योग-कर्म –
युवावस्था आते आते मनुष्य
योग-कर्मों को करने का अभ्यस्त हो जाता है ,हालाँकि भोग-कर्म उसका साथ कभी भी नहीं
छोड़ते हैं | वह बात और है कि व्यक्ति प्रत्येक कर्म को अपने द्वारा किया हुआ कर्म
ही मानता है |यही भाव कर्तापन कहलाता है |जबकि गीता में स्पष्ट लिखा है कि मूढ़
व्यक्ति ही “मैं कर्ता हूँ ” ऐसा मानता है |अतः किसी भी कर्म को करने का अर्थ यह
कदापि नहीं है कि आप कर्ता हो| भोग-कर्म से योग-कर्म और योग-कर्म से फिर भोग-कर्म,
यह चक्र अनवरत चलता रहता है, ऐसे में कोई कर्ता कैसे हो सकता है ?योग-कर्म और
भोग-कर्म एक दूसरे के पूरक हैं |अभी तक के विवेचन से यह स्पष्ट है कि भोग-कर्म करते हुए ही
व्यक्ति योग-कर्म करने लगता है और योग-कर्म से ही अगले जन्म में किये जाने वाले
भोग-कर्म तय होते हैं |अतः यह एकदम स्पष्ट है कि सब जगह योग-कर्म की भूमिका ही
मुख्य होती है |भोग-कर्म निश्चित करने में भी और साथ ही व्यक्ति को कर्म योगी बनाने
में | इसलिए योग-कर्म के बारे में जानना बहुत ही आवश्यक है |
योग-कर्म वे कर्म होते हैं जो
व्यक्ति द्वारा अपनी इच्छा पूर्ति करने के लिए करता है |इन कर्मों को करने में
व्यक्ति स्वयं का पूर्ण नियंत्रण रहता है और इन कर्मों से प्राप्त फल के लिए
एकमात्र वही जिम्मेदार होता है |इसमें न तो भाग्य का योगदान होता है और न ही किसी
अन्य का |जब इन कर्मों के अनुरूप व्यक्ति को फल प्राप्त नहीं होता है,तो वह इसके
लिए अपने भाग्य या परमात्मा को दोष देता है|यह धारणा एकदम असत्य है| जिस प्रकार
ऊर्जा को कभी भी समाप्त नहीं किया जा सकता उसी प्रकार कर्मों को भी कभी नष्ट नहीं
किया जा सकता | किये गए कर्मों का फल कभी न कभी प्राप्त होगा ही |प्रायः इस जन्म
में किये गए कर्मों का फल अगले जन्म में प्राप्त होता है और इन कर्मों के फल को
प्राप्त करने के लिए अगले जन्म में भोग-कर्म करने आवश्यक हैं |दूसरे शब्दों में
कहा जा सकता है कि कामना से किये गए कर्मों का फल नए जन्म में व्यक्ति को भोग-कर्म
करने पर आसानी से और अनायास ही प्राप्त हो जाते हैं |विडंबना यह है कि आसानी से और
अनायास प्राप्त हुए फल को मनुष्य अपनी योग्यता समझ लेता है |जबकि यह फल उसे
पूर्वजन्म में कामना वश किये गए योग-कर्मों का फल ही होता है |इससे यह निष्कर्ष
निकलता है कि व्यक्ति को अपनी उपलब्धियों पर कभी भी अभिमान नहीं करना चाहिए |यह सब
पूर्वजन्म के संस्कारों की ही देन है, ऐसा ही मानना चाहिए |
क्रमशः
॥ हरिः शरणम् ॥
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