Thursday, January 22, 2015

कर्म-योग |-17

              मन और बुद्धि के बाद योग-कर्मों को प्रारम्भ करने का महत्वपूर्ण कारण है-अहंकार | युवावस्था आते आते व्यक्ति का अहंकार भी विस्तार पाने लगता है |इस अहंकार के कारण व्यक्ति अपने द्वारा किये जा रहे योग-कर्मों से अपनी एक छवि बना लेता है |यह काल्पनिक छवि ही उसमें अहंकार पैदा करती है |जब उसकी इस छवि को किसी भी प्रकार की ठेस लगती है तो उसमें क्रोध पैदा होता है |क्रोध पैदा होने का सबसे एक महत्वपूर्ण कारण व्यक्ति के अहंकार को ठेस लगना भी है |अपनी ठेस लगी छवि को सुधारने के लिए व्यक्ति फिर योग-कर्मों को करने लग जाता है |अगर व्यक्ति में तामसिक गुणों की प्रधानता है तो वह ठेस पहुँचाने वाले व्यक्ति या व्यवस्था से प्रतिशोध लेने के लिए किसी भी प्रकार का कर्म करने को उद्यत हो जाता है |
           योग-कर्मों को प्रारम्भ करने में मन, बुद्धि और अहंकार को कारण के रूप में प्रस्तुत किया गया है| परन्तु इनमें से कर्म करने के लिए कोई एक अकेला कारण होना संभव नहीं है |मन, बुद्धि और अहंकार एक दूसरे के पूरक है |परन्तु मुख्य भूमिका मन की ही होती है | अमृत-बिंदु उपनिषद् में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि-
                       मन एव मनुष्याणां कारणंबन्धमोक्षयो: |
                       बन्धायविषयासक्तंमुक्तंनिर्विषयंस्मृतम् ||
अर्थात् मनुष्य का मन ही उसके बंधन और मोक्ष का एकमात्र कारण है |विषयों से अनासक्ति मन को मुक्त कर देती है और विषयों के प्रति आसक्ति उसके लिए बंधन बन जाती है |

           अतः यह स्पष्ट है कि मन, बुद्धि और अहंकार तीनों तत्वों में मुख्य भूमिका मन की ही होती है |मन की विषयों के प्रति आसक्ति अर्थात सुख प्राप्त करने की कामना ही व्यक्ति को योग-कर्म प्रारम्भ करने को विवश कर देती है |यह मन की विषयों के प्रति आसक्ति ही कर्मों का प्रारम्भ है |अब यही सोचने की बात है कि इस मन की आसक्ति से पार कैसे पाया जाये कि योग-कर्म करते भी रहें और आसक्ति से दूर भी रहें |यह ठीक उसी प्रकार के कर्म होंगे जैसे जल में पैदा होकर भी कमल उससे निर्लिप्त रहता है |इस संसार में पैदा होने वाला प्रत्येक मनुष्य प्रकृति प्रदत्त गुणों से कर्म करने को विवश अवश्य है परन्तु उसे संसारमें व्याप्त कोई भी कारण विकर्म अथवा सकाम कर्म या निष्काम कर्म करने को विवश नहीं कर सकता |कर्मों को करने के लिए व्यक्ति प्रकृति प्रदत्त गुणों के परवश अवश्य है परन्तु उसे योग-कर्मों में से अपने द्वारा किये जाने वाले कर्मों के चयन करने की स्वतंत्रता अवश्य है |  
क्रमशः 
                          || हरिः शरणम् ||    

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