Tuesday, March 3, 2015

कर्म-योग |-30

                        इसी सन्दर्भ में एक बात और स्पष्ट करना चाहूँगा-अकर्म और निष्काम-कर्म के भेद की |निष्काम-कर्म और अकर्म में भेद बहुत अधिक नहीं है इसीलिए इनको एक समान समझा जाता है |कामना रहित कर्म को निष्काम-कर्म कहा जाता है और यह निष्काम-कर्म, किसी कर्म के न करने के लगभग समान ही है, अतः निष्काम-कर्म,अकर्म बन जाते हैं |भाषा की दृष्टि से अगर देखा जाये तो इस अकर्म  का शाब्दिक अर्थ है,कर्म का न करना |जब कामना रहित और बिना कर्तापनके कर्म किये जाते हैं तो वे कर्म अकर्म हो जाते हैं क्योंकि करने वाले को ऐसे कर्म करने का भान ही नहीं रहता है | एक मुहावरा है न कि “नेकी कर और दरिया में डाल” अर्थात सत्कर्म करो और भूल जाओ |यही वास्तव में कर्म करते हुए भी कर्म न करना है |इन्हीं कर्मों को हम निष्काम-कर्म कहते है जो अकर्म बन जाते हैं |
गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
        यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः |
       आत्मन्येव च संतुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते || गीता3/17 ||
अर्थात् जो मनुष्य आत्मा में ही रमण करने वाला और आत्मा में ही तृप्त तथा आत्मा में ही संतुष्ट हो, उसके लिए कोई कर्तव्य नहीं है | भगवान यहाँ पर स्पष्ट कर देते हैं कि जो मनुष्य स्वयं को जान लेता है और स्वयं के भीतर सब और से संतुष्ट और तृप्त हो जाता है ,उसके लिए कोई कर्म करना आवश्यक नहीं है और उसके लिए कोई कर्तव्य नहीं होता |ऐसे मनुष्य किसी कर्म को करने से पहले उस कर्म के परिणाम के बारे में किसी प्रकार का विचार नहीं करते |जो व्यक्ति कर्म करने से पहले उसके परिणाम के बारे में किसी भी प्रकार का विचार नहीं करता, ऐसी स्थिति में उसके सामने किसी भी प्रकार के कर्म करने की पसंद और नापसंद भी नहीं होती |जो कर्म बिना किसी पसंद (Choice) के किये जाते हैं,वे सभी कर्म अकर्म होते हैं |इसीलिए इन कर्मों को करने वाला इस कार्य को करने में अपना कर्तव्य नहीं समझता |ऐसा व्यक्ति कर्म-बंधन, कर्तव्य-बोध तथा कर्तापन से मुक्त होता है |
क्रमशः 
                   || हरिः शरणम् ||

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