Monday, January 19, 2015

कर्म-योग |-16

भोग-कर्म से योग-कर्म की ओर जाने के कारण-
                बाल्यावस्था में भोग-कर्म को करते करते बालक सकाम कर्म के रूप में योग-कर्म करना प्रारम्भ कर देता है |भोग-कर्म करते हुए उसे जिन कर्मों से उसे आनंद या सुख का अनुभव होता है, वह उन कर्मों के प्रति आसक्त हो जाता है |इस आसक्ति में मुख्य भूमिका होती है ,हमारे मन की| मन, इन्द्रियों का राजा है|  वह इन्द्रियों से वैसे ही सुख को प्रदान करने का आदेश देता है, जैसे कर्मों को करने से उसे पूर्व में सुख की प्राप्ति हुई थी| इस आदेश की पालना के लिए कर्मेन्द्रियाँ कर्म करती है | जितना कथित सुख इन कर्मों से मन को प्राप्त होता है उतनी ही उन कर्मों के प्रति व्यक्ति की आसक्ति बढती जाती है |इस प्रकार भोग-कर्मों से प्राप्त सुख से प्रारम्भ हुए, योग-कर्मों से सतत कर्म करते रहने का एक कभी भी समाप्त न होने वाला एक चक्र बन जाता है |इस चक्र को तोड़ पाना साधारण व्यक्ति के वश में नहीं होता और वह कर्मों के इस चक्रव्यूह में फंस कर सारी उम्र छटपटाता रहता है | बाल्यावस्था में किये गए कर्म भोग-कर्म होते हैं और ऐसे कर्म कभी भी संचित नहीं होते |परन्तु इन भोग-कर्मों से प्राप्त सुख के प्रति आसक्त होकर जब व्यक्ति योग-कर्म करने लग जाता है, तब यही कर्म संचित होने लगते हैं |येसंचित कर्म ही व्यक्ति को पुनर्जन्म में ले जाते है और वह केवल भौतिक शरीरों में ही परिभ्रमण करता रहता है |इस प्रकार सुख के प्रति आसक्ति, व्यक्ति को ऐसे किसी भी सुख को प्राप्त करने के लिए किये जाने वाले कर्मों के प्रति भी आसक्त बना देती है |

                   बाल्यावस्थाके उपरांत जब बालक में बुद्धि का विकास होने लगता है तब वह विभिन्न प्रकार के योग-कर्मों में से उपयुक्त कर्मों का चयन कर अपने द्वारा किये जाने वाले कर्म निश्चित कर लेता है |इन कर्मों के चयन में बुद्धि का महत्त्व होता है| मनुष्य अपनी बुद्धि के द्वारा विभिन्नप्रकार के सुख-साधन प्राप्त करने की कामना पैदा कर लेता है |बुद्धि,इन कामनाओं को पूर्ण करने का उपाय खोजती है |इन उपायों में भविष्य में किये जाने वाले कर्मों का खाका होता है और फिर व्यक्ति का मन उसी के अनुसार योग-कर्म करने को विवश हो जाता है|
क्रमशः 
                   ||  हरिः शरणम् ||

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