Wednesday, January 7, 2015

कर्म-योग |-12

योग-कर्म से भोग-कर्म की यात्रा-
           मानव जीवन के प्रारम्भ में शिशु अवस्था में केवल भोग-कर्म ही सम्पादित होते हैं और इन कर्मों को करने या न करने पर शिशु का किसी भी प्रकार का नियंत्रण नहीं रहता है | ज्यों ज्यों शिशु का शारीरिक विकास होता है उससे कई गुना तेजी के साथ उसका मानसिक विकास होता है |बालक की 2 वर्ष की आयु आते आते मस्तिष्क का लगभग 90 प्रति शत विकास पूर्ण हो जाता है |शेष बचा 10 प्रति शत विकास समय के साथ साथ धीरे धीरे होता रहता है |इस अवधि में किये गए कर्मों से प्राप्त सफलता या विफलता को हम सांसारिक अनुभव का नाम दे देते हैं जबकि इस अनुभव की कीमत दो कौड़ी की नहीं होती है |दो वर्ष तक की आयु प्राप्त करने तक बालक भोग-कर्म में ही लगा रहता है उसके उपरांत वह योग-कर्म प्रारम्भ करने की तरफ अग्रसर होता है |उसका विकसित मस्तिष्क अब यह अनुभव करने लग जाता है कि कौन सा भोग-कर्म सुखप्रद है और कौन सा दुखदाई ? यह उसके मानव जीवन का प्रथम अनुभव और ज्ञान होता है जो उसे अपनी इन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त होता है |उसके भीतर केवल सुखप्रद कर्म करने या केवल सुख प्राप्त करते रहने की कामना का अंकुर फूट पड़ता है |पूर्व जन्म के स्वभाव से मिले प्राकृतिक गुणों के वशीभूत होकर वह अब भोग-कर्म के साथ योग-कर्म भी करने लगता  है |

               केवल सुख प्राप्त करने के लिए बालक अपने जीवन पहली बार असत्य का सहारा लेता  है |इससे पहले प्रायः उसे इसका ज्ञान भी नहीं हो पाता है |यह सब उसकी मानसिक दशा और मन में उठ रही कामनाओं का ही परिणाम है |एक बार जब वह सुख चाहने लगता है तब उसकी यह कामना उसे किसी भी प्रकार का कर्म करने को विवश कर देती है |कर्म करना उसमें उपस्थित गुणों के वश में होता है |सात्विक गुणों से युक्त बालक सुख प्राप्त करने के लिए शालीनता पूर्वक अपने माता-पिता से प्रार्थना करता है जबकि राजसिक गुणों से युक्त बालक सुख प्राप्त करने के लिए रोना-धोना या नाराज हो जाना सरीखे कर्म करता है |इसी प्रकार तामसिक गुणों से युक्त बालक सुख प्राप्त करने के लिए असत्य बोलना अथवा लड़ाई झगडा करना प्रारम्भ कर देता है और कई कई बार तो मारपीट करने पर उतारू हो जाता है |माता-पिता ,अपने बालक की यह सुख प्राप्त करने की कामना पूर्ण करने को तत्पर हो जाते है |वे यह विचार करने का कष्ट तक नहीं करते कि बालक की यह कामना पूर्ण करना उचित है या अनुचित |अपने सुख की कामना की पूर्ति होते देख बालक में उपस्थित प्राकृतिक गुणों की प्रधानता इसी अनुरूप  बढती जाती है और वह उन्हीं गुणों के अनुरूप योग-कर्म करने को विवश हो जाता है |
क्रमशः 
                 || हरिः शरणम् ||

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