Wednesday, January 28, 2015

कर्म-योग |-19

                         परन्तु होता ठीक इसके विपरीत है |मनुष्य अपनी इन आसानी से प्राप्त उपलब्धियों पर इतराते हुए अहंकारित हो जाता है |फिर अपने अहंकार की पूर्ति और इस अहंकार को सुरक्षित रखतने के लिए वह दुगुने जोश से योग-कर्म करने लगता है |परन्तु जब पूर्वजन्म के कर्मों के फल, भोग-कर्म करते करते इस जन्म में समाप्तप्राय होने  लगते हैं, तब योग-कर्मों को करते हुए भी व्यक्ति अपनी उपलब्धियां बरकरार नहीं रख सकता | इस स्थिति में मनुष्य का पतन प्रारम्भ हो जाता है |यही वह अवस्था है जब व्यक्ति अपनी नाकामियों के लिए भाग्य और ईश्वर को दोष देने लगता है , जबकि इसमें किसी का कोई दोष नहीं होता है |वह अपने पूर्वजन्म के कर्मों के फल भोग चूका है तथा उसके बाद किये जा रहे योग-कर्मों का फल उसे अब नए जन्म में ही मिलना संभव है, वर्तमान जीवन में नहीं| इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि भोग-कर्म जीवन के प्रारंभ में ही किये जा सकते हैं |भोग-कर्म करते हुए व्यक्ति योग-कर्म करना प्रारम्भ कर देता है |इसके उपरांत भोग-कर्म और योग-कर्म समानान्तर चलते रहते हैं| परन्तु इस जीवन में जो भी फल मनुष्यों को कर्म करने पर मिलते हैं,वे सभी फल भोग-कर्मों के परिणाम है,न कि योग-कर्मों के|

               फिर भी व्यक्ति को कभी भी योग-कर्म से विमुख नहीं होना चाहिए |आज नहीं तो कल,इन किये गए कर्मों का फल मिलना अवश्यम्भावी है |इन कर्मों के फल प्राप्त करने के लिए मनुष्य को इंतजार करना ही होगा |तत्काल फल कभी भी नहीं मिल सकता |हाँ,यह परिस्थिति व्यक्ति को आत्म-निरीक्षण करने का अवसर अवश्य ही प्रदान करती है |व्यक्ति अपनी असफलता के लिए अपने योग-कर्मों को परिवर्तित करने का भी सोच सकता है |कौन से योग-कर्म करने उसके लिए उचित होंगे और कौन से अनुचित? यह समझ में आते ही व्यक्ति कर्म को करने से विमुख नहीं होगा और अपने किये कर्मों के फलों को प्राप्त करने के लिए धैर्य भी नहीं खोएगा | संसार में जितने भी योगी और महापुरुष हुए है, वे जन्म से ही इस रूप में पैदा नहीं हुए थे |इसी प्रकार वे भी भोग-कर्म करते हुए सफलता को प्राप्त हुए और फिर जब योग-कर्म करते हुए वांछित सफलता प्राप्त नहीं कर पाए तो उन्होंने आत्म-चिंतन किया और पाया कि इतना सब कुछ करके भी सब कुछ पाना इस जीवन में संभव नहीं है |उन्होंने निर्णय किया कि फिर ऐसे योग-कर्म किये जाये जिनका फल कभी भी समाप्त नहीं हो और फल भी ऐसे हों जिनको प्राप्त करने के बाद मन में और फल प्राप्त करने की कामना ही न उठे | इस चिंतन ने अनको एक नयी दृष्टि प्रदान की |यह दृष्टि ही उनको योगी और महापुरुष बना सकी |
क्रमशः 
                     ॥ हरिः शरणम् ॥ 

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