गीता के अंतिम
अध्याय में श्री कृष्ण अर्जुन को कर्म करने को ही सही ठहराते हुए स्पष्ट करते हैं कि-
सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत् |
सर्वारम्भा हि दोषेण
धूमेनाग्निरिवावृता: ||गीता 18/48 ||
अर्थात् हे
कुन्तीपुत्र ! दोषयुक्त होने पर भी सहज कर्म को नहीं त्यागना चाहिए, क्योंकि धुएं से
अग्नि की भांति सभी कर्म किसी न किसी दोष से युक्त हैं |सहज कर्म वे कर्म होते हैं
जो प्रकृति के अनुसार नियत किये हुए होते हैं और वे सभी कर्म किसी न किसी गुण से
युक्त अवश्य ही होते हैं | गुणों का व्यक्ति चयन कर उसी के अनुरूप किसी भी प्रकार
का कर्म करने को स्वतन्त्र है |
ऐसे ही मनुष्यों के लिए श्री कृष्ण गीता में कहते
हैं कि-
न कर्मणामनारम्भान्नैनेष्कर्म्यं
पुरुषोsश्रुते |
न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति || गीता 3/4
||
अर्थात् मनुष्य न तो
कर्मों का आरम्भ किये बिना निष्कर्मता को यानि योग निष्ठा को प्राप्त होता है और न
कर्मों के केवल त्याग मात्र से सिद्धि यानि सांख्य निष्ठा को ही प्राप्त होता है |
इस श्लोक का आशय यही है कि व्यक्ति को जिस किसी भी कार्य करने की जिम्मेदारी मिलती है अगर वह पूरे मनोयोग से उस कार्य को समता के साथ कर्म करते हुए संपन्न करता है ,तो ऐसे किसी भी कर्म के दोषयुक्त होते हुए भी उसे उस कर्म का फल नहीं मिलेगा |यही अवस्था निष्कर्मता कहलाती है |इसे एक उदाहरण से स्पष्ट करूँगा-जैसे जज न्याय करते हुए किसी व्यक्ति को फांसी की सज़ा सुनाता है तो यह कर्म उस जज को किसी भी प्रकार का फल नहीं देगा |इसी सज़ा को क्रियान्वित करते हुए कोई जल्लाद अपराधी को फांसी चढ़ाता है तो उस जल्लाद को भी ऐसे कर्म के दोषयुक्त होते हुए भी उसका फल नहीं मिलेगा |यही वास्तविक अर्थों में निष्कर्मता है |
इस श्लोक का आशय यही है कि व्यक्ति को जिस किसी भी कार्य करने की जिम्मेदारी मिलती है अगर वह पूरे मनोयोग से उस कार्य को समता के साथ कर्म करते हुए संपन्न करता है ,तो ऐसे किसी भी कर्म के दोषयुक्त होते हुए भी उसे उस कर्म का फल नहीं मिलेगा |यही अवस्था निष्कर्मता कहलाती है |इसे एक उदाहरण से स्पष्ट करूँगा-जैसे जज न्याय करते हुए किसी व्यक्ति को फांसी की सज़ा सुनाता है तो यह कर्म उस जज को किसी भी प्रकार का फल नहीं देगा |इसी सज़ा को क्रियान्वित करते हुए कोई जल्लाद अपराधी को फांसी चढ़ाता है तो उस जल्लाद को भी ऐसे कर्म के दोषयुक्त होते हुए भी उसका फल नहीं मिलेगा |यही वास्तविक अर्थों में निष्कर्मता है |
इसी निष्कर्मता को और स्पष्ट करते हुए
गीता में आगे भगवान् श्री कृष्ण स्पष्ट करते हैं-
योSन्तःसुखोSन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव यः |
स योगी ब्रह्मनिर्वाणब्रह्मभूतोSधिगच्छति || गीता 5/24 ||
अर्थात् जो पुरुष
अंतरात्मा में ही सुख वाला है,
आत्मा में ही रमण करने वाला है
तथा जो आत्मा में ही ज्ञान वाला है, वह सच्चिदानंद
घन पर ब्रह्म परमात्मा के साथ एकीभाव को प्राप्त सांख्य योगी शांत ब्रह्म को प्राप्त
होता है |यही जीवित रहते हुए
मुक्त हो जाना है |
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||
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