तृतीय चरण-
कर्मयोग के रास्ते पर रखे जाने वाला तीसरा
कदम है- त्याग | लोभ, मोह, अहंकार, ममता, कामना और आकांक्षा आदि का त्याग | जो
शांति मनुष्य को त्याग से मिलती है किसी अन्य कार्य से नहीं | चाहे वह त्याग
भौतिक वस्तुओं का हो, चाहे ममता का हो |लोभ ,मोह और अहंकार आदि मनुष्य की कामनाओं
और आकांक्षाओं का ही अतिरिक्त विस्तार है | गोस्वामी तुलसीदासजी ने
श्रीरामचरितमानस में लिखा है –“काम क्रोध मद लोभ सब, नाथ नरक के पंथ|” और जो नरक
का रास्ता है ,वह कर्मयोग का रास्ता भला कैसे हो सकता है? अतः मनुष्य को कर्म योग
के पथ पर आगे बढ़ने के लिए इन सबके त्याग का कदम उठाना ही होगा |
चतुर्थ चरण-
कर्मयोग के पथ का चौथा चरण है-कर्म और
कर्मफलों के समर्पण का | जब कर्मों का चयन हो जाता है, व्यक्ति भूत को विस्मृत कर,
भविष्य का ख्याल न रखते हुए लोभ, मोह ,ममता और अहंकार का त्याग करते हुए कर्म करता
है, ऐसी अवस्था में भी उसके भीतर कहीं गहराई में उन कर्मों के फल मिलने की एक आशा
अभी भी साँस ले रही होती है | ऐसे में उसके सामने एक ही विकल्प इस कर्म फल बंधन को
तोड़ने का रहता है, वह है कर्म फल का त्याग | जब तक कर्म फल का त्याग नहीं होगा तब
तक व्यक्ति कर्मयोगी नहीं हो सकता |इस चरण के अंतर्गत व्यक्ति स्वयं को न तो किसी
कर्म का कर्ता मानता है और न ही कर्मफल का अधिकारी | सब कर्म और उनके फल वह
परमात्मा को कि समर्पित कर देता है | अतः चौथा चरण है –समर्पण का |
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||
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