Saturday, January 31, 2015

कर्म-योग |-20

                  महापुरुषों ने अपने योग-कर्म के प्रकार को बदला और फल प्राप्त करने की कामना का विसर्जन कर दिया |कामना के विसर्जन से उनके योग-कर्मों का प्रकार स्वतः ही बदल गया |इन योग-कर्मों से ही उनके जीवन को एक नई ऊँचाई मिली और वे इतिहास में अमर हो गए | कामना पूर्ति के लिए कर्म करके वे कभी भी महान नहीं बन सकते थे |अगर वे भी कामना पूर्ति के लिए विषयों में आसक्त रहकर कर्म करते तो इतिहास में एक साधारण मनुष्य की तरह कभी के गुम हो जाते |उनका अनुभव हमें मात्र यही ज्ञान देता है कि हमें भी अपने जीवन में मिल रही असफलताओं से घबराना नहीं चाहिए बल्कि उन्हें एक अवसर समझना चाहिए,अपने आत्मचिंतन के लिए और योग-कर्मों के प्रकार को परिवर्तित करने के लिए | सफलता भाग्य से अवश्य मिलती है, परन्तु याद रखें, भाग्य भी आपके द्वारा किये जा रहे योग-कर्मों से ही बनता है |

                 अपना भाग्य व्यक्ति स्वयं ही बनाता है और यह भाग्य बिना कर्म किये बनना संभव नहीं है |बिना किसी कर्म के किये, हाथ पर हाथ धर कर बैठे रहने से न तो इस जीवन में कुछ प्राप्त होना है और न ही नए जन्म में |आपके साथ आपके कर्म ही जाते हैं अन्य कुछ भी नहीं |अतः यह सोच कर कि कर्म करने से किसी को या तो  लाभ होगा या किसी को हानि, कर्म करना छोड़ देना अनुचित है |इसी लिए गीता में भगवान ने अर्जुन को दूसरे अध्याय में अपने संबोधन के प्रारम्भ में ही यह स्पष्ट कर दिया था कि कर्म न करने से कर्म करना श्रेष्ठ है |
क्रमशः 
                 ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Wednesday, January 28, 2015

कर्म-योग |-19

                         परन्तु होता ठीक इसके विपरीत है |मनुष्य अपनी इन आसानी से प्राप्त उपलब्धियों पर इतराते हुए अहंकारित हो जाता है |फिर अपने अहंकार की पूर्ति और इस अहंकार को सुरक्षित रखतने के लिए वह दुगुने जोश से योग-कर्म करने लगता है |परन्तु जब पूर्वजन्म के कर्मों के फल, भोग-कर्म करते करते इस जन्म में समाप्तप्राय होने  लगते हैं, तब योग-कर्मों को करते हुए भी व्यक्ति अपनी उपलब्धियां बरकरार नहीं रख सकता | इस स्थिति में मनुष्य का पतन प्रारम्भ हो जाता है |यही वह अवस्था है जब व्यक्ति अपनी नाकामियों के लिए भाग्य और ईश्वर को दोष देने लगता है , जबकि इसमें किसी का कोई दोष नहीं होता है |वह अपने पूर्वजन्म के कर्मों के फल भोग चूका है तथा उसके बाद किये जा रहे योग-कर्मों का फल उसे अब नए जन्म में ही मिलना संभव है, वर्तमान जीवन में नहीं| इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि भोग-कर्म जीवन के प्रारंभ में ही किये जा सकते हैं |भोग-कर्म करते हुए व्यक्ति योग-कर्म करना प्रारम्भ कर देता है |इसके उपरांत भोग-कर्म और योग-कर्म समानान्तर चलते रहते हैं| परन्तु इस जीवन में जो भी फल मनुष्यों को कर्म करने पर मिलते हैं,वे सभी फल भोग-कर्मों के परिणाम है,न कि योग-कर्मों के|

               फिर भी व्यक्ति को कभी भी योग-कर्म से विमुख नहीं होना चाहिए |आज नहीं तो कल,इन किये गए कर्मों का फल मिलना अवश्यम्भावी है |इन कर्मों के फल प्राप्त करने के लिए मनुष्य को इंतजार करना ही होगा |तत्काल फल कभी भी नहीं मिल सकता |हाँ,यह परिस्थिति व्यक्ति को आत्म-निरीक्षण करने का अवसर अवश्य ही प्रदान करती है |व्यक्ति अपनी असफलता के लिए अपने योग-कर्मों को परिवर्तित करने का भी सोच सकता है |कौन से योग-कर्म करने उसके लिए उचित होंगे और कौन से अनुचित? यह समझ में आते ही व्यक्ति कर्म को करने से विमुख नहीं होगा और अपने किये कर्मों के फलों को प्राप्त करने के लिए धैर्य भी नहीं खोएगा | संसार में जितने भी योगी और महापुरुष हुए है, वे जन्म से ही इस रूप में पैदा नहीं हुए थे |इसी प्रकार वे भी भोग-कर्म करते हुए सफलता को प्राप्त हुए और फिर जब योग-कर्म करते हुए वांछित सफलता प्राप्त नहीं कर पाए तो उन्होंने आत्म-चिंतन किया और पाया कि इतना सब कुछ करके भी सब कुछ पाना इस जीवन में संभव नहीं है |उन्होंने निर्णय किया कि फिर ऐसे योग-कर्म किये जाये जिनका फल कभी भी समाप्त नहीं हो और फल भी ऐसे हों जिनको प्राप्त करने के बाद मन में और फल प्राप्त करने की कामना ही न उठे | इस चिंतन ने अनको एक नयी दृष्टि प्रदान की |यह दृष्टि ही उनको योगी और महापुरुष बना सकी |
क्रमशः 
                     ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Sunday, January 25, 2015

कर्म-योग |-18

योग-कर्म –
                 युवावस्था आते आते मनुष्य योग-कर्मों को करने का अभ्यस्त हो जाता है ,हालाँकि भोग-कर्म उसका साथ कभी भी नहीं छोड़ते हैं | वह बात और है कि व्यक्ति प्रत्येक कर्म को अपने द्वारा किया हुआ कर्म ही मानता है |यही भाव कर्तापन कहलाता है |जबकि गीता में स्पष्ट लिखा है कि मूढ़ व्यक्ति ही “मैं कर्ता हूँ ” ऐसा मानता है |अतः किसी भी कर्म को करने का अर्थ यह कदापि नहीं है कि आप कर्ता हो| भोग-कर्म से योग-कर्म और योग-कर्म से फिर भोग-कर्म, यह चक्र अनवरत चलता रहता है, ऐसे में कोई कर्ता कैसे हो सकता है ?योग-कर्म और भोग-कर्म एक दूसरे के पूरक हैं |अभी तक के  विवेचन से यह स्पष्ट है कि भोग-कर्म करते हुए ही व्यक्ति योग-कर्म करने लगता है और योग-कर्म से ही अगले जन्म में किये जाने वाले भोग-कर्म तय होते हैं |अतः यह एकदम स्पष्ट है कि सब जगह योग-कर्म की भूमिका ही मुख्य होती है |भोग-कर्म निश्चित करने में भी और साथ ही व्यक्ति को कर्म योगी बनाने में | इसलिए योग-कर्म के बारे में जानना बहुत ही आवश्यक है |

                  योग-कर्म वे कर्म होते हैं जो व्यक्ति द्वारा अपनी इच्छा पूर्ति करने के लिए करता है |इन कर्मों को करने में व्यक्ति स्वयं का पूर्ण नियंत्रण रहता है और इन कर्मों से प्राप्त फल के लिए एकमात्र वही जिम्मेदार होता है |इसमें न तो भाग्य का योगदान होता है और न ही किसी अन्य का |जब इन कर्मों के अनुरूप व्यक्ति को फल प्राप्त नहीं होता है,तो वह इसके लिए अपने भाग्य या परमात्मा को दोष देता है|यह धारणा एकदम असत्य है| जिस प्रकार ऊर्जा को कभी भी समाप्त नहीं किया जा सकता उसी प्रकार कर्मों को भी कभी नष्ट नहीं किया जा सकता | किये गए कर्मों का फल कभी न कभी प्राप्त होगा ही |प्रायः इस जन्म में किये गए कर्मों का फल अगले जन्म में प्राप्त होता है और इन कर्मों के फल को प्राप्त करने के लिए अगले जन्म में भोग-कर्म करने आवश्यक हैं |दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि कामना से किये गए कर्मों का फल नए जन्म में व्यक्ति को भोग-कर्म करने पर आसानी से और अनायास ही प्राप्त हो जाते हैं |विडंबना यह है कि आसानी से और अनायास प्राप्त हुए फल को मनुष्य अपनी योग्यता समझ लेता है |जबकि यह फल उसे पूर्वजन्म में कामना वश किये गए योग-कर्मों का फल ही होता है |इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि व्यक्ति को अपनी उपलब्धियों पर कभी भी अभिमान नहीं करना चाहिए |यह सब पूर्वजन्म के संस्कारों की ही देन है, ऐसा ही मानना चाहिए |
क्रमशः 
                        ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Thursday, January 22, 2015

कर्म-योग |-17

              मन और बुद्धि के बाद योग-कर्मों को प्रारम्भ करने का महत्वपूर्ण कारण है-अहंकार | युवावस्था आते आते व्यक्ति का अहंकार भी विस्तार पाने लगता है |इस अहंकार के कारण व्यक्ति अपने द्वारा किये जा रहे योग-कर्मों से अपनी एक छवि बना लेता है |यह काल्पनिक छवि ही उसमें अहंकार पैदा करती है |जब उसकी इस छवि को किसी भी प्रकार की ठेस लगती है तो उसमें क्रोध पैदा होता है |क्रोध पैदा होने का सबसे एक महत्वपूर्ण कारण व्यक्ति के अहंकार को ठेस लगना भी है |अपनी ठेस लगी छवि को सुधारने के लिए व्यक्ति फिर योग-कर्मों को करने लग जाता है |अगर व्यक्ति में तामसिक गुणों की प्रधानता है तो वह ठेस पहुँचाने वाले व्यक्ति या व्यवस्था से प्रतिशोध लेने के लिए किसी भी प्रकार का कर्म करने को उद्यत हो जाता है |
           योग-कर्मों को प्रारम्भ करने में मन, बुद्धि और अहंकार को कारण के रूप में प्रस्तुत किया गया है| परन्तु इनमें से कर्म करने के लिए कोई एक अकेला कारण होना संभव नहीं है |मन, बुद्धि और अहंकार एक दूसरे के पूरक है |परन्तु मुख्य भूमिका मन की ही होती है | अमृत-बिंदु उपनिषद् में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि-
                       मन एव मनुष्याणां कारणंबन्धमोक्षयो: |
                       बन्धायविषयासक्तंमुक्तंनिर्विषयंस्मृतम् ||
अर्थात् मनुष्य का मन ही उसके बंधन और मोक्ष का एकमात्र कारण है |विषयों से अनासक्ति मन को मुक्त कर देती है और विषयों के प्रति आसक्ति उसके लिए बंधन बन जाती है |

           अतः यह स्पष्ट है कि मन, बुद्धि और अहंकार तीनों तत्वों में मुख्य भूमिका मन की ही होती है |मन की विषयों के प्रति आसक्ति अर्थात सुख प्राप्त करने की कामना ही व्यक्ति को योग-कर्म प्रारम्भ करने को विवश कर देती है |यह मन की विषयों के प्रति आसक्ति ही कर्मों का प्रारम्भ है |अब यही सोचने की बात है कि इस मन की आसक्ति से पार कैसे पाया जाये कि योग-कर्म करते भी रहें और आसक्ति से दूर भी रहें |यह ठीक उसी प्रकार के कर्म होंगे जैसे जल में पैदा होकर भी कमल उससे निर्लिप्त रहता है |इस संसार में पैदा होने वाला प्रत्येक मनुष्य प्रकृति प्रदत्त गुणों से कर्म करने को विवश अवश्य है परन्तु उसे संसारमें व्याप्त कोई भी कारण विकर्म अथवा सकाम कर्म या निष्काम कर्म करने को विवश नहीं कर सकता |कर्मों को करने के लिए व्यक्ति प्रकृति प्रदत्त गुणों के परवश अवश्य है परन्तु उसे योग-कर्मों में से अपने द्वारा किये जाने वाले कर्मों के चयन करने की स्वतंत्रता अवश्य है |  
क्रमशः 
                          || हरिः शरणम् ||    

Monday, January 19, 2015

कर्म-योग |-16

भोग-कर्म से योग-कर्म की ओर जाने के कारण-
                बाल्यावस्था में भोग-कर्म को करते करते बालक सकाम कर्म के रूप में योग-कर्म करना प्रारम्भ कर देता है |भोग-कर्म करते हुए उसे जिन कर्मों से उसे आनंद या सुख का अनुभव होता है, वह उन कर्मों के प्रति आसक्त हो जाता है |इस आसक्ति में मुख्य भूमिका होती है ,हमारे मन की| मन, इन्द्रियों का राजा है|  वह इन्द्रियों से वैसे ही सुख को प्रदान करने का आदेश देता है, जैसे कर्मों को करने से उसे पूर्व में सुख की प्राप्ति हुई थी| इस आदेश की पालना के लिए कर्मेन्द्रियाँ कर्म करती है | जितना कथित सुख इन कर्मों से मन को प्राप्त होता है उतनी ही उन कर्मों के प्रति व्यक्ति की आसक्ति बढती जाती है |इस प्रकार भोग-कर्मों से प्राप्त सुख से प्रारम्भ हुए, योग-कर्मों से सतत कर्म करते रहने का एक कभी भी समाप्त न होने वाला एक चक्र बन जाता है |इस चक्र को तोड़ पाना साधारण व्यक्ति के वश में नहीं होता और वह कर्मों के इस चक्रव्यूह में फंस कर सारी उम्र छटपटाता रहता है | बाल्यावस्था में किये गए कर्म भोग-कर्म होते हैं और ऐसे कर्म कभी भी संचित नहीं होते |परन्तु इन भोग-कर्मों से प्राप्त सुख के प्रति आसक्त होकर जब व्यक्ति योग-कर्म करने लग जाता है, तब यही कर्म संचित होने लगते हैं |येसंचित कर्म ही व्यक्ति को पुनर्जन्म में ले जाते है और वह केवल भौतिक शरीरों में ही परिभ्रमण करता रहता है |इस प्रकार सुख के प्रति आसक्ति, व्यक्ति को ऐसे किसी भी सुख को प्राप्त करने के लिए किये जाने वाले कर्मों के प्रति भी आसक्त बना देती है |

                   बाल्यावस्थाके उपरांत जब बालक में बुद्धि का विकास होने लगता है तब वह विभिन्न प्रकार के योग-कर्मों में से उपयुक्त कर्मों का चयन कर अपने द्वारा किये जाने वाले कर्म निश्चित कर लेता है |इन कर्मों के चयन में बुद्धि का महत्त्व होता है| मनुष्य अपनी बुद्धि के द्वारा विभिन्नप्रकार के सुख-साधन प्राप्त करने की कामना पैदा कर लेता है |बुद्धि,इन कामनाओं को पूर्ण करने का उपाय खोजती है |इन उपायों में भविष्य में किये जाने वाले कर्मों का खाका होता है और फिर व्यक्ति का मन उसी के अनुसार योग-कर्म करने को विवश हो जाता है|
क्रमशः 
                   ||  हरिः शरणम् ||

Friday, January 16, 2015

कर्म-योग |-15

                  गीता में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को स्पष्ट रूप से कहते हैं कि अकर्म से कर्म श्रेष्ठ है और अकर्ता से कर्ता श्रेष्ठ है |यहाँ कुछ को यह महसूस हो सकता है कि गीता में यह एक बहुत बड़ा विरोधाभास है | अगर गंभीरता के साथ देखा जाये तो विरोधाभास कहीं पर भी नहीं है |भगवान एक दम स्पष्ट रूप से कहते हैं कि कर्म न करने से कर्म करना श्रेष्ठ है |इसका अर्थ यह है कि बिना कर्म किये मनुष्य अगले जन्म में मानव शरीर प्राप्त करके भी पशुवत जीवन जीने को अभिशप्त हो सकता है |अतः कर्म चाहे सकाम कर्म हो ,निष्काम कर्म हो या विकर्म, कर्म न करने से कर्म करना ही श्रेष्ठ है | यह अलग बात है कि इन तीनों कर्मों में कौन से कर्म श्रेष्ठ हैं? भगवान का यह कहना कि कर्ता, अकर्ता से श्रेष्ठ है, बिलकुल सत्य है क्योंकि कर्म करने वाला कर्ता कहलाता है |कर्ता कहलाना और अपने आपको कर्ता मानना दोनों भिन्न बाते है |भगवान श्री कृष्ण, अपने आप को कर्ता मानने को ही अनुचित बताते हैं, न कि कर्म करने को |
                 नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः |
                 शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः || गीता 3/8 ||
अर्थात् तू शास्त्र विहित कर्म कर; क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा |

        इससे यह स्पष्ट है कि व्यक्ति को शास्त्र सम्मत कर्म ही करने चाहिए |अकर्म से श्रेष्ठ कर्म हैं क्योंकि बिना कर्म किये शरीर का निर्वाह होना भी संभव नहीं है |अतः सभी परिस्थितियों में कर्म करना ही, कर्म न करने से श्रेष्ठ है | जो व्यक्ति परमात्मा की प्राप्ति के लिए घर बार छोड़ देते हैं और कर्म नहीं करना पसंद करते हैं; वे केवल ढोंगी मात्र है | 
क्रमशः
                  || हरिः शरणम् ||

Tuesday, January 13, 2015

कर्म-योग |-14

योग-कर्म के लिए आवश्यक तत्व-
              जीवन में प्रारम्भ के दो वर्ष ही अति महत्वपूर्ण होते हैं | इस अवधि में मानसिक विकास बड़ी ही तेजी के साथ होता है |इस मानसिक विकास के साथ साथ प्रकृति के शेष बचे तीन जड़ तत्व मन, बुद्धि और अहंकार का भी विकास होता है |उपरोक्त तीनों तत्व ही व्यक्ति को भोग-कर्म से योग-कर्म की तरफ अग्रसर करते हैं |जिन शिशुओं में इन तीन तत्वों का विकास अगर किसी कारणवश सुचारु रूप से नहीं हो पाता तो फिर ऐसी स्थिति में उसका भोग-कर्म से योग- कर्म की तरफ जाना असंभव है | मनुष्य के अतिरिक्त अन्य प्राणियों में उपरोक्त तीनों तत्वों का या तो सर्वथा अभाव होता है या फिर उनका विकास सुचारु रूप से नहीं हो पाता |इसी कारण से वे केवल भोग-योनियाँ ही मानी जाती है |उनमें योग-कर्म करने की क्षमता का विकास ही नहीं हो पाता |यही कारण है कि मनुष्य के अतिरिक्त अन्य प्राणियों द्वारा किये जा रहे कर्मों का उन्हें किसी भी प्रकार का फल नहीं मिलता ,वे कर्म संचित नहीं हो सकते |अतः इनको योग-कर्म नहीं कहा जा सकता |अन्य प्राणियों द्वारा किये जा रहे कर्म, मात्र पूर्व मानव जन्म में किये गए कर्मों के फल के भोग के लिए ही होते हैं|

                    ठीक इसी प्रकार जिन शिशुओं में मन, बुद्धि और अहंकार का विकास नहीं होता,वे शिशु मात्र भोग-कर्म के  लिए ही इस संसार में आते हैं |उनके द्वारा योग-कर्म करना असंभव ही रहता है | अब प्रश्न यह पैदा होता है कि जब मानव योनि भोग के साथ साथ योग या कर्म योनि है तो फिर कुछ शिशुओं में ऐसा कैसे हो सकता है ?इस शंका का समाधान यह है कि मानव योनि कुछ परिस्थितियों में मात्र भोग-योनि ही बन कर रह सकती है |जब पूर्व मानव जन्म में ऐसे कर्म हुए हो जो उसे मानव योनि तो उपलब्ध करवा सकते हैं परन्तु योग-कर्म करने से वंचित भी रख सकते हैं |यह प्रायः ऐसी परिस्थितियों में होता है जब व्यक्ति कर्म से विमुख होकर किसी भी प्रकार के कर्म करता ही नहीं है, यहाँ तक कि कोई अनुचित मानसिक कर्म तक भी नहीं करता |यह एक प्रकार का कर्मों से पलायन करना  हुआ और ऐसे में उसको नया जन्म किसी अन्य प्राणी के रूप में मिल ही नहीं सकता और वह पुनः मनुष्य के रूप में ही जन्म लेता  है। इसी लिए कर्म करने से पलायन करने को अनुचित माना गया है |
क्रमशः 
                    || हरिः शरणम् ||

Saturday, January 10, 2015

कर्म-योग |-13

         अब हम विचार करते हैं ,दूसरी परिस्थिति का, जब माता-पिता उसकी सुख प्राप्त करने की कामना को ठुकरा देते हैं | ऐसी परिस्थिति में सत गुणी बालक में राजसिक व तामसिक गुणों का प्रभाव बढ़ने लगता है या फिर वह सत गुणों के आधार पर अपनी कामना को ही भूल जाता है |राजसिक और तामसिक गुणों से युक्त बालक कामना पूर्ति न होने पर सत गुण से युक्त बालक की तरह व्यवहार करने लगता है अथवा फिर अपने रज या तम गुणों को प्रधानता देने लग जाता है | प्रथम अवस्था में बालक अपने व्यवहार में सुधार करते हुए शालीनता का व्यवहार सीख लेता है और दूसरी परिस्थिति में वह उद्दंडता की तरफ अग्रसर हो जाता है | यह बालक की वह अवस्था होती है, जब उसका व्यवहार उसका भविष्य निर्धारित करता है | इस प्रकार यह कहावत एक दम सत्य है कि “पूत के पाँव पालने में ही दिखाई दे जाते हैं |”

           यहाँ माता-पिता की भूमिका महत्वपूर्ण होती है | बाल्यावस्था में अगर हम  बच्चे की अनुचित कामना को पूरा न करें और उस कामना के बारे में बच्चे को सही और उचित तरीके से निर्देशित करें तो हो सकता है कि बालक सही राह पर आगे बढे |इसीलिए माता-पिता को ही प्रथम शिक्षक माना गया है और घर को विद्यालय | अपने पर्याप्त प्रयास के उपरांत भी अगर बालक सही राह नहीं पकड़ता है तो फिर इसे हम प्रारब्ध का खेल ही कहेंगे |ऐसी स्थिति में माता-पिता को अपने व्यवहार में शालीनता रखते हुए बच्चे की अनुचित कामना को ठुकरा देना चाहिए और बच्चे के भविष्य को उसके प्रारब्ध पर छोड़ देना चाहिए | 
क्रमशः 
                  || हरिः शरणम् ||   

Wednesday, January 7, 2015

कर्म-योग |-12

योग-कर्म से भोग-कर्म की यात्रा-
           मानव जीवन के प्रारम्भ में शिशु अवस्था में केवल भोग-कर्म ही सम्पादित होते हैं और इन कर्मों को करने या न करने पर शिशु का किसी भी प्रकार का नियंत्रण नहीं रहता है | ज्यों ज्यों शिशु का शारीरिक विकास होता है उससे कई गुना तेजी के साथ उसका मानसिक विकास होता है |बालक की 2 वर्ष की आयु आते आते मस्तिष्क का लगभग 90 प्रति शत विकास पूर्ण हो जाता है |शेष बचा 10 प्रति शत विकास समय के साथ साथ धीरे धीरे होता रहता है |इस अवधि में किये गए कर्मों से प्राप्त सफलता या विफलता को हम सांसारिक अनुभव का नाम दे देते हैं जबकि इस अनुभव की कीमत दो कौड़ी की नहीं होती है |दो वर्ष तक की आयु प्राप्त करने तक बालक भोग-कर्म में ही लगा रहता है उसके उपरांत वह योग-कर्म प्रारम्भ करने की तरफ अग्रसर होता है |उसका विकसित मस्तिष्क अब यह अनुभव करने लग जाता है कि कौन सा भोग-कर्म सुखप्रद है और कौन सा दुखदाई ? यह उसके मानव जीवन का प्रथम अनुभव और ज्ञान होता है जो उसे अपनी इन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त होता है |उसके भीतर केवल सुखप्रद कर्म करने या केवल सुख प्राप्त करते रहने की कामना का अंकुर फूट पड़ता है |पूर्व जन्म के स्वभाव से मिले प्राकृतिक गुणों के वशीभूत होकर वह अब भोग-कर्म के साथ योग-कर्म भी करने लगता  है |

               केवल सुख प्राप्त करने के लिए बालक अपने जीवन पहली बार असत्य का सहारा लेता  है |इससे पहले प्रायः उसे इसका ज्ञान भी नहीं हो पाता है |यह सब उसकी मानसिक दशा और मन में उठ रही कामनाओं का ही परिणाम है |एक बार जब वह सुख चाहने लगता है तब उसकी यह कामना उसे किसी भी प्रकार का कर्म करने को विवश कर देती है |कर्म करना उसमें उपस्थित गुणों के वश में होता है |सात्विक गुणों से युक्त बालक सुख प्राप्त करने के लिए शालीनता पूर्वक अपने माता-पिता से प्रार्थना करता है जबकि राजसिक गुणों से युक्त बालक सुख प्राप्त करने के लिए रोना-धोना या नाराज हो जाना सरीखे कर्म करता है |इसी प्रकार तामसिक गुणों से युक्त बालक सुख प्राप्त करने के लिए असत्य बोलना अथवा लड़ाई झगडा करना प्रारम्भ कर देता है और कई कई बार तो मारपीट करने पर उतारू हो जाता है |माता-पिता ,अपने बालक की यह सुख प्राप्त करने की कामना पूर्ण करने को तत्पर हो जाते है |वे यह विचार करने का कष्ट तक नहीं करते कि बालक की यह कामना पूर्ण करना उचित है या अनुचित |अपने सुख की कामना की पूर्ति होते देख बालक में उपस्थित प्राकृतिक गुणों की प्रधानता इसी अनुरूप  बढती जाती है और वह उन्हीं गुणों के अनुरूप योग-कर्म करने को विवश हो जाता है |
क्रमशः 
                 || हरिः शरणम् ||

Sunday, January 4, 2015

कर्म-योग |-11

                        मनुष्य का जीवन भोग-कर्मों को करने के साथ ही प्रारम्भ होता है |भोग-कर्मों के करते करते मनुष्य कब योग-कर्म करने लग जाता है ,इसका उसे स्वयं ही पता नहीं चलता | कर्मों का यह प्रारम्भ उसे कर्म-क्षेत्र के चक्रव्यूह में ढकेल देता है |इस संसार में आकर उसकी गति उस भ्रमर की तरह हो जाती है जो पुष्प के रस का पान करने में यह भूल जाता है कि रात होने वाली है और इस पुष्प की पंखुडियां बंद हो जाएगी |मनुष्य कर्म करने में भी ऐसे ही उलझ जाता है कि उसके इस शरीर का संध्या काल आ जाता है और वह उसी भंवरे की तरह केवल इन्द्रियों द्वारा रसपान करने में ही उलझ कर रह जाता है, परमात्मा का उसे ध्यान ही नहीं रहता | अतः हम अपने मस्तिष्क में यह स्पष्ट कर लें कि जीवन में कर्मों का प्रारम्भ भोग-कर्मों के करने के साथ ही होता है | मनुष्य लाख प्रयास कर ले, अपने जीवन के प्रारम्भ में वह योग-कर्म कर ही नहीं सकता और भोग-कर्म करने में मनुष्य प्रकृति के गुणों के अधीन होता है | इन प्रकृति प्रदत्त गुणों का निर्धारण पूर्व के मनुष्य योनि में किये गए योग-कर्म के द्वारा होता हैं |

          भोग-कर्म से ही योग-कर्म प्रारम्भ होते हैं और योग-कर्म ही पुनर्जन्म में भोग-कर्म के रूप में करने पड़ते हैं |यह एक ऐसे चक्र का निर्माण करते हैं, जिसका टूट पाना लगभग असंभव होता है | इसीलिए कर्म को संसार की धुरी कहा गया है| सम्पूर्ण संसार इस कर्म को ही केंद्र में रखकर जीवित है | जिस दिन जो भी मनुष्य इस कर्म-चक्र को तोड़ डालता है, उसके लिए उसी दिन यह संसार समाप्त हो जाता  है |यही वास्तविक मुक्ति है, देह छोड़कर मुक्ति की कल्पना करना बिलकुल बे मानी है |अगर मुक्ति होगी तो इस मानव जन्म को जीते हुए ही होगी , कर्म करते हुए ही होगी, बस केवल कर्म ऐसे होने चाहिए जो व्यक्ति को इस कर्म-बंधन से मुक्त कर दे, इस भोग-कर्म और योग-कर्म के चक्रव्यूह को तोड़ डाले |

             मनुष्य न जाने क्यों, इतनी छोटी सी बात को भी आत्मसात नहीं कर पाता |वह भलीभांति जनता है कि इस संसार में सकाम-कर्म कभी भी कर्म-बंधन से मुक्ति नहीं दिला सकते ,फिर भी वह इन्हीं कर्मों को करते रहने को ही अपने जीवन का एक मात्र लक्ष्य बना लेता है |सकाम कर्म ही किसी व्यक्ति के कर्मयोगी बनने में बाधक है |  
क्रमशः 
                     || हरिः शरणम् ||                  

Thursday, January 1, 2015

कर्म-योग |-10

                   आज से नए साल २०१५ का आरम्भ है |सन् २०१४ में हमने इस संसार में कट्टरपंथियों का प्रभाव बढ़ते हुए देखा है |जिस प्रकार धर्म के नाम पर मानवता का क़त्ल गत वर्ष हुआ है वैसा शायद पूर्व में कभी नहीं हुआ होगा |ईश्वर से प्रार्थना है कि यह २०१५ का वर्ष ऐसी किसी घटनाओं के लिए भविष्य  में याद नहीं किया जाये जैसा २०१४ को किया जायेगा |आप सभी को नव-वर्ष की बहुत बहुत शुभ कामनाएं |
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कर्मों का प्रारम्भ-
                      जब शिशु का जन्म होता है तब वह किसी भी प्रकार के योग-कर्म करने की स्थिति में नहीं होता | वह केवल भोग-कर्म ही कर सकता है | मां की ममता का आनंद लेना, दुग्ध पान करना ,रोना, मुसकुराना ,हाथ-पाँव हिलाना आदि सभी क्रियाएं भोग-कर्म के अंतर्गत ही आती है |कई लोग यह कह सकते हैं कि प्रत्येक शिशु ही ऐसा करता है तो क्या सभी शिशुओं को एक ही प्रकार के भोग-कर्म करने होते हैं ? नहीं, ऐसा नहीं है |अगर आप सभी शिशुओं की क्रियाएं गंभीरता के साथ देखें तो आपको अंतर स्पष्ट हो जायेगा |कई शिशु 10 माह की उम्र में अपने आप चलना प्रारम्भ कर  देते हैं जबकि कुछ 2 वर्ष की उम्र में और कुछ तो जीवन भर ही चलना नहीं सीख पाते |इसी प्रकार किसी के जन्म-जात विकृति होती है और किसी के प्रसव की प्रक्रिया में बाधा आ जाने के कारण शारीरिक और मानसिक विकृतियाँ पैदा हो जाती है | ऐसा सब भोग-कर्मों के कारण ही संभव हो सकता है |

                      मैं एक शिशु रोग विशेषज्ञ हूँ और अपने इस जीवन में हजारों शिशुओं के जन्म का साक्षी रहा हूँ |सभी जन्म लेने वाले शिशुओं और उनकी माताओं के जीवन का पूरा ध्यान रखा जाता है |फिर भी कई शिशु जन्म लेने के बाद विभिन्न प्रकार की विकृतियों के शिकार हो जाते हैं या काल कलवित हो जाते हैं और इसी तरह से कई माताओं को भी विभिन्न प्रकार की शारीरिक और मानसिक परेशानियाँ झेलनी पड़ती है तथा कुछ को अपनी जान तक गवानी पड़ती है |इतने सुरक्षित प्रसव के बाद भी ऐसी घटनाएँ होना क्या प्रदर्शित करता है ? मैं यह नहीं कहता कि इतनी सावधानियों के बाद भी ऐसी घटनाएँ होती है तो सब कुछ भाग्य भरोसे छोड़ देना चाहिए | इतनी सावधानियों के कारण शिशु मृत्यु-दर और मातृत्व मृत्यु-दर में कमी अवश्य ही आई है | परन्तु फिर भी प्रश्न यह उठता है कि इतना सब करने के बावजूद भी किसी किसी शिशु में शारीरिक और मानसिक विकृतियाँ पैदा हो जाना क्यों होता है ? प्रश्न बड़ा सीधा सादा है और उत्तर भी |यह सब पूर्व जन्मों के योग-कर्मों से उत्पन्न फल  ही हैं जो इस जन्म में भोग -कर्म के रूप में प्राप्त हुए है | इन्हीं भोग-कर्मों को करने के लिए आज यहाँ पर शिशु और मां, दोनों ही विवश हैं | 
क्रमशः 
                 || हरिः शरणम् ||