विकर्म-
विकर्म ऐसे कर्म कहलाते हैं, जो किसी भी कामना
की पूर्ति के लिए प्रारम्भ तो सकाम-कर्म की तरह ही प्रारम्भ किये जाते हैं परन्तु जिनका समापन
और करने का तरीका नियम और शास्त्र विरुद्ध होता है |इन कर्मों का ध्येय येन केन
प्रकारेण अपना लक्ष्य हासिल करना होता है |इस लक्ष्य प्राप्ति के लिए व्यक्ति अपने
स्तर से गिर जाता है और अपने इन कर्मों से वह कई अन्य व्यक्तियों के लिए दुःख और
परेशानी पैदा कर देता है |जो कर्म अपने लिए सुख और दूसरों के लिए दुःख प्रदान करता
हो वे कर्म ही विकर्म कहलाते हैं | विकर्म करने वाले मनुष्यों के बारे में भगवान
श्री कृष्ण गीता में स्पष्ट रूप से कहते हैं कि-
अज्ञश्चाश्रद्दधानश्चसंशयात्मा
विनश्यति |
नायंलोकोSस्ति नपरो न सुखं संशयात्मनः||गीता 4/40||
अर्थात् विवेकहीन और
श्रद्धा रहित संशय युक्त मनुष्य परमार्थ से अवश्य भ्रष्ट हो जाता है | ऐसेसंशय
युक्त मनुष्य के लिए न तो यह लोक है और न परलोक है और न सुख ही है |
ऐसे कर्म केवल तामसिक गुणों
से युक्त मनुष्य ही कर सकता है |तामसिक गुणों से युक्त व्यक्ति के कर्म भी तामसिक
ही होते हैं और इन्हीं कर्मों को हम विकर्म कहते हैं |ऐसे काम प्रायः विवेकहीन
मनुष्य, जिन्हें शास्त्रोक्त कर्मों के प्रति श्रद्धा नहीं होती, ही करते हैं |ऐसे
मनुष्य न तो इस जन्म में सुख प्राप्त कर सकते हैं और न ही नई योनि में जन्म लेकर |ऐसे
व्यक्ति सदैव ही संशय ग्रस्त रहते हैं |वे अनुचित और उचित में भेद ही नहीं कर पाते
हैं | वे अनुचित कार्य को ही उचित मानते हैं |इस लोक में रहना और परलोक में रहना
उनके लिए दुष्कर है, सुख प्राप्ति की तो वे कल्पना ही नहीं कर सकते |जो व्यक्ति
अनुचित कर्म को उचित बताते हुए करते हैं, आप देख लीजिये वे कितने सुख पूर्वक जीवन
जीते हैं? वे न तो रात को चैन से सो पाते हैं, न दिन में स्वतंत्र रूप से घूम फिर सकते
हैं |उन्हें सदैव ही अपने मर जाने अथवा किसी के द्वारा मारे जाने का भय सताता रहता
है |वे सदैव ही भयग्रस्त रहते हैं |ऊपर से दिखावे के तौर पर भले ही वे बहादुर और
सुखी नज़र आते हों परन्तु भीतर से वे उतने ही कमजोर और दुःखी होते हैं |इसी लिए यह
कहा गया है कि ऐसे मनुष्यों के लिए न तो यह लोक है, न परलोक है और न ही किसी
प्रकार का सुख है |
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||
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