अब हम विचार करते हैं ,दूसरी परिस्थिति
का, जब माता-पिता उसकी सुख प्राप्त करने की कामना को ठुकरा देते हैं | ऐसी
परिस्थिति में सत गुणी बालक में राजसिक व तामसिक गुणों का प्रभाव बढ़ने लगता है या
फिर वह सत गुणों के आधार पर अपनी कामना को ही भूल जाता है |राजसिक और तामसिक गुणों
से युक्त बालक कामना पूर्ति न होने पर सत गुण से युक्त बालक की तरह व्यवहार करने
लगता है अथवा फिर अपने रज या तम गुणों को प्रधानता देने लग जाता है | प्रथम अवस्था
में बालक अपने व्यवहार में सुधार करते हुए शालीनता का व्यवहार सीख लेता है और
दूसरी परिस्थिति में वह उद्दंडता की तरफ अग्रसर हो जाता है | यह बालक की वह अवस्था
होती है, जब उसका व्यवहार उसका भविष्य निर्धारित करता है | इस प्रकार यह कहावत एक
दम सत्य है कि “पूत के पाँव पालने में ही दिखाई दे जाते हैं |”
यहाँ माता-पिता की भूमिका महत्वपूर्ण होती
है | बाल्यावस्था में अगर हम बच्चे की अनुचित कामना को पूरा न करें और उस कामना के बारे में बच्चे को सही और उचित तरीके से निर्देशित करें
तो हो सकता है कि बालक सही राह पर आगे बढे |इसीलिए माता-पिता को ही प्रथम शिक्षक
माना गया है और घर को विद्यालय | अपने पर्याप्त प्रयास के उपरांत भी अगर बालक सही
राह नहीं पकड़ता है तो फिर इसे हम प्रारब्ध का खेल ही कहेंगे |ऐसी स्थिति में
माता-पिता को अपने व्यवहार में शालीनता रखते हुए बच्चे की अनुचित कामना को ठुकरा
देना चाहिए और बच्चे के भविष्य को उसके प्रारब्ध पर छोड़ देना चाहिए |
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||
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