Friday, January 16, 2015

कर्म-योग |-15

                  गीता में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को स्पष्ट रूप से कहते हैं कि अकर्म से कर्म श्रेष्ठ है और अकर्ता से कर्ता श्रेष्ठ है |यहाँ कुछ को यह महसूस हो सकता है कि गीता में यह एक बहुत बड़ा विरोधाभास है | अगर गंभीरता के साथ देखा जाये तो विरोधाभास कहीं पर भी नहीं है |भगवान एक दम स्पष्ट रूप से कहते हैं कि कर्म न करने से कर्म करना श्रेष्ठ है |इसका अर्थ यह है कि बिना कर्म किये मनुष्य अगले जन्म में मानव शरीर प्राप्त करके भी पशुवत जीवन जीने को अभिशप्त हो सकता है |अतः कर्म चाहे सकाम कर्म हो ,निष्काम कर्म हो या विकर्म, कर्म न करने से कर्म करना ही श्रेष्ठ है | यह अलग बात है कि इन तीनों कर्मों में कौन से कर्म श्रेष्ठ हैं? भगवान का यह कहना कि कर्ता, अकर्ता से श्रेष्ठ है, बिलकुल सत्य है क्योंकि कर्म करने वाला कर्ता कहलाता है |कर्ता कहलाना और अपने आपको कर्ता मानना दोनों भिन्न बाते है |भगवान श्री कृष्ण, अपने आप को कर्ता मानने को ही अनुचित बताते हैं, न कि कर्म करने को |
                 नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः |
                 शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः || गीता 3/8 ||
अर्थात् तू शास्त्र विहित कर्म कर; क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा |

        इससे यह स्पष्ट है कि व्यक्ति को शास्त्र सम्मत कर्म ही करने चाहिए |अकर्म से श्रेष्ठ कर्म हैं क्योंकि बिना कर्म किये शरीर का निर्वाह होना भी संभव नहीं है |अतः सभी परिस्थितियों में कर्म करना ही, कर्म न करने से श्रेष्ठ है | जो व्यक्ति परमात्मा की प्राप्ति के लिए घर बार छोड़ देते हैं और कर्म नहीं करना पसंद करते हैं; वे केवल ढोंगी मात्र है | 
क्रमशः
                  || हरिः शरणम् ||

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