फिर वर्तमान के कौन से ऐसे कर्म हो सकते
हैं,जिन्हें हम भूत और भविष्य से सम्बंधित होना न मानें |ऐसे कर्मों को पहचान पाना
और कर पाना बहुत ही मुश्किल है |इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि हम कर्म ही सोच समझ
कर करते हैं, मन में विचार करके करते हैं और भविष्य को ध्यान में रखते हुए करते
हैं |अतः बिना किसी बात का विचार किये और बिना भविष्य को दृष्टिगत रखते हुए जो
कर्म किये जाते हैं, वे कर्म ही आज के
कर्म हैं, वर्तमान के कर्म हैं और अकर्म हैं |आप किसी रास्ते से जा रहे हैं और
अपने सामने एक घायल व्यक्ति को बीच रास्ते में पड़ा पाते हैं| आप तुरंत ही सब काम छोड़
कर उसे अस्पताल पहुंचाते है और उसका इलाज प्रारम्भ करवा देते है |उसके परिजनों को
बुलाकर उन्हें उसे सौंप कर अपने आगे के रास्ते पर निकल पड़ते हैं, तो यह कर्म ही आज
का कर्म है, वर्तमान का कर्म है और निष्काम-कर्म है |अगर आप उसे घायल ही छोड़कर आगे
निकल जाते हैं और फिर विचार करते हैं कि उसकी सहायता करना आपका धर्म है और वापिस
लौटकर उसकी सहायता करते हैं तो फिर यह सत्कर्म तो अवश्य है परन्तु अकर्म नहीं है |
इस सत्कर्म का फल आपको अगले जन्म में अवश्य ही मिलेगा परन्तु आपका यह कर्म ,अकर्म
नहीं होगा |अगर आप बिना विचार किये पूर्व की भांति उसे अस्पताल पहुंचाकर, इलाज प्रारम्भ
करवाकर उसे उसके परिजनों को सौंप देते हैं और फिर परिजनों से आभार व्यक्त करने की मन
में कामना रखते हैं तो फिर यह सकाम-कर्म हो गया ,निष्काम-कर्म नहीं रहा | ऐसे कर्म
का भी फल आपको अवश्य ही मिलेगा |अकर्म तो बिना किसी विचार और कामना के होता है और
ऐसे कर्म के फल से आप मुक्त रहते हो |गीता में भगवान बिना विचार और बिना किसी
कामना के किये गए कर्मों के बारे में कहते हैं-
कर्मण्यकर्म यः
पश्येदकर्मणिचकर्म यः |
स बुद्धिमान्मनुष्येषुस युक्तः
कृत्स्नकर्मकृत् ||गीता 4/18||
अर्थात् जो मनुष्य
कर्म में अकर्म देखता है और अकर्म में कर्म देखता है वह, मनुष्यों में बुद्धिमान
है और वह योगी समस्त कर्मों को करने वाला है |इसका तात्पर्य यही है कि बिना किसी
संकल्प और विचार के किया गया कर्म ही अकर्म है |कर्म में अकर्म देखता है यानि ऐसे
कर्म को मनुष्य करते हुए भी नहीं करता है क्योंकि यह कर्म बिना किसी कामना के किया
गया है |अकर्म में कर्म देखने से अभिप्राय यह है कि व्यक्ति को ऐसा कर्म करने के
बाद पता चलता है कि यह कर्म तो मेरे द्वारा किया ही नहीं गया है अर्थात इसका कर्ता
मैं हूँ ही नहीं,फिर भी यह कर्म उसके भौतिक जड़ शरीर के द्वारा ही हुआ है | व्यक्ति
के कर्ता न होते हुए भी उसका शरीर कर्ता है,इसी को अकर्म में कर्म देखना कहते हैं |
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||