही है कि समस्त ज्ञान भी अर्जुन को मुक्त नहीं कर सका, फिर हमें कैसे मुक्त करेगा ? भगवान श्री कृष्ण ने गीता में अर्जुन को कर्म और ज्ञान योग कहने के बाद भक्ति और शरणागति पर जाने से पहले एक बहुत महत्वपूर्ण बात कही है | गीता 7/14 में भगवान ने कहा है कि मेरी यह माया बड़ी दुस्तर है अर्थात मेरी माया को समझना और इससे पार हो जाना बड़ा कठिन है | इस माया के कारण ही हम गीता-ज्ञान को ग्रहण करके भी उसको बार-बार भूल जाते हैं | यह सब उस माया का ही प्रभाव है | अगर हम इस त्रिगुणी माया को भली भांति समझ लें तो तीनों गुणों का उल्लंघन कर गुणातीत हो सकते हैं | अर्जुन भी इस ज्ञान को पाकर सत्व गुण की अवस्था तक पहुँच गया था परन्तु गुणातीत नहीं हो सका क्योंकि वह परमात्मा के साथ रहते हुए भी उसकी इस माया से स्वयं को मुक्त नहीं कर पाया था | वह कुछ समय के लिए माया-जाल से निकलता और कुछ समय बाद पुनः उसी माया में उलझ जाता | उसके साथ ऐसा क्यों हुआ ऐसा ? कारण- मोह और अहंकार | मोह, परिवार का, अहंकार अपने आपको कर्ता मानने का | यह दो विकार ही हमें अर्जुन की तरह बार-बार गीता-ज्ञान से दूर ले जाते हैं और पुनः सांसारिक मोह-माया में उलझा देते हैं |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Friday, April 6, 2018

गीता-ज्ञान की सार्थकता - 34


गीता-ज्ञान की सार्थकता – 34
                  ‘गीता-ज्ञान की सार्थकता’ पर कुछ प्रश्न आये हैं | इनमें से कुछ प्रश्न हम चर्चा के लिए लेंगे | अर्जुन जब गीता-ज्ञान को सार्थक नहीं कर सका तो हमारी स्थिति तो उनसे भी दयनीय है, हम इस ज्ञान को कैसे सार्थक कर पाएंगे ? गीता-ज्ञान एक ऐसी भूल-भूलैया है कि इसको साधारण व्यक्ति समझ ही नहीं पाता ? क्या मापदंड है, जिनसे हम समझ सकें कि हम सही चल रहे हैं ? आपने जो सरल-सहज राह बताई है, क्या उसका अनुपालन जीवनपर्यंत किया जा सकता है ? हम समस्त विकारों को बाहर निकाल बाहर कर देते है परन्तु वे फिर वापिस लौट आते हैं, क्यों ? इन विकारों को न वापिस न आने देने के क्या उपाय है ? ये कुछ प्रश्न हैं, जिनका उत्तर देना आवश्यक है | हालाँकि कुछ प्रश्नों के उत्तर इस श्रृंखला में आ गए हैं, फिर भी इनको पुनः और अधिक स्पष्ट करने का प्रयास करूँगा |
             सर्वप्रथम गीता के बारे में स्पष्ट कर दूँ कि यह किसी भी प्रकार की भूल-भूलैया नहीं है | अर्जुन के मानसिक स्तर में ज्यों-ज्यों ज्ञान पाकर सुधार होता गया, भगवान श्री कृष्ण उसे उच्च स्तर का ज्ञान देते चले गए | उदाहरण स्वरूप प्रारम्भ में श्री कृष्ण कहते हैं कि मैं सत भी हूँ और असत् भी मैं हूँ (गीता-9/11)| फिर कहते हैं, न मैं सत हूँ और न ही असत् हूँ (गीता-13/12)| मध्य में अर्जुन स्वीकार करता है कि आप सत और असत् दोनों से परे हैं (गीता-11/37)| तीनों बातें एक दूसरे से भिन्न लग सकती है परन्तु भिन्न नहीं है और  न ही यह भूल-भूलैया है | अर्जुन के मानसिक स्तर से कहते हुए दो बातें समझाई गयी है | शरीर(असत) भी मैं हूँ और सत(आत्मा) भी मैं हूँ | यह प्रारम्भिक स्तर की बात हुयी जब वह मोहग्रस्त था और अपने सगे-सम्बन्धियों को सामने देखकर विचलित हो गया था | उस समय भगवान ने उसके स्तर को देखते हुए कहा था कि परमात्मा अर्थात वे न तो शरीर है और न ही आत्मा अर्थात मैं न तो सत हूँ और न ही असत (गीता-9/11)| मध्य में जब अर्जुन का मानसिक स्तर में कुछ सुधार तब उसने स्वीकार किया कि परमात्मा सत और असत न होकर इन दोनों से परे हैं | अंत में भगवान ने उसे सत्यता बतला ही दी और कह दिया कि मैं असत(शरीर) भी नहीं हूँ और सत(आत्मा) भी नहीं हूँ | मैं इन दोनों से भी ऊपर (परमात्मा) हूँ | तीनों बातें एक ही हैं | परमात्मा के कारण ही शरीर और आत्मा का अस्तित्व लेना संभव हुआ है अतः शरीर(असत) और आत्मा (सत), दोनों ही परमात्मा के कारण होने से परमात्मा ही हुए | परन्तु दोनों अर्थात सत और असत मैं नहीं हूँ, कहने का आशय यह है कि सत और असत मेरे कारण अवश्य है परन्तु मैं वे दोनों ही नहीं हूँ | फिर प्रश्न यह उठता है कि आप आखिर हैं कौन ? इसका उत्तर देते हुए उन्होंने कहा है कि मैं इन दोनों, सत और असत से भी ऊपर हूँ | यह परे होना का अर्थ है, सत और असत उनके कारण से हैं परन्तु वे स्वयं सत और असत नहीं है बल्कि इन दोनों से ऊपर हैं | इस बात को और अधिक स्पष्ट रूप से समझने के लिए गीता के 15वें अध्याय के 16 और 17 सं. के श्लोक, श्री मद्भागवत महापुराण के दशम स्कंध के 82 वें अध्याय का 47 वां श्लोक तथा मुण्डकोपनिषद के तृतीय मुण्डक के प्रथम खंड के प्रथम व द्वितीय मन्त्र को गंभीरता से पढ़ें |
             इस प्रकार यह स्पष्ट है कि गीता एक भूल-भूलैया की तरह लगती अवश्य है परन्तु है नहीं | यह बार-बार अध्ययन करने और सत्संग से ही स्पष्ट होगी | एक सत-असत की बात ही नहीं, ऐसे एक दो उदाहरण और मिल जायेंगे जहां पर यूँ लगता है जैसे भ्रमित करने वाला ज्ञान है, यह | नहीं, भ्रमित बिलकुल नहीं करती गीता और  न ही भूल-भूलैया में भटकाती है | इसका ज्ञान एक दम स्पष्ट है | इसको सम्पूर्ण रूप से समझ जाने पर जो आत्मिक शांति मिलती है और जिस आनंद के सागर में आप उतरने लगोगे, वह गूंगे व्यक्ति की शर्करा है अर्थात उसका वर्णन नहीं किया जा सकता | आत्म-ज्ञान केवल अनुभव की बात है, न तो इसे कोई दे सकता है और न ही कोई इसे ले सकता है | इस ज्ञान को केवल अनुभव ही किया जा सकता है और इसका अनुभव होना गीता-ज्ञान को जीवन में उपयोग में लाये बिना संभव नहीं है | अब आते है, अगले प्रश्न पर जो कि बड़े महत्त्व का प्रश्न है और इस प्रश्न में प्रश्न-कर्ता की जिज्ञासा स्पष्ट रूप से समझ में आती है | प्रश्न है कि जब अर्जुन ही गीता-ज्ञान को सार्थक नहीं कर सका तो हम कैसे कर पाएंगे ?कल हम इसी प्रश्न पर आगे चर्चा करेंगे |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Thursday, April 5, 2018

गीता-ज्ञान की सार्थकता - 33


गीता-ज्ञान की सार्थकता – 33
सार-संक्षेप –
             एक गृहस्थ को अपने जीवन कैसे जीना चाहिए, यह बात हमें गीता से अधिक अच्छे तरीके से कोई अन्य समझा नहीं सकता | हम अपने मन की शुद्धि के लिए न जाने कितने प्रपंच करते रहते हैं | निरुद्देश्य भटकते रहते हैं और जीवन का संध्या-काल आ जाता है और मन की अशांति मिट नहीं पाती | गीता मन को शांत करने का सुगम मार्ग बताती है | मनुष्य जीवन में इस भौतिक शरीर से कर्म होंगे ही |  सकाम कर्म विकारों के जनक हैं और विषय-भोगों अर्थात सांसारिक सुख प्राप्त करने की इच्छा से किये जाते हैं | हम अपने जीवन में यह तो इच्छा रखते हैं कि परमात्मा हमें सभी दोषों और विकारों से मुक्त रखे परन्तु कर्म ऐसे करते हैं और इस प्रकार के करते हैं कि विकारों का त्याग न होकर दिन प्रतिदिन उनमें वृद्धि ही होती जाती है | ऐसी स्थिति में हमें अपने कर्मों के स्वरूप के बारे में गंभीरता से विचार करना होगा | कर्मों के स्वरूप में परिवर्तन करके ही हम समस्त विकारों से दूर हो सकते हैं | यही कर्म-योग है और इस कर्म-योग को साधने का सर्वोत्तम मार्ग है, भक्ति और ज्ञान | ज्ञान इस बात का सदैव बना रहे कि कर्म हम नहीं करते है बल्कि प्रकृति के गुणों के द्वारा ही होते हैं | जिस दिन हमें इस बात का ज्ञान हो जायेगा तो हम स्वयं को किसी भी कर्म का कर्ता नहीं मानेंगे | कर्ता-भाव रखना ही समस्त विकारों की जड़ है |
                  अब प्रश्न यह है कि हम विकार से मुक्त एक बार तो हो जाते हैं परन्तु वही विकार हमारे भीतर पुनः प्रवेश पा जाता है | मोह ही ऐसा विकार है, जो मन के बाहर भीतर होता रहता है | इसका कारण है कि हमें अभी तक कर्म का विज्ञान पूर्ण रूप से समझ में नहीं आया है | जब तक कर्म-विज्ञान पूर्ण रूप से समझ में नहीं आएगा तब तक विकार बार-बार आते जाते रहेंगे | ज्ञान जब आत्मसात नहीं हो सके तो अपने आप को परमात्मा को समर्पित कर दें | संसार से प्रेम करने के स्थान पर परमात्मा से प्रेम करें | इससे आपका कर्ता-भाव भी समाप्त हो जायेगा और आपको ज्ञान भी प्राप्त हो जायेगा | इसीलिए भक्ति-योग को ज्ञान-योग से श्रेष्ठ बताया गया है | भक्ति योग से आपके भीतर के कामादि सभी विकार चले जायेंगे और आप परम शांति को उपलब्ध हो जायेंगे |
                      गीता-ज्ञान की सार्थकता को मैंने अल्प रूप से समझाने का प्रयास किया है | मैं जानता हूँ कि गीता की सार्थकता को शब्दों के एक निश्चित क्षेत्र में बाँध पाना असंभव है फिर भी एक प्रयास किया है | इस श्रृंखला में गीता-ज्ञान की सार्थकता बतलाने के लिए केवल ‘विकार’ विषय को ही केंद्र बिंदु बनाया है | अन्य कई क्षेत्रों और विषयों में भी इस ज्ञान की सार्थकता है | विभिन्न क्षेत्रों में गीता-ज्ञान की सार्थकता पर भविष्य में विचार करेंगे | आप सभी पाठकों का साथ बने रहने के लिए आभार |
पुनश्च -आज इस श्रृंखला का समापन होना था परन्तु इस विषय से सम्बंधित कुछ प्रश्न आये हैं, जिनमें से दो महानुभावों के प्रश्न बड़े महत्वपूर्ण है और जिनका उत्तर देना गीता-ज्ञान को और अधिक स्पष्ट करेगा, ऐसा मेरा मानना है | वैसे इनके उत्तर इस श्रृंखला में लगभग आ गये है परन्तु हो सकता है कि मैं उनको स्पष्ट रूप से समझा नहीं पाया हूँ | अतः इस श्रृंखला को कुछ समय के लिए और आगे बढ़ाना आवश्यक समझा गया है | कृपया साथ बने रहें, आभार |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Wednesday, April 4, 2018

गीता-ज्ञान की सार्थकता - 32


गीता-ज्ञान की सार्थकता – 32
                                 प्रारब्ध से मिलने वाले भोग और सुख को प्राप्त करने के लिए कर्म करने आवश्यक हैं | विषय-भोग को परमात्मा का प्रसाद मानकर त्याग पूर्वक भोगें और न तो उन भोगों के प्रति आसक्त हों जो हमें भाग्य से उपलब्ध हुए हैं और न ही उन कर्मों के प्रति आसक्त हों जो प्रारब्ध के कारण हमारे शरीर को करने पड़ रहे हैं | प्रारब्ध से मिलने वाले भोगों को भोग लेने के लिए किये जाने वाले कर्मों के अतिरिक्त भी अन्य कर्म करने को मनुष्य विवश है | ऐसा प्रत्येक कर्म नए जीवन के लिए प्रारब्ध बनाता है | ऐसे कर्मों को करने में हमारी भूमिका किस प्रकार की होनी चाहिए, यह सबसे अधिक महत्वपूर्ण है |  इसके लिए दो विकल्प हैं | प्रथम विकल्प है, ज्ञान का और दूसरा विकल्प है, भक्ति का | इसीलिए गीता में भगवान श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन को कर्म-योग को आधार बनाते हुए ज्ञान-योग और भक्ति योग कहा है | गीता में भगवान श्री कृष्ण द्वारा सर्वप्रथम कर्म-योग, उसके बाद ज्ञान योग और अंत में भक्ति और शरणागति को स्पष्ट किया गया है | श्री कृष्ण का उद्देश्य एक गृहस्थ को इस संसार में रहते हुए और कर्म करते हुए संन्यस्थ करने का था, जिससे वह कर्म करते हुए भी परमात्म-तत्व को पा सकें | संन्यासी होने का अर्थ संसार से भागकर जंगल में चले जाना नहीं है बल्कि कर्मों के प्रति आसक्त न होने से है अर्थात एक गृहस्थ का इस संसार में रह कर कर्म करते हुए संन्यासी बन जाना है |
            ब्रह्मलीन स्वामी श्री रामसुख दासजी महाराज ने इन तीनों योगों को बहुत ही अल्प शब्दों में स्पष्ट करते हुए कहा है कि आप जो भी कर्म कर रहे हो उन्हें संसार की सेवा में अर्पित कर दो (कर्म-योग) या उन कर्मों को प्रकृति में अर्पण कर दो (ज्ञान-योग) अथवा सभी किये जाने वाले कर्मों को परमात्मा के लिए करना मानो (भक्ति-योग) अर्थात सभी कर्मों को परमात्मा को समर्पित कर दो | इनसे कम शब्दों में कर्म-बंधन से मुक्त होने को स्पष्ट नहीं किया जा सकता | स्वामी जी की इस बात का सार यह है कि “कर्म हम अपने लिए नहीं कर रहे है, इस बात का सदैव ध्यान रखें | कर्म या तो संसार की सेवा के लिए हो रहे हैं या प्रकृति के अनुसार हो रहे हैं अथवा फिर परमात्मा के लिए किये जा रहे हैं |” जब कर्म हम स्वयं के लिए नहीं कर रहे हैं, इसका अर्थ यह हुआ कि हम कर्म के प्रति आसक्त भी नहीं है | जब कर्मासक्ति नहीं होगी तो कर्म-बंधन भी नहीं होगा | कर्म बंधन नहीं है तो कामादि विकार उत्पन्न होने का प्रश्न ही पैदा नहीं होगा | जब हमारे जीवन में कोई कर्म-बंधन ही नहीं है, इसका अर्थ है कि हम जीवन-मुक्त हैं |
                गीता-ज्ञान की सार्थकता जीवन-मुक्त होने में है | इस संसार में रहते हुए हम कर्म भी करेंगे और कर्मासक्त भी नहीं होंगे | इस प्रक्रिया में सबसे महत्वपूर्ण भक्ति है | भागवत में कहा गया है कि भक्ति के दो पुत्र हैं, ज्ञान और वैराग्य | जब व्यक्ति संसार के स्थान पर परमात्मा से प्रेम करने लगता है, उसका नाम ही भक्ति है | जब व्यक्ति में भक्ति का पदार्पण होता है, ज्ञान और वैराग्य दोनों भक्ति के पीछे-पीछे आ ही जायेंगे | ज्ञान का अर्थ है, बुद्धि का उपयोग करते हुए मन पर नियंत्रण करना | यह ज्ञान-योग हुआ | वैराग्य का अर्थ है, कर्म करने में राग का न होना अर्थात कर्मों के प्रति आसक्ति का न होना | यह कर्म-योग हुआ | एक गृहस्थ के जीवन में गीता की सार्थकता अधिक है क्योंकि इसमें समाहित ज्ञान हमें संसार में रहकर कर्म करते हुए भी परमात्मा तक ले जाने की क्षमता रखता है |
कल सार-संक्षेप
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Monday, April 2, 2018

गीता-ज्ञान की सार्थकता - 31


गीता –ज्ञान की सार्थकता – 31
                   विषय-भोग मनुष्य को शारीरिक सुख प्रदान करते हैं | सुख की अधिक से अधिक कामना रखना ही सबसे बड़ा विकार है | इन विकारों को मन के भीतर प्रवेश करने व पलते रहने से बचने का क्या उपाय है ? आज के इस आधुनिक युग में जहाँ प्रत्येक वस्तु, व्यक्ति, साधन और व्यवस्था प्रतिपल बदल रहे हैं, वहां इन सुखों के पीछे दौड़ते रहना कोई बुद्धिमानी नहीं है | हरिः शरणम् आश्रम, हरिद्वार के आचार्य गोविन्द राम शर्मा इस सम्बन्ध में एक दृष्टान्त सुनाते हैं | एक बार गाँव के ठाकुर ने अपने पास जमीन पाने की कामना लिए आये एक व्यक्ति को कह दिया कि आज सूर्यास्त से पहले तुम जितनी जमीन को अपने कदमों से नाप लोगे, उतनी जमीन तुम्हें दे दूंगा | इतना सुनते ही वह व्यक्ति जमीन नापने को दौड़ पड़ा | जरा सा भी विलम्ब करना उसको उचित नहीं लगा | वह बिना विश्राम किये लगातार दौड़ता रहा | दोपहर हुई परन्तु वह नहीं रुका | थक कर चूर-चूर हो रहा था परन्तु उसकी दौड़ समाप्त नहीं हुई | सूरज उसके सिर पर तेज चमकता हुआ अपनी गर्मी से उसे और अधिक थका रहा था परन्तु वह व्यक्ति कहाँ रुकने वाला था | वह क्षण भर के लिए भी विश्राम किये बिना लगातार दौड़ता जा रहा था | उसे अभी भी अपने द्वारा नापी  गयी जमीन बहुत ही कम प्रतीत हो रही थी | थोड़ी देर में शाम भी उतरने लगी | लगातार दौड़ते-दौड़ते वह व्यक्ति अब बुरी तरह से थक चूका था | उसने ऊपर आसमान पर दृष्टि डाली | देखा, सूर्यास्त होने में अभी भी कुछ समय शेष था | उसने अपनी बची-खुची शक्ति बटोरी और पूरे जोश से दौड़ लगा दी | आखिर शरीर की शक्ति की भी एक सीमा होती है | अंततः उसकी शारीरिक शक्ति ने उसका साथ छोड़ दिया | वह गश खाकर जमीन पर गिर पड़ा | अपने घोड़े पर सवार हुआ ठाकुर उसके पीछे-पीछे चला आ रहा था |
                      ठाकुर ने जब उसको जमीन पर थककर गिरते हुए देखा, तो तुरंत अपने घोड़े पर से उतरकर उस व्यक्ति तक पहुंचा | उसने देखा कि जमीन पर गिरे व्यक्ति के प्राण पखेरू उड़ चुके हैं | दिन भर उस साधारण से व्यक्ति ने दौड़ते हुए कई मील जमीन नाप डाली थी परन्तु वास्तव में उसे केवल छः फिट जमीन चाहिए थी, जिस पर वह अभी मृतावस्था में पड़ा था |  उसकी असंतुष्टि ने उसकी जान ले ली थी | उसकी इस प्रवृति ने कि जो अब तक मिला है, वह अपर्याप्त है, उसे मार डाला था | यह है, लोभ प्रवृति |
                         लोभ काम को पैदा करता है और काम लोभ को | अतः हमें सर्वप्रथम लोभ से दूर रहने के लिए संतोष धारण करना होगा | परमात्मा ने प्रारब्ध स्वरूप हमें जितना दिया है वह बहुत है, पर्याप्त है; यही संतोष है | संतोष धारण करने के लिए किसी प्रकार का विशेष प्रयास नहीं करना पड़ता | संतोष की अवस्था को उपलब्ध होने के लिए न ज्ञान चाहिए, न भक्ति | जीवन में संतोष के पदार्पण के साथ ही भक्ति स्वतः ही प्रवेश पा लेती है | ब्रह्मलीन स्वामी रामसुख दासजी महाराज कहा करते थे-
दौड़ सके तो दौड़ ले जब लगि तेरी दौड़ |
दौड़ थक्या धोखा मिट्या, वस्तु ठौड़ की ठौड़ ||
            हमारे जीवन की यही वास्तविकता है, इससे हम मुंह नहीं मोड़ सकते | एक न एक दिन इसको स्वीकार करना ही होगा, तो फिर अभी क्यों नहीं स्वीकार कर लेते ? संतोषी सदा सुखी |
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Sunday, April 1, 2018

गीता-ज्ञान की सार्थकता - 30


गीता-ज्ञान की सार्थकता – 30
         विषय-भोग, विकार (कामादि), कर्म, कर्म-फल और पुनः विषय-भोग भोगना, यह अटूट चक्र कैसे टूट सकता है ? इस चक्र को तोड़ने के लिए हमें इसकी कमजोर कड़ी पर तीव्र प्रहार करना पड़ेगा | इस चक्र की सबसे कमजोर कड़ी है-विकार | हम स्वयं के मन में विकार को बाहर निकल सकते हैं और फिर पुनः प्रवेश करने से रोक सकते हैं | मुख्य विकार है-काम और मोह | सर्वप्रथम हमें इन दोनों विकारों को बाहर निकाल फेंकने के लिए क्या करना होगा ? इसके लिए विकार की मूल उत्पत्ति कैसे होती है, इसको जानना होगा | कर्म करने के कारण फल के रूप में हमें विषय-भोग प्राप्त होते हैं और ये भोग हमारे भीतर विभिन्न विकारों (दोषों) को जन्म देते हैं | अतः किसी भी विकार को उत्पन्न होने से रोकने के लिए हमें कर्म का सहारा लेना पड़ेगा | कर्म का सहारा लेने के दो कारण है | प्रथम कारण, मनुष्य ही एक मात्र ऐसी योनि है, जिसमें मनुष्य कर्म करने को स्वतन्त्र है यानि वह स्वयं की इच्छानुसार कर्म कर सकता है | स्वयं की इच्छा को नियंत्रित कर हम कर्म का स्वरूप परिवर्तित कर सकते हैं अर्थात सकाम कर्म के स्थान पर निष्काम कर्म कर सकते हैं | दूसरा कारण, मनुष्य अपने जीवन में कभी भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता | इसलिए कर्म करने को हम विवश है | ऐसा जीवन में कभी भी नहीं हो सकता कि हम किसी प्रकार का कर्म ही न करें | अतः कर्म तो करने ही पड़ेंगे, तो फिर ऐसे कर्म क्यों न करें, जिससे हमारा जीवन विकार-मुक्त जीवन बन सके |
                 हमने इस अटूट चक्र में से केवल विकार और कर्म को ही क्यों चुना, अन्य में विषय-भोग को भी तो चुन सकते थे ? इसका कारण है कि जिस संसार में हम रहते हैं, उसमें विभिन्न विषय प्रचुर मात्रा में भोग के लिए उपलब्ध हैं | अतः हम विषयों से किसी भी प्रकार से दूर नहीं भाग सकते | जीवन में समय-समय पर इन विषयों से आमना-सामना होता रहेगा ही | कामना को इसलिए नहीं चुना क्योंकि अपने जीवन में कोई भी व्यक्ति कामना को उठने से रोक नहीं सकता | हाँ, कामनाओं पर नियंत्रण स्थापित लिया जा सकता है | इस जीवन की वास्तविकता यही है कि मन में बिना किसी कामना के रहे इस जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती | सबसे महत्वपूर्ण बात, बिना कामना के हम आत्म-ज्ञान को भी उपलब्ध नहीं हो सकते | अतः कामनाएं जीवन से बाहर नहीं हो सकती और न ही विषय बाहर हो सकते हैं |
                 इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि पूर्व मानव जीवन में की गयी विषय-भोग की कामना इस जीवन में कर्म करते हुए भोग अवश्य ही उपलब्ध कराएगी ही | उन भोगों को भोगे बिना आप कहीं पर भी भाग कर नहीं जा सकते | इसी सांसारिक सुख को प्राप्त करने के लिए परमात्मा ने हमें ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ और मन दिया है | मनुष्य भोगों से शारीरिक सुख प्राप्त करते हुए केवल एक कार्य अवश्य ही कर सकता है | वह इन भोगों के प्रति आसक्त न हो | भोगों से आसक्ति तभी पैदा नहीं होगी जब हम प्रारब्ध स्वरूप प्राप्त हो रहे भोगों को त्याग पूर्वक भोगें | त्याग पूर्वक भोगने का आशय है कि प्रारब्ध स्वरूप मिले सुख को परमात्मा का प्रसाद मानते हुए उनको ग्रहण करें परन्तु उन भोगों को पकडे नहीं, उनमें डूबे नहीं | भोगों से सुख लेना किसी भी प्रकार अनुचित नहीं है परन्तु जब प्रारब्ध स्वरूप मिलने वाले सुख समाप्त हो जाएँ, तब दुःखी न हो | दुःखी होना कामना को जन्म देगा और फिर पुनः वैसे ही सुख प्राप्त करने के लिए हम कर्म के माध्यम से प्रयास करने लगेंगे | आपको ऐसा आभास होगा कि आपके प्रयास एक न एक दिन अवश्य रंग लायेंगे और आप वैसे ही सुख पुनः प्राप्त कर लेंगे जैसे सुख पूर्व में प्राप्त हुए थे | बस, यहाँ पर आकर स्थिति आपके जीवन को एक तीव्र मोड़ दे देती है | आप इच्छानुसार कर्म अवश्य कर सकते हैं, इच्छानुसार उनका फल प्राप्त नहीं कर सकते | यही इस मनुष्य जीवन की वास्तविकता है |
                 अभी तक आप जीवन की वास्तविकता से अपरिचित हैं | काम और अर्थ केवल उतना ही इस जीवन में प्राप्त होगा जितना उनको पाने के लिए आपने पूर्वजन्म में प्रयास किये थे, उससे रत्ती भर भी अधिक अथवा कम नहीं | मनुष्य जीवन की वास्तविकता यह है कि आपको इस जीवन में अपने प्रारब्ध (भाग्य) में लिखे से अधिक केवल धर्म और मोक्ष उपलब्ध हो सकता है, काम और अर्थ नहीं |  
क्रमशः
प्रस्तुति – डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||