इस प्रकार हमने देखा कि कर्म करने का प्रथम
कारण मनुष्य का भूतकाल है जिससे व्यक्ति का स्वभाव बनता है |विचार से धारणा पुष्ट
होती है, धारणा से व्यक्ति के आदर्श का
निर्माण होता है और फिर धारणा के अनुरूप व्यक्ति के स्वभाव का निर्माण होता है |इसी स्वभाव को व्यक्ति का चित्त उसके शरीर की मृत्यु
के उपरांत अपने साथ ले जाता है ,जो नए जन्म में यही स्वभाव उस व्यक्ति में उसके
संस्कार बनकर प्रकट होते हैं |इन्हीं संस्कारों को भगवान श्री कृष्ण ने गीता में व्यक्ति
के प्राकृतिक गुण कहा है जिनके परवश होकर वह कर्म करने को विवश होता है |इन्हीं
संस्कारों के कारण अपने जीवन के
प्रारम्भ में व्यक्ति भोग-कर्म करता है |इन भोग-कर्मों से जो भी फल मिलता है ,उन
फलों को लेकर मनुष्य का मन विचार करता है ,फिर धारणा, योग-कर्म, उस कर्म केअनुभव,
सिद्धांत, आदर्श और अंत में स्वभाव का निर्माण होता है और इसी स्वभाव से पुनर्जन्म
में व्यक्ति के संस्कार का निर्माण होता है | इस प्रकार यह अटूट चक्र निरंतर चलता
रहता है |
भोग-कर्म करने से प्राप्त फल को
लेकर ही मनुष्य के मस्तिष्क में विचारों का जन्म होता है | इन विचारों का जन्म नई
धारणा और अनुभव पैदा करता है जिससे व्यक्ति के मन में कामनाएं पैदा होती है |इन
कामनाओं की पूर्ति हेतु व्यक्ति योग-कर्म करने को उद्यत होता है | जैसा कि पहले ही
यह स्पष्ट किया जा चूका है कि किसी भी योग-कर्म का फल वर्तमान जीवन में प्राप्त
नहीं किया जा सकता, फिर भी मनुष्ययोग-कर्म का फल इसी जन्म में प्राप्त करना चाहता
है |जब कामनाओं को पूर्ण करने के लिए व्यक्ति कर्म करता है और उसे पर्याप्त फल की
प्राप्ति नहीं होती तो उसमें क्रोध पैदा होता है और अगर भाग्य से पर्याप्त फल
प्राप्त हो जाता है तो वह उसका कारण योग-कर्म को मान लेता है | अपर्याप्त फल के मिलने
से व्यक्ति को क्रोध पैदा होता है जिससे उसके मन में पुनःनए विचार पैदा हो जाते
हैं जो उसकी मति को भ्रमित कर देते हैं | मतिभ्रम की स्थिति में बुद्धि कार्य करना
बंद कर देती है | ऐसी स्थिति में व्यक्ति जो भी कर्म करता है,वे सब निम्नतम स्तर
के होकर विकर्म कहलाते हैं |अगर योग-कर्मों का फल देव योग से पर्याप्त मात्रा में
मिल जाते हैं तो व्यक्ति इन्हीं फलों की आशा अधिक करने लगता है |इसीको लालच अथवा
लोभ कहा जा सकता है |व्यक्ति जिन कर्मों से अच्छा फल प्राप्त होना मानता है वह उन
कर्मों और उसके फलों में आसक्त हो जाता है |यह आसक्ति अगरकर्मफल में हो तो वह मोह
और ममता कहलाती है |यही मोह और आसक्ति भविष्य में वैसे ही फल और अधिक मात्रा में
प्राप्त करने के लिए और अधिक योग-कर्म करने को विवश करती है |
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||
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