योग-कर्म
के लिए आवश्यक तत्व-
जीवन में प्रारम्भ के दो वर्ष ही
अति महत्वपूर्ण होते हैं | इस अवधि में मानसिक विकास बड़ी ही तेजी के साथ होता है |इस
मानसिक विकास के साथ साथ प्रकृति के शेष बचे तीन जड़ तत्व मन, बुद्धि और अहंकार का भी
विकास होता है |उपरोक्त तीनों तत्व ही व्यक्ति को भोग-कर्म से योग-कर्म की तरफ अग्रसर
करते हैं |जिन शिशुओं में इन तीन
तत्वों का विकास अगर किसी कारणवश सुचारु
रूप से नहीं हो पाता तो फिर ऐसी स्थिति में उसका भोग-कर्म से योग- कर्म की तरफ
जाना असंभव है | मनुष्य के
अतिरिक्त अन्य प्राणियों में उपरोक्त तीनों तत्वों का या तो सर्वथा अभाव होता है
या फिर उनका विकास सुचारु रूप से नहीं हो पाता |इसी कारण से वे केवल भोग-योनियाँ
ही मानी जाती है |उनमें योग-कर्म
करने की क्षमता का विकास ही नहीं हो पाता |यही कारण है कि मनुष्य के अतिरिक्त अन्य
प्राणियों द्वारा किये जा रहे कर्मों का उन्हें किसी भी प्रकार का फल नहीं मिलता ,वे
कर्म संचित नहीं हो सकते |अतः इनको योग-कर्म नहीं कहा जा सकता |अन्य प्राणियों
द्वारा किये जा रहे कर्म, मात्र पूर्व मानव जन्म में किये गए कर्मों के फल के भोग
के लिए ही होते हैं|
ठीक इसी प्रकार जिन शिशुओं
में मन, बुद्धि और अहंकार का विकास नहीं होता,वे शिशु मात्र भोग-कर्म के लिए ही इस संसार में आते हैं |उनके द्वारा
योग-कर्म करना असंभव ही रहता है | अब प्रश्न यह पैदा होता है कि जब मानव योनि भोग
के साथ साथ योग या कर्म योनि है तो फिर कुछ शिशुओं में ऐसा कैसे हो सकता है ?इस
शंका का समाधान यह है कि मानव योनि कुछ परिस्थितियों में मात्र भोग-योनि ही बन कर
रह सकती है |जब पूर्व मानव जन्म में ऐसे कर्म हुए हो जो उसे मानव योनि तो उपलब्ध
करवा सकते हैं परन्तु योग-कर्म करने से वंचित भी रख सकते हैं |यह प्रायः ऐसी परिस्थितियों
में होता है जब व्यक्ति कर्म से विमुख होकर किसी भी प्रकार के कर्म करता ही नहीं
है, यहाँ तक कि कोई अनुचित मानसिक कर्म तक भी नहीं करता |यह एक प्रकार का कर्मों से पलायन करना हुआ और ऐसे में उसको नया जन्म किसी अन्य प्राणी के रूप में मिल ही नहीं सकता और वह पुनः मनुष्य के रूप में ही जन्म लेता है। इसी लिए कर्म करने से
पलायन करने को अनुचित माना गया है |
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||
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