मैं यह नहीं कह रहा कि
विचार, धारणा, अनुभव और आदर्श आदि की कोई उपयोगिता नहीं है | हाँ, इनकी उपयोगिता
सांसारिक वस्तुएं, सुख, दुःख, मान और सम्मान आदि पाने के लिए कुछ सीमा तक अवश्य है,
परन्तु केवल इन्हीं के आधार पर सब कुछ प्राप्त नहीं किया जा सकता |आध्यात्मिकता में
इन सब बातों की कोई कीमत नहीं है |आध्यात्मिकता का अर्थ प्रत्येक व्यक्ति के लिए
अपना अपना होता है क्योंकि स्वयं को जानने का नाम ही अध्यात्म है |दूसरे का अनुभव
मात्र मार्गदर्शन के अतिरिक्त अन्य किसी भी अर्थ का नहीं होता |इसी लिए परमात्मा
की प्राप्ति के लिए किसी भी प्रकार के विचार, धारणा और अनुभव से परे जाना होगा |किसी
अन्य के विचार या अनुभव से आपको अपना मार्ग तलाश करने में सहायता अवश्य मिल सकती
है परन्तु मार्ग पर आपको ही चलना होगा और वह भी अपने स्वभावानुसार | किसी अन्य का
अनुभव ही आध्यात्मिकता में गुरु की भूमिका स्पष्ट करता है |गुरु अपने अनुभव और
विचार से शिष्य को आंदोलित कर देता है, मार्ग दिखा सकता है, उस मार्ग पर चलने का कार्य
तो शिष्य को स्वयं ही करना होगा | हो सकता है, गुरु का बताया मार्ग सुगम भी हो या
दुर्गम भी | गुरु के लिए जैसा रहा होगा यह मार्ग, आवश्यक नहीं है कि आपको भी वैसा
ही मिलेगा | इसमें भला गुरु के विचार, उनकी धारणा अथवा अनुभव कैसे जिम्मेदार होंगे
? आप रास्ते पर लगे मार्गदर्शक पट्ट की तरह गुरु को मान सकते हैं,बस गुरु की
भूमिका उसी पट्ट की तरह ही होती है | रास्ते का मार्गदर्शक पट्ट आपको आपके लक्ष्य
की राह बता सकता है परन्तु उस राह पर चलना आपको ही पड़ेगा और उस राह की कठिनाइयों
को भी आपको ही झेलना पड़ेगा |
भूतकाल के संघटित विचार जो वर्तमान में
हमारी धारणा बन चुके हैं ,हम आज उन्हीं धारणाओं के अनुरूप कर्म करने लगते हैं और
यह भूल जाते हैं कि हमारी धारणाएं बीते हुए कल की है, जबकि कर्म हम आज कर रहे हैं |आज
के कर्म अगर बीते हुए कल की धारणाओं पर आश्रित हों तो फिर ऐसे कर्मों का फल भी
हमें उसी काल के अनुरूप स्वीकार करना होगा |मनुष्य की सबसे बड़ी कमजोरी यहाँ आकर
स्पष्ट हो जाती है क्योंकि वह भूतकाल के वशीभूत है |इसीलिए गीता में भगवान श्री
कृष्ण ने स्पष्टतः कहा है कि मनुष्य अपने स्वभाव के और प्रकृति से मिले गुणों के
परवश होकर ही कर्म करता है |
क्रमशः
॥ हरिः शरणम् ॥
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