Saturday, February 28, 2015

कर्म-योग |-29

                     फिर वर्तमान के कौन से ऐसे कर्म हो सकते हैं,जिन्हें हम भूत और भविष्य से सम्बंधित होना न मानें |ऐसे कर्मों को पहचान पाना और कर पाना बहुत ही मुश्किल है |इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि हम कर्म ही सोच समझ कर करते हैं, मन में विचार करके करते हैं और भविष्य को ध्यान में रखते हुए करते हैं |अतः बिना किसी बात का विचार किये और बिना भविष्य को दृष्टिगत रखते हुए जो कर्म  किये जाते हैं, वे कर्म ही आज के कर्म हैं, वर्तमान के कर्म हैं और अकर्म हैं |आप किसी रास्ते से जा रहे हैं और अपने सामने एक घायल व्यक्ति को बीच रास्ते में पड़ा पाते हैं| आप तुरंत ही सब काम छोड़ कर उसे अस्पताल पहुंचाते है और उसका इलाज प्रारम्भ करवा देते है |उसके परिजनों को बुलाकर उन्हें उसे सौंप कर अपने आगे के रास्ते पर निकल पड़ते हैं, तो यह कर्म ही आज का कर्म है, वर्तमान का कर्म है और निष्काम-कर्म है |अगर आप उसे घायल ही छोड़कर आगे निकल जाते हैं और फिर विचार करते हैं कि उसकी सहायता करना आपका धर्म है और वापिस लौटकर उसकी सहायता करते हैं तो फिर यह सत्कर्म तो अवश्य है परन्तु अकर्म नहीं है | इस सत्कर्म का फल आपको अगले जन्म में अवश्य ही मिलेगा परन्तु आपका यह कर्म ,अकर्म नहीं होगा |अगर आप बिना विचार किये पूर्व की भांति उसे अस्पताल पहुंचाकर, इलाज प्रारम्भ करवाकर उसे उसके परिजनों को सौंप देते हैं और फिर परिजनों से आभार व्यक्त करने की मन में कामना रखते हैं तो फिर यह सकाम-कर्म हो गया ,निष्काम-कर्म नहीं रहा | ऐसे कर्म का भी फल आपको अवश्य ही मिलेगा |अकर्म तो बिना किसी विचार और कामना के होता है और ऐसे कर्म के फल से आप मुक्त रहते हो |गीता में भगवान बिना विचार और बिना किसी कामना के किये गए कर्मों के बारे में कहते हैं-
                  कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणिचकर्म यः |
                 स बुद्धिमान्मनुष्येषुस युक्तः कृत्स्नकर्मकृत् ||गीता 4/18||

अर्थात् जो मनुष्य कर्म में अकर्म देखता है और अकर्म में कर्म देखता है वह, मनुष्यों में बुद्धिमान है और वह योगी समस्त कर्मों को करने वाला है |इसका तात्पर्य यही है कि बिना किसी संकल्प और विचार के किया गया कर्म ही अकर्म है |कर्म में अकर्म देखता है यानि ऐसे कर्म को मनुष्य करते हुए भी नहीं करता है क्योंकि यह कर्म बिना किसी कामना के किया गया है |अकर्म में कर्म देखने से अभिप्राय यह है कि व्यक्ति को ऐसा कर्म करने के बाद पता चलता है कि यह कर्म तो मेरे द्वारा किया ही नहीं गया है अर्थात इसका कर्ता मैं हूँ ही नहीं,फिर भी यह कर्म उसके भौतिक जड़ शरीर के द्वारा ही हुआ है | व्यक्ति के कर्ता न होते हुए भी उसका शरीर कर्ता है,इसी को अकर्म में कर्म देखना कहते हैं |
क्रमशः 
                  || हरिः शरणम् ||

Tuesday, February 24, 2015

कर्म-योग |-28

                जो भी कर्म आज और अभी ;बिना दोनों ही कल की सोचे किये जाते हैं,वे सभी कर्म,अकर्म हो जाते हैं | अकर्म का अर्थ यह कदापि नहीं हो सकता कि कर्म किये ही नहीं जाये| कर्म न करनेका अर्थ है जीवन का अर्थहीन हो जाना; जब कि मनुष्य ही नहीं, किसी भी प्राणी का जीवन अर्थहीन नहीं है, मूल्यहीन नहीं है|यही परमात्मा की हमारे ऊपर असीम कृपा है कि उसने इस भौतिक संसार में हम सभी प्राणियों के शरीर मूल्यवान बनाये हैं |अतः किसी भी प्राणी को मूल्यहीन समझना मनुष्य की मूर्खता ही कहलाएगी |संसार के सभी प्राणी कर्म करने में लगे हुए हैं |मनुष्य और अन्य प्राणियों में कर्म के स्तर का अंतर हो सकता है परन्तु कर्म करना सभी प्राणियों का प्रमुख लक्षण है |

                कर्म, जो हम आज कर रहे हैं, वे कल में कैसे हो सकते हैं अर्थात वे कर्म भूत और भविष्य में कैसे हो सकते हैं ? यह बात एक साधारण से उदाहरण से स्पष्ट करना चाहूँगा |पूर्व में कभी एक बार ‘अ’ का अपमान ‘ब’ कर देता है |उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप आज ‘ब’ उस अपमान का बदला ‘अ’ से उसका अपमान करके लेता है | हालाँकि यह अपमान करने का कर्म ‘ब’ आज कर रहा है परन्तु वास्तव में यह कर्म बीते हुए कल के कर्म की प्रतिक्रिया है इसलिए यह कर्म भूतकाल का माना जायेगा और यह कर्म, अकर्म नहीं हो सकता |प्रत्येक कर्म जो प्रतिक्रिया स्वरूप किया जाता है वह अकर्म हो ही नहीं सकता |ऐसे कर्मों का फल पुनर्जन्म में भोगना ही होगा |इसी प्रकार आपने पूर्व में किसी कर्म से सुख प्राप्त किया, उसके कारण आपके मन में वैसा ही सुख और प्राप्त करने की इच्छा पैदा हुई |इस सुख प्राप्त करने की कामना से जो भी कर्म आप करते हैं ,वे सभी कर्म भूतकाल के अनुभव और भविष्य की आशा से प्रेरित होंगे, अतःइन सभी कर्मों को सकाम-कर्म की श्रेणी में ही रखा जायेगा |
क्रमशः 
                        || हरिः शरणम् ||

Saturday, February 21, 2015

कर्म-योग |-27

अकर्म और निष्काम-कर्म (निष्कर्मता) -
Action without reaction is known as” No act”.
                      जो कर्म बिना किसी भी प्रतिक्रिया स्वरूप किया जाता है वह अकर्म कहलाता है |मनुष्य किसी भी कर्म को करने से पूर्व उसके करने या न करने के बारे में गंभीरता से विचार करता है और उससे भविष्य में होने वाले लाभ और हानि का मूल्यांकन करता है ऐसे में किये जाने वाला कर्म अकर्म की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता ,यह तो सकाम-कर्म ही होगा |मनुष्य के मन में विचार भूतकाल के अनुभव की देन है और कामना भविष्य की सम्भावना | अतः जो कर्म विचार करके और कामना पूर्ति के लिए किये जाते हैं वे सकाम-कर्म ही होंगे |संसार में जितने भी मनुष्य है,प्रायः सभी इन सकाम-कर्मों को ही करने में व्यस्त है |वे जो भी कर्म करते हैं उन पर या तो भूत-काल की छाप होती है या फिर भविष्य की सम्भावना नज़र आती है |वर्तमान के परिपेक्ष्य में कोई बिरला ही अकर्म करते हुए दृष्टिगोचर हो सकता है |
                  इससे एक बात तो स्पष्ट हो जाती है कि अकर्म वर्तमान में रहते हुए ही हो सकते हैं, भूत और भविष्य में जीते हुए नहीं |आज मनुष्य की दुर्गति इसीलिए हो रही है; क्योंकि वह सदैव ही भूतकाल या भविष्य में जीना चाहता है ,वर्तमान में नहीं |वह आज की नहीं सोचता बल्कि सदैव ही बीते हुए कल या आनेवाले कल की ही सोचता रहता है |इसी भूत और भविष्य की सोच के मध्य वह एक पेंडुलम या दोलक की भांति डोलता रहता है, दोलन करता रहता है जबकि जीवन को आनंदपूर्वक जीने के लिए एक तरह की स्थिरता चाहिए |यह स्थिरता उसे न तो भूतकाल में मिल सकती है और न ही भविष्य में;न तो यह स्थिरता बीते हुए कल में जाने से मिलेगी और न ही आने वाले कल में |यह स्थिरता इन दोनों के मध्य मिलेगी और इन दोनों का मध्य है वर्तमान अर्थात आज |अतः अगर व्यक्ति को आनंदित रहते हुए जीना है तो उसका एकमात्र उपाय है ;आज में जीना ,वर्तमान में रहना |
क्रमशः 
                      ||हरिः शरणम् ||

                

Wednesday, February 18, 2015

कर्म-योग |-26

                             इस प्रकार हमने देखा कि कर्म करने का जैसे प्रथम कारण मनुष्य का भूतकाल है वैसे ही इसका दूसरा महत्वपूर्ण कारण भी उसका भविष्य काल ही है |भूतकालके लिए मस्तिष्क में पैदा हुए विचार, धारणा और स्वभाव कर्म करवाते है, ठीक उसी प्रकार मन में पैदा हुई कामना, लोभ, मोह और ममता भविष्य के लिए मनुष्य को कर्म करने को विवश करती है |कर्म हम वर्तमान में कर रहे हैं परन्तु कर रहे हैं-भूतकाल के अनुसार और भविष्य के लिए |यही कर्म-बंधन है| कर्म-बंधन ही मानव जीवन की सबसे बड़ी विडंबना है |ऐसे ही किये गए योग-कर्म मनुष्य को बार-बार इसी धरती पर जन्म लेने को विवश करते हैं और व्यक्ति इन शरीरों के चक्रव्यूह से निकल नहीं पाता है |

                      कर्मों में आसक्ति पैदा होने का एक प्रमुख कारण व्यक्ति का वर्तमान में न जीकर भूतकाल अथवा भविष्य में जीना ही है |भूतकाल का कथित अनुभव उसे आत्म-ज्ञान कराने में सबसे बड़ा बाधक है |अनुभव से और विचारों से जो धारणा पैदा होती है, वे व्यक्ति को अपने भीतर उतरने का , स्वयं के भीतर प्रवेश करने का अवसर ही पैदा नहीं होने देती |जैसे किसी भी विषय, व्यक्ति, वस्तु अथवा स्थान के बारे में अगर आप  जानने की उत्सुकता रखते हैं तो आपको पूर्व में जो भी ज्ञान उस विषय आदि के बारे में है ,उसे मिटाना होगा |जब आप ऐसे कथित ज्ञान से शून्य हो जाओगे तब आपमें उस विषय के बारे में जागरूकता (awareness) पैदा होगी और यही जागरूकता आपको उस विषय, वस्तु अथवा व्यक्ति के बारे में सही और सटीक जानकारी उपलब्ध कराएगी |इसीलिए  मैंने पूर्व में कहा है कि आध्यात्मिकता में किसी प्रकार के अनुभव की कीमत  दो कौड़ी की भी नहीं होती |गुरु के पास जाने और उनसे ज्ञान प्राप्त करने के लिए अपने आपको पूर्ण रूप से तैयार करना पड़ता है  अन्यथा आप ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते |आपको अपना अनुभव और कथित ज्ञान गुरु के आश्रम के बाहर ही विस्मृत करके जाना होगा |तभी आपको गुरु आत्म-ज्ञान के लिए आंदोलित कर सकता है |
             अतः जितने भी कर्म कामना-भविष्य की और भूतकाल के अनुभव से किये जाते हैं ,वे सभी फल पैदा करने वाले सकाम-कर्म ही होते हैं |ऐसे कर्मों के जंजाल में आप छटपटाते हुए रह सकते हैं, बाहर निकल नहीं सकते |कर्मों को अकर्म में बदलने के लिए आवश्यक है कि इस अनुभव और कामना पर आधारित कर्मों से बाहर निकल कर वर्तमान परिस्थिति में जीते हुए कर्म और वर्तमान के अनुरूप कर्म किये जाये ,जिसमें आपके भूतकाल के अनुभव, भविष्य  की कामना और विचारों का किसी भी प्रकार का योगदान नहीं हो |
क्रमशः 
                       || हरिः शरणम् || 

Sunday, February 15, 2015

कर्म-योग |-25

                                             इस प्रकार हमने देखा कि कर्म करने का प्रथम कारण मनुष्य का भूतकाल है जिससे व्यक्ति का स्वभाव बनता है |विचार से धारणा पुष्ट होती है, धारणा से व्यक्ति के आदर्श का निर्माण होता है और फिर धारणा के अनुरूप व्यक्ति के स्वभाव का निर्माण होता है |इसी स्वभाव को व्यक्ति का चित्त उसके शरीर की मृत्यु के उपरांत अपने साथ ले जाता है ,जो नए जन्म में यही स्वभाव उस व्यक्ति में उसके संस्कार बनकर प्रकट होते हैं |इन्हीं संस्कारों को भगवान श्री कृष्ण ने गीता में व्यक्ति के प्राकृतिक गुण कहा है जिनके परवश होकर वह कर्म करने को विवश होता है |इन्हीं संस्कारों के कारण अपने जीवन के प्रारम्भ में व्यक्ति भोग-कर्म करता है |इन भोग-कर्मों से जो भी फल मिलता है ,उन फलों को लेकर मनुष्य का मन विचार करता है ,फिर धारणा, योग-कर्म, उस कर्म केअनुभव, सिद्धांत, आदर्श और अंत में स्वभाव का निर्माण होता है और इसी स्वभाव से पुनर्जन्म में व्यक्ति के संस्कार का निर्माण होता है | इस प्रकार यह अटूट चक्र निरंतर चलता रहता है |

               भोग-कर्म करने से प्राप्त फल को लेकर ही मनुष्य के मस्तिष्क में विचारों का जन्म होता है | इन विचारों का जन्म नई धारणा और अनुभव पैदा करता है जिससे व्यक्ति के मन में कामनाएं पैदा होती है |इन कामनाओं की पूर्ति हेतु व्यक्ति योग-कर्म करने को उद्यत होता है | जैसा कि पहले ही यह स्पष्ट किया जा चूका है कि किसी भी योग-कर्म का फल वर्तमान जीवन में प्राप्त नहीं किया जा सकता, फिर भी मनुष्ययोग-कर्म का फल इसी जन्म में प्राप्त करना चाहता है |जब कामनाओं को पूर्ण करने के लिए व्यक्ति कर्म करता है और उसे पर्याप्त फल की प्राप्ति नहीं होती तो उसमें क्रोध पैदा होता है और अगर भाग्य से पर्याप्त फल प्राप्त हो जाता है तो वह उसका कारण योग-कर्म को मान लेता है | अपर्याप्त फल के मिलने से व्यक्ति को क्रोध पैदा होता है जिससे उसके मन में पुनःनए विचार पैदा हो जाते हैं जो उसकी मति को भ्रमित कर देते हैं | मतिभ्रम की स्थिति में बुद्धि कार्य करना बंद कर देती है | ऐसी स्थिति में व्यक्ति जो भी कर्म करता है,वे सब निम्नतम स्तर के होकर विकर्म कहलाते हैं |अगर योग-कर्मों का फल देव योग से पर्याप्त मात्रा में मिल जाते हैं तो व्यक्ति इन्हीं फलों की आशा अधिक करने लगता है |इसीको लालच अथवा लोभ कहा जा सकता है |व्यक्ति जिन कर्मों से अच्छा फल प्राप्त होना मानता है वह उन कर्मों और उसके फलों में आसक्त हो जाता है |यह आसक्ति अगरकर्मफल में हो तो वह मोह और ममता कहलाती है |यही मोह और आसक्ति भविष्य में वैसे ही फल और अधिक मात्रा में प्राप्त करने के लिए और अधिक योग-कर्म करने को विवश करती है |
क्रमशः
                                 || हरिः शरणम् ||

Thursday, February 12, 2015

कर्म-योग |-24

                 मैं यह नहीं कह रहा कि विचार, धारणा, अनुभव और आदर्श आदि की कोई उपयोगिता नहीं है | हाँ, इनकी उपयोगिता सांसारिक वस्तुएं, सुख, दुःख, मान और सम्मान आदि पाने के लिए कुछ सीमा तक अवश्य है, परन्तु केवल इन्हीं के आधार पर सब कुछ प्राप्त नहीं किया जा सकता |आध्यात्मिकता में इन सब बातों की कोई कीमत नहीं है |आध्यात्मिकता का अर्थ प्रत्येक व्यक्ति के लिए अपना अपना होता है क्योंकि स्वयं को जानने का नाम ही अध्यात्म है |दूसरे का अनुभव मात्र मार्गदर्शन के अतिरिक्त अन्य किसी भी अर्थ का नहीं होता |इसी लिए परमात्मा की प्राप्ति के लिए किसी भी प्रकार के विचार, धारणा और अनुभव से परे जाना होगा |किसी अन्य के विचार या अनुभव से आपको अपना मार्ग तलाश करने में सहायता अवश्य मिल सकती है परन्तु मार्ग पर आपको ही चलना होगा और वह भी अपने स्वभावानुसार | किसी अन्य का अनुभव ही आध्यात्मिकता में गुरु की भूमिका स्पष्ट करता है |गुरु अपने अनुभव और विचार से शिष्य को आंदोलित कर देता है, मार्ग दिखा सकता है, उस मार्ग पर चलने का कार्य तो शिष्य को स्वयं ही करना होगा | हो सकता है, गुरु का बताया मार्ग सुगम भी हो या दुर्गम भी | गुरु के लिए जैसा रहा होगा यह मार्ग, आवश्यक नहीं है कि आपको भी वैसा ही मिलेगा | इसमें भला गुरु के विचार, उनकी धारणा अथवा अनुभव कैसे जिम्मेदार होंगे ? आप रास्ते पर लगे मार्गदर्शक पट्ट की तरह गुरु को मान सकते हैं,बस गुरु की भूमिका उसी पट्ट की तरह ही होती है | रास्ते का मार्गदर्शक पट्ट आपको आपके लक्ष्य की राह बता सकता है परन्तु उस राह पर चलना आपको ही पड़ेगा और उस राह की कठिनाइयों को भी आपको ही झेलना पड़ेगा |

          भूतकाल के संघटित विचार जो वर्तमान में हमारी धारणा बन चुके हैं ,हम आज उन्हीं धारणाओं के अनुरूप कर्म करने लगते हैं और यह भूल जाते हैं कि हमारी धारणाएं बीते हुए कल की है, जबकि कर्म हम आज कर रहे हैं |आज के कर्म अगर बीते हुए कल की धारणाओं पर आश्रित हों तो फिर ऐसे कर्मों का फल भी हमें उसी काल के अनुरूप स्वीकार करना होगा |मनुष्य की सबसे बड़ी कमजोरी यहाँ आकर स्पष्ट हो जाती है क्योंकि वह भूतकाल के वशीभूत है |इसीलिए गीता में भगवान श्री कृष्ण ने स्पष्टतः कहा है कि मनुष्य अपने स्वभाव के और प्रकृति से मिले गुणों के परवश होकर ही कर्म करता है |
क्रमशः 
                    ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Monday, February 9, 2015

कर्म-योग |-23

                        इन कर्मों को करने के लिए मनुष्य के विचार (Thoughts ) और धारणाएं (Ideas)  उत्तरदाई होती है |बिना विचारों और धारणाओं के ये सकाम-कर्म सम्पादित ही नहीं होते हैं |व्यक्ति के मस्तिष्क की एक महत्वपूर्ण विशेषता है कि वह एक पल भी खाली नहीं रह सकता,चाहे आप सो रहे हों या कोई अन्य कार्य कर रहे हो अथवा विश्राम ही कर रहे हो |हर पल आपका मस्तिष्क कुछ न कुछ करने में लगा रहता है |ऐसे में जो कुछ भी उधेड़बुन उस मस्तिष्क के भीतर चल रही होती है उसे हम विचार (Thought) कहते हैं |आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि हमारे 99 प्रति शत विचार मात्र कूड़े के अतिरिक्त कुछ भी नहीं होते |इसके लिए आप एक प्रयोग भी कर सकते हैं |जब आप विश्राम में हो तब आप अपने मस्तिष्क को बाध्य किये बिना जो भी वह विचार कर रहा हो,करने दें| अब इन सब को आप कागज पर लिख डालें, हूबहू |फिर आधे घंटे बाद इसे पढ़े |आपको मेरी बात सत्य लगेगी |आप कल्पना तक नहीं कर सकते कि आपका मस्तिष्क इतनी ऊलजलूल बातें भी सोच सकता है |इसीलिए मैंने कहा  है कि हमारे मस्तिष्क में 99 प्रति शत विचार तो फालतू के होते हैं | ये सब सोच और विचार उन घटनाओं से बनते है जैसी हमने जीवन में कहीं घटित होते देखी है अथवा जिनके बारे में हमने कहीं पढ़ा और सुना होगा |कहने का अर्थ यह है कि विचारों का सम्बन्ध सदैव ही किन्हीं पूर्व घटित घटनाओं से अवश्य ही होता है, चाहे वे कभी घटनाएँ घटित हुई हो, चाहे कहीं और कभी देखी, पढ़ी अथवा सुनी गई हो |जब ऐसे एक ही प्रकार के, एक दूसरे से संबंधित अनेकों विचार घनी भूत हो जाते हैं,तब वे एक प्रकार की धारणा(Idea) का निर्माण करते हैं |इस धारणा के अनुसार ही व्यक्ति फल प्राप्ति के लिए कर्म करता है | इन कर्मों के परिणाम या तो व्यक्ति के पक्ष के होते हैं या फिर विपरीत| इन कर्मों से प्राप्त फल के विवेचन के लिए फिर से मस्तिष्क में विचार उत्पन्न होते हैं और पुनः एक नई संशोधित धारणा का जन्म होता है| धीरे धीरे यही धारणायें व्यक्ति का अनुभव बन जाती है | इन अनुभवों के आधार पर व्यक्ति अपने कथित सिद्धांत और आदर्श बना लेता है | जिस धारणा, अनुभव या सिद्धांत की नींव ही भूतकाल में हो, वह आज के सन्दर्भ में महत्त्वपूर्ण कैसे हो सकता है ? इसी लिए मैं कहता हूँ कि अनुभव की कीमत दो कौड़ी की नहीं होती |कल जो बात सत्य थी, हो सकता है कि आज भी सत्य हो परन्तु वह सत्य उतना सत्य नहीं हो सकता जितना वह कल था | उसमें कुछ न कुछ परिवर्तन आपको अवश्य ही मिलेगा |इसी प्रकार विचार भी महत्वपूर्ण हैं परन्तु आज उनकी क्या उपयोगिता होगी ,इस पर संशय अवश्य ही रहेगा | 
क्रमशः 
                 ॥ हरिः शरणम् ॥   

Friday, February 6, 2015

कर्म-योग |-22

                      कर्मों की गति को गहन बताते हुए श्री कृष्ण ने अर्जुन को समझाया कि तुम्हें कर्मों के स्वरूप को जानना चाहिए |कर्मों का स्वरूप ही कर्मों के प्रकार है ,जिनको जानकर ही मनुष्य समझ पायेगा कि कौन से कर्म करने कहिये और कौन से नहीं | साथ ही साथ वह यह भी जान सकेगा कि विशेष प्रकार के कर्म करने के लिए वह अपने में उपस्थित प्रकृति के गुणों का उपयोग किस प्रकार कर सकता है ? इन कर्मों के स्वरूप का परिवर्तन केवल योग-कर्मों के लिए ही संभव है, भोग-कर्मों के स्वरूप का परिवर्तन व्यक्ति किसी भी स्थिति में करने को सक्षम नहीं है |अतः भोग-कर्म मात्र एक ही प्रकार के होते हैं जबकि योग-कर्म तीन प्रकार के होते हैं – कर्म, अकर्म और विकर्म |आइये,अब हम तीनों प्रकार के योग-कर्म को विस्तृत रूप से जानें और पहचाने |
कर्म-(सकाम-कर्म)-

        कर्म प्रथम प्रकार के वे योग-कर्म हैं, जिनको मनुष्य अपने मन, बुद्धि और अहंकार का उपयोग करते हुए अपनी इच्छा, अपनी कामना और अपने स्वार्थ की पूर्ति हेतु करता है| इन कर्मों को आप सकाम-कर्म भी कह सकते हैं |इन कर्मों को करने में मनुष्य प्रायः राजसिक गुणों का उपयोग करता है |इन कर्मों में मनुष्य की भावना भौतिक सुखों की प्राप्ति की होती है |इन कर्मों को करने से मनुष्य  को अस्थाई रूप से एक प्रकार की शांति का अनुभव अवश्य होता है परन्तु यह शांति केवल तात्कालिक ही होती है|कुछ समय बाद ही यह शांति तिरोहित हो जाती है |अतः इस शांति को वास्तविक शांति नहीं कहा जा सकता |आधुनिक युग में मनुष्य प्रायः ऐसे ही कर्म करता है जिनका उद्देश्य मात्र उसकी अपनी कामना को पूरा करना ही होता है |
क्रमशः 
                      ॥ हरिः शरणम् ॥ 

Tuesday, February 3, 2015

कर्म-योग |-21

योग-कर्म के प्रकार–
                          योग-कर्म वे कर्म होते हैं जो मनुष्य अपने विवेक और बुद्धि सेसक्रिय रह कर करता है ,अतः इनको सक्रिय-कर्म भी कहा जाता है |इन कर्मों को करने में व्यक्ति के पूर्व-जन्म में किये गए  कर्मों का प्रभाव केवल इनको प्रारम्भ करने तक ही सीमित होता है |मनुष्य एक बार जब योग-कर्म करना प्रारम्भ कर देता है फिर उन कर्मों को करने,न करने अथवा उनके प्रकार में परिवर्तन करने का नियंत्रण मन, बुद्धि और अहंकार के पास आ जाता है |इस नियंत्रण को व्यक्ति द्वारा पुनः अपने अधिकार क्षेत्र में लेना बहुत ही मुश्किल होता है परन्तु असंभव नहीं |इसके लिए व्यक्ति को इन तीनों तत्वों पर अपना प्रभुत्व स्थापित करना होता है |
         गीता में भगवान श्री कृष्ण ने योग-कर्म तीन प्रकार के बताये हैं – कर्म,अकर्म और विकर्म |गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
                कर्मणो ह्यपिबोद्धव्यंबोद्धव्यं च विकर्मण: |
                अकर्मणश्चबोद्धव्यं गहना कर्मणोगतिः||गीता4/17||
अर्थात् कर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए और अकर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए तथा विकर्म का स्वरूप भी जानना  चाहिए;क्योंकि कर्म की गति गहन है |

         यहाँ भगवान स्पष्ट करते हैं कि कर्म की गति गहन है अर्थात् कर्म करने के बाद उसकी गति क्या होगी, उसका क्या परिणाम होगा यह जानना बहुत ही मुश्किल है |साधारण व्यक्ति कर्म तो करता है अपने मन के अनुसार और वह इन कर्मों को प्रायः उचित और शास्त्रोक्त मानता भी है परन्तु क्या उसके द्वारा किये गए कर्म वैसे ही है जैसा कि उनको मान कर वह कर रहा है ? नहीं,प्रायः वे कर्म वैसे होते नहीं है |अगर सभी कर्म उसकी सोच के अनुसार उचित होते तो वह कभी का मुक्त हो चूका होता |उसको बार बार जन्म लेकर इन भौतिक शरीरों के साथ अनन्त काल तक भटकना नहीं पड़ता |इसीलिए परमात्मा ने कर्म की गति को गहन बताया है|अर्जुन, जो युद्ध कर्म को अनुचित बता रहा था, भगवान श्री कृष्ण की मान्यता अनुसार युद्ध उचित था | एक आम मनुष्य की नज़रों में युद्ध सदैव ही अनुचित रहता है परन्तु परमात्मा कहते हैं कि क्या उचित है और क्या अनुचित, इसका निर्णय मनुष्य नहीं कर सकता |इसका निर्णय तो मनुष्य में स्थित प्रकृति के गुण ही करेंगे| हाँ, मनुष्य में स्थित तीनों गुणों में से किस गुण का उपयोग वह कर्म करने के लिए उचित समझता है ,वह मनुष्य के हाथ में अवश्य है परन्तु इस क्षमता का मनुष्य उपयोग कैसे करता है यह सब उसके मन, बुद्धि और अहंकार पर निर्भर करता है | गुणोंका उपयोग करते हुए कर्म करना ही मनुष्य की एक मात्र स्वतंत्रता है जो उसे अन्य प्राणियों से अलग करती है | भगवान श्री कृष्ण ने इसी विशेषता के कारण ही कर्मों की गति को गहन बताया है |
क्रमशः 
                   ॥ हरिः शरणम् ॥