Tuesday, March 24, 2015

मानव-श्रेणी-1

                      संसार में जी रहे समस्त मनुष्य अपने अपने तरीके से इस संसार को तथा इस संसार में रहने वाले अन्य मनुष्यों और प्राणियों को अपने अपने नजरिये से देखते हैं । हम उसे उसकी "सोच" का नाम दे सकते हैं । उसकी अपनी यह व्यक्तिगत सोच ही उसे एक स्तर प्रदान करती है । उसकी इस सोच से हम उस व्यक्ति के स्तर का आकलन कर सकते हैं । इस सोच के अनुसार संसार में व्यक्तियों को पांच विभिन्न प्रकार की श्रेणियों में रखा जा सकता है । उन्हें  निम्न प्रकार से वर्गीकृत  किया  जा सकता  है :-
(1 )पामर- इस श्रेणी में वे व्यक्ति रखे जा सकते हैं,जिन्हे संसार में सब ओर तथा सब कुछ बुरा ही बुरा नज़र आता है । यहाँ तक कि स्वयं में भी कुछ अच्छा नज़र नहीं आता है ।
(2 )विषयी- ये ऐसे व्यक्ति होते है,जो स्वयं को सबसे उच्च और अच्छा समझते हैं,शेष सब कुछ इस संसार में उन्हें बुरा ही बुरा नजर आता है ।
(3 )साधक - तीसरी श्रेणी में साधक आते हैं ।ये ऐसे व्यक्ति होते है, जिनकी दृष्टि में स्वयं को छोड़कर इस संसार में सब कुछ अच्छा है । वे स्वयं को बुरा समझते है और अपनी बुराइयों को ढूंढते रहते हैं । मिल  जाने उन बुराइयों को अपने से बाहर निकाल फेंकने का प्रयास करते हैं । यही उनकी साधना होती है ।
(4 )सिद्ध- सिद्ध की श्रेणी ऐसे व्यक्तियों की होती है,जिन्हें इस संसार में सब कुछ अच्छा ही अच्छा नज़र आता है ,कहीं पर भी कुछ  भी बुरा नहीं है ,स्वयं में भी और किसी अन्य में भी ।
(5 )परमात्मा-यह सबसे उच्च कोटि की श्रेणी है । जिस व्यक्ति को इस संसार में स्वयं में भी और समस्त संसार ही नहीं बल्कि ब्रह्माण्ड तक में केवल परमात्मा ही परमात्मा नज़र आते हैं । छोटे से बड़े सब एक समान ,सारी सृष्टि ही परमात्मामय । दुर्भाग्य से इस श्रेणी को प्राप्त करना दुष्कर ही नही अपितु  असम्भव  भी है । इस श्रेणी के बारे में गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज रामचरितमानस में लिखते हैं-
 "सोइ  जानइ जेहि देहु  जनाई ।जानत तुम्हहि  तुम्हइ  होइ जाई  ॥ मानस 2 /127 /3 ॥
   अर्थात, जिनको परमात्मा  ही चहुँ ओर  दिखता है, उनमें परमात्मा को जानने की  प्रक्रिया परमात्मा ही  शुरू करता है और ज्योंही वह परमात्मा को जान जाता है वह स्वयं ही परमात्मा हो जाता है ।
                              ॥ हरिः शरणम् ॥ 

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