Tuesday, February 3, 2015

कर्म-योग |-21

योग-कर्म के प्रकार–
                          योग-कर्म वे कर्म होते हैं जो मनुष्य अपने विवेक और बुद्धि सेसक्रिय रह कर करता है ,अतः इनको सक्रिय-कर्म भी कहा जाता है |इन कर्मों को करने में व्यक्ति के पूर्व-जन्म में किये गए  कर्मों का प्रभाव केवल इनको प्रारम्भ करने तक ही सीमित होता है |मनुष्य एक बार जब योग-कर्म करना प्रारम्भ कर देता है फिर उन कर्मों को करने,न करने अथवा उनके प्रकार में परिवर्तन करने का नियंत्रण मन, बुद्धि और अहंकार के पास आ जाता है |इस नियंत्रण को व्यक्ति द्वारा पुनः अपने अधिकार क्षेत्र में लेना बहुत ही मुश्किल होता है परन्तु असंभव नहीं |इसके लिए व्यक्ति को इन तीनों तत्वों पर अपना प्रभुत्व स्थापित करना होता है |
         गीता में भगवान श्री कृष्ण ने योग-कर्म तीन प्रकार के बताये हैं – कर्म,अकर्म और विकर्म |गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
                कर्मणो ह्यपिबोद्धव्यंबोद्धव्यं च विकर्मण: |
                अकर्मणश्चबोद्धव्यं गहना कर्मणोगतिः||गीता4/17||
अर्थात् कर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए और अकर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए तथा विकर्म का स्वरूप भी जानना  चाहिए;क्योंकि कर्म की गति गहन है |

         यहाँ भगवान स्पष्ट करते हैं कि कर्म की गति गहन है अर्थात् कर्म करने के बाद उसकी गति क्या होगी, उसका क्या परिणाम होगा यह जानना बहुत ही मुश्किल है |साधारण व्यक्ति कर्म तो करता है अपने मन के अनुसार और वह इन कर्मों को प्रायः उचित और शास्त्रोक्त मानता भी है परन्तु क्या उसके द्वारा किये गए कर्म वैसे ही है जैसा कि उनको मान कर वह कर रहा है ? नहीं,प्रायः वे कर्म वैसे होते नहीं है |अगर सभी कर्म उसकी सोच के अनुसार उचित होते तो वह कभी का मुक्त हो चूका होता |उसको बार बार जन्म लेकर इन भौतिक शरीरों के साथ अनन्त काल तक भटकना नहीं पड़ता |इसीलिए परमात्मा ने कर्म की गति को गहन बताया है|अर्जुन, जो युद्ध कर्म को अनुचित बता रहा था, भगवान श्री कृष्ण की मान्यता अनुसार युद्ध उचित था | एक आम मनुष्य की नज़रों में युद्ध सदैव ही अनुचित रहता है परन्तु परमात्मा कहते हैं कि क्या उचित है और क्या अनुचित, इसका निर्णय मनुष्य नहीं कर सकता |इसका निर्णय तो मनुष्य में स्थित प्रकृति के गुण ही करेंगे| हाँ, मनुष्य में स्थित तीनों गुणों में से किस गुण का उपयोग वह कर्म करने के लिए उचित समझता है ,वह मनुष्य के हाथ में अवश्य है परन्तु इस क्षमता का मनुष्य उपयोग कैसे करता है यह सब उसके मन, बुद्धि और अहंकार पर निर्भर करता है | गुणोंका उपयोग करते हुए कर्म करना ही मनुष्य की एक मात्र स्वतंत्रता है जो उसे अन्य प्राणियों से अलग करती है | भगवान श्री कृष्ण ने इसी विशेषता के कारण ही कर्मों की गति को गहन बताया है |
क्रमशः 
                   ॥ हरिः शरणम् ॥ 

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