Monday, March 30, 2015

मानव-श्रेणी |-3

                                         एक बार भगवान बुद्ध उसी जंगल से विहार कर रहे थे,जिस जंगल में डाकू अंगुलिमाल लूटपाट  करता था |आज अंगुलिमाल को सुबह से ही कोई व्यक्ति नहीं मिला था,जिसकी अँगुलियों की वह माला बना सके |वह झाड़ियों की ओट में  बैठा किसी ऐसे व्यक्ति का इंतजार कर रहा  था , जो उसका शिकार  बन  सके |आखिर उसका इंतजार समाप्त हुआ | भगवान् बुद्ध के रूप में ऐसा  व्यक्ति उसे आता हुआ नज़र आया |ज्योंही भगवान बुद्ध उन झाड़ियों के सामने से गुजरने लगे,जिनके पीछे अंगुलिमाल छुपा हुआ था ,एक आवाज बुद्ध को सुनाई दी-"ठहरो"| यह आवाज अंगुलिमाल की थी,जो भगवान् बुद्ध को रूकने का कह रही थी |भगवान बुद्ध "ठहरो" सुनते ही पीछे की तरफ पलटे |झाड़ियों की ओट से बाहर आकर अंगुलिमाल उनके सम्मुख खड़ा था |उसकी आँखे लाल सुर्ख थी |आँखों से वहशीपन की ज्वाला निकल रही थी |उसकी आँखों से खून टपक रहा था |आतंक साफ दृष्टिगोचर हो रहा था | उस आतंक की प्रतिमूर्ति को देखकर भी भगवान बुद्ध निर्विकार भाव से खड़े रहे थे | उनके मुख पर अंगुलिमाल के प्रति करूणा के भाव थे |उन्होंने अंगुलिमाल को संबोधित करते हुए  बहुत  ही मधुर शब्दों  में  कहा-"मैं तो कभी का  ठहर चूका,परन्तु तुम कब ठहरोगे,अंगुलिमाल ?"
                                   अंगुलिमाल के जीवन में ऐसा पहली बार हुआ  था जब कोई व्यक्ति उसके सामने  खड़ा होकर,आँखों में आँखे डालकर,बड़ी ही करुणा और प्रेमपूर्वक उससे कह रहा था |भगवान बुद्ध के  द्वारा कहा गया यह वाक्य अंगुलिमाल को भीतर तक  घायल कर  गया |जो व्यक्ति आज तक किसी की भी  एक बात तक सुनना पसंद नहीं करता था ,आज इस  एक वाक्य को सुनकर घायल  हो गया था | अंगुलिमाल ने विचार किया-"यह कैसा व्यक्ति है,जो मृत्यु को सामने खड़ा देखकर भी  विचलित नहीं है ? मेरे से डरकर लोग मेरे सामने   आने से कतराते थे और यह मनुष्य बिना किसी डर के मेरे सामने खड़ा  है |हो ना है यह व्यक्ति साधारण मनुष्य तो नहीं है |"
                      अंगुलिमाल घायल हो चूका था |उसने तत्काल  ही भगवान बुद्ध के चरण  पकड़ लिए |जीवन में अपने द्वारा  किये हुए कुकृत्यों की क्षमा मांगने लगा | भगवान ने उसे उठाकर गले से लगा लिया |आज अंगुलिमाल बिना किसी हिंसा के मर गया और एक बोद्ध भिक्षु का जन्म हुआ  |  यह है गुरु की भूमिका,जिसने एक भयंकर डाकू को सिद्ध पुरुष में  परिवर्तित कर दिया |
क्रमशः
                                         ॥ हरिः शरणम्  ॥ 

Friday, March 27, 2015

मानव-श्रेणी |-2

                           हमने प्रत्येक व्यक्ति को उसकी अपनी सोच के अनुसार पांच श्रेणियों में  रखा है ,यथा-पामर.विषयी,साधक,सिद्ध और परमात्मा । इसमे से प्रत्येक श्रेणी में अवस्थित मनुष्य के लक्षणों के बारे में हम कुछ जानकारी लेते हैं । वैसे अंतिम श्रेणी परमात्मा में कोई कोई विरला ही प्रवेश कर पाता है । इस उच्चत्तम अवस्था को प्राप्त पुरुष स्वयं ही परमात्मा हो जाता है । इन समस्त श्रेणियों के बारे में जानकारी प्राप्त करना इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि व्यक्ति अपने स्तर का  आकलन कर उच्च स्तर को प्राप्त करने का प्रयास कर सकता है । यह बहुत बड़ी विडंबना है कि व्यक्ति को आनंद अपनी ही श्रेणी में रहने का आता रहता है, जिस कारण  से उसके ह्रदय में कभी भी ऐसा भाव आना  असंभव होता है कि वह अपने आत्मिक स्तर को उच्च  स्तर पर ले जाये । उच्च स्तर को प्राप्त करने के लिए किसी मार्गदर्शक की आवश्यकता होती है । उस मार्गदर्शक को हम लोग गुरु की संज्ञा देते हैं  ।
                         संसार में पामर से सिद्ध  के स्तर को प्राप्त करनेवालों में एक नाम अंगुलिमाल का भी है । वह एक पामर स्तर का ,निम्नतम श्रेणी का मनुष्य था ,जो प्रतिदिन एक व्यक्ति की निर्मम  हत्या करके उसकी अंगुलियाँ काट डालता था । फिर उन अँगुलियों को एक धागे में पिरोकर उसकी माला बनाकर अपने गले  में डाल लेता था । उस माला को पहने हुए वह दिन भर इधर उधर घूमते हुए लूटपाट करता रहता था । फिर अगले दिन किसी अन्य व्यक्ति  को मारकर उसकी अँगुलियों की माला बनाकर गले में डाल कर दिनभर लूटपाट करता रहता था । गले में अँगुलियों की माला पहने देखकर कोई भी व्यक्ति आतंकित हो सकता है । इस आतंक के कारण किसी भी व्यक्ति में इतनी हिम्मत  नहीं होती थी कि वह अंगुलिमाल का विरोध  कर सके ।
                        परन्तु एक दिन उसे भी मार्गदर्शक मिल ही गया ।  भगवान् बुद्ध ही उसके गुरु  बने । भगवान बुद्ध द्वारा कहे गए एक वाक्य से ही उसका ह्रदय परिवर्त हो गया और वह पामर श्रेणी से सिद्ध की श्रेणी को प्राप्त हो गया ।
क्रमशः
                                   ॥ हरिः शरणम्   ॥
                                             

Tuesday, March 24, 2015

मानव-श्रेणी-1

                      संसार में जी रहे समस्त मनुष्य अपने अपने तरीके से इस संसार को तथा इस संसार में रहने वाले अन्य मनुष्यों और प्राणियों को अपने अपने नजरिये से देखते हैं । हम उसे उसकी "सोच" का नाम दे सकते हैं । उसकी अपनी यह व्यक्तिगत सोच ही उसे एक स्तर प्रदान करती है । उसकी इस सोच से हम उस व्यक्ति के स्तर का आकलन कर सकते हैं । इस सोच के अनुसार संसार में व्यक्तियों को पांच विभिन्न प्रकार की श्रेणियों में रखा जा सकता है । उन्हें  निम्न प्रकार से वर्गीकृत  किया  जा सकता  है :-
(1 )पामर- इस श्रेणी में वे व्यक्ति रखे जा सकते हैं,जिन्हे संसार में सब ओर तथा सब कुछ बुरा ही बुरा नज़र आता है । यहाँ तक कि स्वयं में भी कुछ अच्छा नज़र नहीं आता है ।
(2 )विषयी- ये ऐसे व्यक्ति होते है,जो स्वयं को सबसे उच्च और अच्छा समझते हैं,शेष सब कुछ इस संसार में उन्हें बुरा ही बुरा नजर आता है ।
(3 )साधक - तीसरी श्रेणी में साधक आते हैं ।ये ऐसे व्यक्ति होते है, जिनकी दृष्टि में स्वयं को छोड़कर इस संसार में सब कुछ अच्छा है । वे स्वयं को बुरा समझते है और अपनी बुराइयों को ढूंढते रहते हैं । मिल  जाने उन बुराइयों को अपने से बाहर निकाल फेंकने का प्रयास करते हैं । यही उनकी साधना होती है ।
(4 )सिद्ध- सिद्ध की श्रेणी ऐसे व्यक्तियों की होती है,जिन्हें इस संसार में सब कुछ अच्छा ही अच्छा नज़र आता है ,कहीं पर भी कुछ  भी बुरा नहीं है ,स्वयं में भी और किसी अन्य में भी ।
(5 )परमात्मा-यह सबसे उच्च कोटि की श्रेणी है । जिस व्यक्ति को इस संसार में स्वयं में भी और समस्त संसार ही नहीं बल्कि ब्रह्माण्ड तक में केवल परमात्मा ही परमात्मा नज़र आते हैं । छोटे से बड़े सब एक समान ,सारी सृष्टि ही परमात्मामय । दुर्भाग्य से इस श्रेणी को प्राप्त करना दुष्कर ही नही अपितु  असम्भव  भी है । इस श्रेणी के बारे में गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज रामचरितमानस में लिखते हैं-
 "सोइ  जानइ जेहि देहु  जनाई ।जानत तुम्हहि  तुम्हइ  होइ जाई  ॥ मानस 2 /127 /3 ॥
   अर्थात, जिनको परमात्मा  ही चहुँ ओर  दिखता है, उनमें परमात्मा को जानने की  प्रक्रिया परमात्मा ही  शुरू करता है और ज्योंही वह परमात्मा को जान जाता है वह स्वयं ही परमात्मा हो जाता है ।
                              ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Saturday, March 21, 2015

कर्मयोग |-36

                 उपरोक्त चारों चरण ,कर्मयोग को उपलब्ध होने के कदम है |इन चारों चरणों के संपन्न होते ही व्यक्ति कर्मयोगी हो जाता है | कर्मयोगी होते ही कर्मों का चयन भी निष्प्रभावी हो जाता है | जैसा कि मैंने अकर्म या निष्काम कर्म के अंतर्गत उल्लेख किया है कि कर्मयोग के लिए कर्मों की पसंद या नापसंद नहीं होनी चाहिए |इसके विपरीत कर्मयोग के पथ का प्रथम चरण ही कर्मों का चयन है | आपको यह दोनों बातें विरोधाभासी लग सकती है | परन्तु वास्तव में ये विरोधी है नहीं| कर्मयोग के प्रारम्भ में आपको कर्मों का चयन करना ही होगा परन्तु इस मार्ग पर आगे बढ़ने पर यह चयन स्वतः ही समाप्त हो जाता है क्योंकि निष्काम कर्म करते हुए आप ऐसे किसी भी चयन से ऊपर उठ चुके होते हैं |

              जब आप कर्मयोग के पथ पर चौथे चरण को पार कर लेते हैं ,तो स्वतः ही कर्मों का चयन समाप्त हो जाता है | अब आपसे सकाम कर्म अथवा विकर्म संभव ही नहीं होंगे |आप जो भी कर्म करेंगे,वे सभी कर्म कामना रहित और कर्तापन भाव से मुक्त होंगे | ऐसी स्थिति आ जाती है कि आप कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखने लगते है |आपके लिए न तो कोई कर्तव्य रहेगा और न ही कोई कर्म |आप जो भी कर्म करेंगे, वे सभी कर्म और उनका फल, सभी परमात्मा को समर्पित होंगे| ऐसे में कहाँ तो कर्म होंगे और कौन होगा कर्ता ? इसी कर्म की अवस्था को कर्म योग और व्यक्ति को कर्मयोगी कहा जाता है |              
                           || हरिः शरणम् ||
                नववर्ष 2072 की शुभकामनाएं ।

Wednesday, March 18, 2015

कर्मयोग |-35

तृतीय चरण-
     कर्मयोग के रास्ते पर रखे जाने वाला तीसरा कदम है- त्याग | लोभ, मोह, अहंकार, ममता, कामना और आकांक्षा आदि का त्याग | जो शांति मनुष्य को त्याग से मिलती है किसी अन्य कार्य से नहीं | चाहे वह त्याग भौतिक वस्तुओं का हो, चाहे ममता का हो |लोभ ,मोह और अहंकार आदि मनुष्य की कामनाओं और आकांक्षाओं का ही अतिरिक्त विस्तार है | गोस्वामी तुलसीदासजी ने श्रीरामचरितमानस में लिखा है –“काम क्रोध मद लोभ सब, नाथ नरक के पंथ|” और जो नरक का रास्ता है ,वह कर्मयोग का रास्ता भला कैसे हो सकता है? अतः मनुष्य को कर्म योग के पथ पर आगे बढ़ने के लिए इन सबके त्याग का कदम उठाना ही होगा |

चतुर्थ चरण-

        कर्मयोग के पथ का चौथा चरण है-कर्म और कर्मफलों के समर्पण का | जब कर्मों का चयन हो जाता है, व्यक्ति भूत को विस्मृत कर, भविष्य का ख्याल न रखते हुए लोभ, मोह ,ममता और अहंकार का त्याग करते हुए कर्म करता है, ऐसी अवस्था में भी उसके भीतर कहीं गहराई में उन कर्मों के फल मिलने की एक आशा अभी भी साँस ले रही होती है | ऐसे में उसके सामने एक ही विकल्प इस कर्म फल बंधन को तोड़ने का रहता है, वह है कर्म फल का त्याग | जब तक कर्म फल का त्याग नहीं होगा तब तक व्यक्ति कर्मयोगी नहीं हो सकता |इस चरण के अंतर्गत व्यक्ति स्वयं को न तो किसी कर्म का कर्ता मानता है और न ही कर्मफल का अधिकारी | सब कर्म और उनके फल वह परमात्मा को कि समर्पित कर देता है | अतः चौथा चरण है –समर्पण का |
क्रमशः 
                    || हरिः शरणम् || 

Sunday, March 15, 2015

कर्मयोग |-34

प्रथम चरण-
      कर्मयोग के पथ पर आगे बढ़ने के लिए प्रथम कदम होता है, कर्मों का चयन | कर्मों का चयन आप केवल तीन प्रकार के कर्मों में से ही एक प्रकार का कर सकते हैं |सकाम कर्म और विकर्म दोनों ही कर्मयोग के अंतर्गत नहीं आते हैं |अतः आपका चयन निष्काम कर्म ही होना चाहिए |अगर आपने सकाम कर्म का चयन किया तो आप कर्मों और उसके  फलों में आसक्त होकर कर्म-बंधन में बंध जायेंगे और अगर आपने विकर्म को चुन लिया तो फिर आप सदैव भयग्रस्त रहने को अभिशप्त होंगे |अतः निष्काम कर्म ही कर्मयोग के लिए उचित कर्म हैं |

द्वितीय चरण-

     कर्मयोग के पथ का दूसरा कदम होता है- वर्तमान में रहते हुए वर्तमान के लिए ही कर्म करना | हम सभी लोग कहने मात्र को वर्तमान में जीते हैं| परन्तु गहराई से विचार करें तो वर्तमान में हम सदैव ही भूत और भविष्य की परछाई में जी रहे होते हैं | हमें अपने भूतकाल से पिंड छुड़ाना होगा, उसे कहीं गहराई में दफ़न करना होगा, उसे विस्मृत करना होगा | ठीक इसी प्रकार भविष्य को भी अनदेखा करना होगा और सोचना होगा कि जो सत्य है वह सिर्फ और सिर्फ वर्तमान है शेष सभी कुछ असत्य है |इस बात को आत्मसात करने से ही आप निष्काम कर्म करने को प्रेरित हो सकते हैं, अन्यथा भूत और भविष्य में रहते हुए तो केवल सकाम-कर्म या विकर्म ही हो सकते हैं और सकाम-कर्म  तथा विकर्म आपको कभी भी कर्मयोगी  नहीं  बना सकते । 
क्रमशः 
                     || हरिः शरणम् ||

Thursday, March 12, 2015

कर्मयोग |-33

                       इस प्रकार हमने कर्मों की गति की गहनता पर विचार किया |तीनों प्रकार के कर्मों की विशेषताओं पर गहराई से विचार करके उनको आत्मसात कर लेने पर ही हम कर्मयोग के पथ पर अग्रसर हो सकते हैं |कर्मों के बारे में स्पष्ट रूप से समझ लेने और उसी अनुरूप कर्म करने वाला ही कर्मयोगी कहला सकता है, प्रत्येक प्रकार के या केवल कर्म करने वाला नहीं |
कर्म-योग का पथ-

     सभी प्रकार के कर्मों की विशेषताओं को भली भांति समझ कर मनुष्य अपने लिए किये जाने वाले कर्मों का चयन कर सकता है |कर्मों की विशेषताएं ही यह तय करता है कि वे कर्म कर्मयोग के अनुरूप है या नहीं |प्रत्येक कर्म को करने के पीछे क्या भावना है, वह कर्म करने से अधिक महत्वपूर्ण है |अगर कर्म करने के पीछे कुछ प्राप्त करने की भावना होती है तो फिर यह कर्मयोग नहीं है | व्यक्ति सत्कर्म करता ही इसी लिए है कि उस कर्म के फल उसे प्राप्त हो, ऐसे कर्म करके आप कर्म योगी नहीं हो सकते |आज के समय व्यक्ति दान करने में भी अपनी प्रशंसा पाने का इच्छुक रहता है, ऐसा दान भी वास्तविकता में दान नहीं है |मैंने अपने बुजुर्गों से सुना है कि दान ऐसा होना चाहिए कि जो कुछ भी आप दाहिने हाथ से दे रहे हैं उसकी भनक तक बाये हाथ को भी नहीं होनी चाहिए |चलिए, अब विचार करते है कर्मयोग पर, ऐसे कर्मों का,जिसे करने पर मनुष्य कर्म योगी बन सकता है |
क्रमशः 
             || हरिः शरणम् ||

Monday, March 9, 2015

कर्मयोग |-32

विकर्म-
                  विकर्म ऐसे कर्म कहलाते हैं, जो किसी भी कामना की पूर्ति के लिए प्रारम्भ तो सकाम-कर्म की तरह ही प्रारम्भ किये जाते हैं परन्तु जिनका समापन और करने का तरीका नियम और शास्त्र विरुद्ध होता है |इन कर्मों का ध्येय येन केन प्रकारेण अपना लक्ष्य हासिल करना होता है |इस लक्ष्य प्राप्ति के लिए व्यक्ति अपने स्तर से गिर जाता है और अपने इन कर्मों से वह कई अन्य व्यक्तियों के लिए दुःख और परेशानी पैदा कर देता है |जो कर्म अपने लिए सुख और दूसरों के लिए दुःख प्रदान करता हो वे कर्म ही विकर्म कहलाते हैं | विकर्म करने वाले मनुष्यों के बारे में भगवान श्री कृष्ण गीता में स्पष्ट रूप से कहते हैं कि-
                       अज्ञश्चाश्रद्दधानश्चसंशयात्मा विनश्यति |
                       नायंलोकोSस्ति नपरो न सुखं संशयात्मनः||गीता 4/40||
अर्थात् विवेकहीन और श्रद्धा रहित संशय युक्त मनुष्य परमार्थ से अवश्य भ्रष्ट हो जाता है | ऐसेसंशय युक्त मनुष्य के लिए न तो यह लोक है और न परलोक है और न सुख ही है |

                   ऐसे कर्म केवल तामसिक गुणों से युक्त मनुष्य ही कर सकता है |तामसिक गुणों से युक्त व्यक्ति के कर्म भी तामसिक ही होते हैं और इन्हीं कर्मों को हम विकर्म कहते हैं |ऐसे काम प्रायः विवेकहीन मनुष्य, जिन्हें शास्त्रोक्त कर्मों के प्रति श्रद्धा नहीं होती, ही करते हैं |ऐसे मनुष्य न तो इस जन्म में सुख प्राप्त कर सकते हैं और न ही नई योनि में जन्म लेकर |ऐसे व्यक्ति सदैव ही संशय ग्रस्त रहते हैं |वे अनुचित और उचित में भेद ही नहीं कर पाते हैं | वे अनुचित कार्य को ही उचित मानते हैं |इस लोक में रहना और परलोक में रहना उनके लिए दुष्कर है, सुख प्राप्ति की तो वे कल्पना ही नहीं कर सकते |जो व्यक्ति अनुचित कर्म को उचित बताते हुए करते हैं, आप देख लीजिये वे कितने सुख पूर्वक जीवन जीते हैं? वे न तो रात को चैन से सो पाते हैं, न दिन में स्वतंत्र रूप से घूम फिर सकते हैं |उन्हें सदैव ही अपने मर जाने अथवा किसी के द्वारा मारे जाने का भय सताता रहता है |वे सदैव ही भयग्रस्त रहते हैं |ऊपर से दिखावे के तौर पर भले ही वे बहादुर और सुखी नज़र आते हों परन्तु भीतर से वे उतने ही कमजोर और दुःखी होते हैं |इसी लिए यह कहा गया है कि ऐसे मनुष्यों के लिए न तो यह लोक है, न परलोक है और न ही किसी प्रकार का सुख है |
क्रमशः 
                           || हरिः शरणम् ||

Friday, March 6, 2015

कर्मयोग |-31

गीता के अंतिम अध्याय में श्री कृष्ण अर्जुन को कर्म करने को ही सही ठहराते  हुए स्पष्ट करते हैं कि-     
                        सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत् |
                        सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृता: ||गीता 18/48 ||
अर्थात् हे कुन्तीपुत्र ! दोषयुक्त होने पर भी सहज कर्म को नहीं त्यागना चाहिए, क्योंकि धुएं से अग्नि की भांति सभी कर्म किसी न किसी दोष से युक्त हैं |सहज कर्म वे कर्म होते हैं जो प्रकृति के अनुसार नियत किये हुए होते हैं और वे सभी कर्म किसी न किसी गुण से युक्त अवश्य ही होते हैं | गुणों का व्यक्ति चयन कर उसी के अनुरूप किसी भी प्रकार का कर्म करने को स्वतन्त्र है |              
          ऐसे ही मनुष्यों के लिए श्री कृष्ण गीता में कहते हैं कि-
                             न कर्मणामनारम्भान्नैनेष्कर्म्यं पुरुषोsश्रुते |
                               न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति || गीता 3/4 ||
अर्थात् मनुष्य न तो कर्मों का आरम्भ किये बिना निष्कर्मता को यानि योग निष्ठा को प्राप्त होता है और न कर्मों के केवल त्याग मात्र से सिद्धि यानि सांख्य निष्ठा को ही प्राप्त होता है |
                                   इस श्लोक का आशय यही है कि व्यक्ति को जिस किसी भी कार्य करने की जिम्मेदारी मिलती है अगर वह पूरे मनोयोग से उस कार्य को समता के साथ कर्म करते हुए संपन्न करता है ,तो ऐसे किसी भी कर्म के दोषयुक्त होते हुए भी उसे उस कर्म का फल नहीं मिलेगा |यही अवस्था निष्कर्मता कहलाती है |इसे एक उदाहरण से स्पष्ट करूँगा-जैसे जज न्याय करते हुए किसी व्यक्ति को फांसी की सज़ा सुनाता है तो यह कर्म उस जज को किसी भी प्रकार का फल नहीं देगा |इसी सज़ा को क्रियान्वित करते हुए कोई जल्लाद अपराधी को फांसी चढ़ाता है तो उस जल्लाद को भी ऐसे कर्म के दोषयुक्त होते हुए भी उसका फल नहीं मिलेगा |यही वास्तविक अर्थों में निष्कर्मता है |
         इसी निष्कर्मता को और स्पष्ट करते हुए गीता में आगे भगवान् श्री कृष्ण स्पष्ट करते हैं-
                               योSन्तःसुखोSन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव यः |
                                स योगी ब्रह्मनिर्वाणब्रह्मभूतोSधिगच्छति || गीता 5/24 ||

अर्थात् जो पुरुष अंतरात्मा में ही सुख वाला है, आत्मा में ही रमण करने वाला है तथा जो आत्मा में ही ज्ञान वाला है, वह सच्चिदानंद घन पर ब्रह्म परमात्मा के साथ एकीभाव को प्राप्त सांख्य योगी शांत ब्रह्म को प्राप्त होता है |यही जीवित रहते हुए मुक्त हो जाना है |
क्रमशः 
                            || हरिः शरणम् ||

Tuesday, March 3, 2015

कर्म-योग |-30

                        इसी सन्दर्भ में एक बात और स्पष्ट करना चाहूँगा-अकर्म और निष्काम-कर्म के भेद की |निष्काम-कर्म और अकर्म में भेद बहुत अधिक नहीं है इसीलिए इनको एक समान समझा जाता है |कामना रहित कर्म को निष्काम-कर्म कहा जाता है और यह निष्काम-कर्म, किसी कर्म के न करने के लगभग समान ही है, अतः निष्काम-कर्म,अकर्म बन जाते हैं |भाषा की दृष्टि से अगर देखा जाये तो इस अकर्म  का शाब्दिक अर्थ है,कर्म का न करना |जब कामना रहित और बिना कर्तापनके कर्म किये जाते हैं तो वे कर्म अकर्म हो जाते हैं क्योंकि करने वाले को ऐसे कर्म करने का भान ही नहीं रहता है | एक मुहावरा है न कि “नेकी कर और दरिया में डाल” अर्थात सत्कर्म करो और भूल जाओ |यही वास्तव में कर्म करते हुए भी कर्म न करना है |इन्हीं कर्मों को हम निष्काम-कर्म कहते है जो अकर्म बन जाते हैं |
गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
        यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः |
       आत्मन्येव च संतुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते || गीता3/17 ||
अर्थात् जो मनुष्य आत्मा में ही रमण करने वाला और आत्मा में ही तृप्त तथा आत्मा में ही संतुष्ट हो, उसके लिए कोई कर्तव्य नहीं है | भगवान यहाँ पर स्पष्ट कर देते हैं कि जो मनुष्य स्वयं को जान लेता है और स्वयं के भीतर सब और से संतुष्ट और तृप्त हो जाता है ,उसके लिए कोई कर्म करना आवश्यक नहीं है और उसके लिए कोई कर्तव्य नहीं होता |ऐसे मनुष्य किसी कर्म को करने से पहले उस कर्म के परिणाम के बारे में किसी प्रकार का विचार नहीं करते |जो व्यक्ति कर्म करने से पहले उसके परिणाम के बारे में किसी भी प्रकार का विचार नहीं करता, ऐसी स्थिति में उसके सामने किसी भी प्रकार के कर्म करने की पसंद और नापसंद भी नहीं होती |जो कर्म बिना किसी पसंद (Choice) के किये जाते हैं,वे सभी कर्म अकर्म होते हैं |इसीलिए इन कर्मों को करने वाला इस कार्य को करने में अपना कर्तव्य नहीं समझता |ऐसा व्यक्ति कर्म-बंधन, कर्तव्य-बोध तथा कर्तापन से मुक्त होता है |
क्रमशः 
                   || हरिः शरणम् ||