मनुष्य का
जीवन भोग-कर्मों को करने के साथ ही प्रारम्भ होता है |भोग-कर्मों के करते करते
मनुष्य कब योग-कर्म करने लग जाता है ,इसका उसे स्वयं ही पता नहीं चलता | कर्मों का
यह प्रारम्भ उसे कर्म-क्षेत्र के चक्रव्यूह में ढकेल देता है |इस संसार में आकर
उसकी गति उस भ्रमर की तरह हो जाती है जो पुष्प के रस का पान करने में यह भूल जाता
है कि रात होने वाली है और इस पुष्प की पंखुडियां बंद हो जाएगी |मनुष्य कर्म करने
में भी ऐसे ही उलझ जाता है कि उसके इस शरीर का संध्या काल आ जाता है और वह उसी
भंवरे की तरह केवल इन्द्रियों द्वारा रसपान करने में ही उलझ कर रह जाता है,
परमात्मा का उसे ध्यान ही नहीं रहता | अतः हम अपने मस्तिष्क में यह स्पष्ट कर लें कि
जीवन में कर्मों का प्रारम्भ भोग-कर्मों के करने के साथ ही होता है | मनुष्य लाख प्रयास
कर ले, अपने जीवन के प्रारम्भ में वह योग-कर्म कर ही नहीं सकता और भोग-कर्म करने
में मनुष्य प्रकृति के गुणों के अधीन होता है | इन प्रकृति प्रदत्त गुणों का
निर्धारण पूर्व के मनुष्य योनि में किये गए योग-कर्म के द्वारा होता हैं |
भोग-कर्म से ही योग-कर्म प्रारम्भ होते
हैं और योग-कर्म ही पुनर्जन्म में भोग-कर्म के रूप में करने पड़ते हैं |यह एक ऐसे चक्र
का निर्माण करते हैं, जिसका टूट पाना लगभग असंभव होता है | इसीलिए कर्म को संसार
की धुरी कहा गया है| सम्पूर्ण संसार इस कर्म को ही केंद्र में रखकर जीवित है | जिस
दिन जो भी मनुष्य इस कर्म-चक्र को तोड़ डालता है, उसके लिए उसी दिन यह संसार समाप्त
हो जाता है |यही वास्तविक मुक्ति है, देह छोड़कर
मुक्ति की कल्पना करना बिलकुल बे मानी है |अगर मुक्ति होगी तो इस मानव जन्म को
जीते हुए ही होगी , कर्म करते हुए ही होगी, बस केवल कर्म ऐसे होने चाहिए जो व्यक्ति
को इस कर्म-बंधन से मुक्त कर दे, इस भोग-कर्म और योग-कर्म के चक्रव्यूह को तोड़
डाले |
मनुष्य न जाने क्यों,
इतनी छोटी सी बात को भी आत्मसात नहीं कर पाता |वह भलीभांति जनता है कि इस संसार
में सकाम-कर्म कभी भी कर्म-बंधन से मुक्ति नहीं दिला सकते ,फिर भी वह इन्हीं कर्मों
को करते रहने को ही अपने जीवन का एक मात्र लक्ष्य बना लेता है |सकाम कर्म ही किसी व्यक्ति के कर्मयोगी
बनने में बाधक है |
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||
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