Friday, February 6, 2015

कर्म-योग |-22

                      कर्मों की गति को गहन बताते हुए श्री कृष्ण ने अर्जुन को समझाया कि तुम्हें कर्मों के स्वरूप को जानना चाहिए |कर्मों का स्वरूप ही कर्मों के प्रकार है ,जिनको जानकर ही मनुष्य समझ पायेगा कि कौन से कर्म करने कहिये और कौन से नहीं | साथ ही साथ वह यह भी जान सकेगा कि विशेष प्रकार के कर्म करने के लिए वह अपने में उपस्थित प्रकृति के गुणों का उपयोग किस प्रकार कर सकता है ? इन कर्मों के स्वरूप का परिवर्तन केवल योग-कर्मों के लिए ही संभव है, भोग-कर्मों के स्वरूप का परिवर्तन व्यक्ति किसी भी स्थिति में करने को सक्षम नहीं है |अतः भोग-कर्म मात्र एक ही प्रकार के होते हैं जबकि योग-कर्म तीन प्रकार के होते हैं – कर्म, अकर्म और विकर्म |आइये,अब हम तीनों प्रकार के योग-कर्म को विस्तृत रूप से जानें और पहचाने |
कर्म-(सकाम-कर्म)-

        कर्म प्रथम प्रकार के वे योग-कर्म हैं, जिनको मनुष्य अपने मन, बुद्धि और अहंकार का उपयोग करते हुए अपनी इच्छा, अपनी कामना और अपने स्वार्थ की पूर्ति हेतु करता है| इन कर्मों को आप सकाम-कर्म भी कह सकते हैं |इन कर्मों को करने में मनुष्य प्रायः राजसिक गुणों का उपयोग करता है |इन कर्मों में मनुष्य की भावना भौतिक सुखों की प्राप्ति की होती है |इन कर्मों को करने से मनुष्य  को अस्थाई रूप से एक प्रकार की शांति का अनुभव अवश्य होता है परन्तु यह शांति केवल तात्कालिक ही होती है|कुछ समय बाद ही यह शांति तिरोहित हो जाती है |अतः इस शांति को वास्तविक शांति नहीं कहा जा सकता |आधुनिक युग में मनुष्य प्रायः ऐसे ही कर्म करता है जिनका उद्देश्य मात्र उसकी अपनी कामना को पूरा करना ही होता है |
क्रमशः 
                      ॥ हरिः शरणम् ॥ 

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