Friday, September 27, 2019

उद्धव-कृष्ण संवाद-7(समापन कड़ी)-

उद्धव-कृष्ण संवाद-7(समापन कड़ी)-
        भक्ति से अभिभूत उद्धव मंत्रमुग्ध हो गये और बोले- “प्रभु कितना गहरा दर्शन है | कितना महान सत्य | 'प्रार्थना' और 'पूजा-पाठ' से, ईश्वर को अपनी मदद के लिए बुलाना तो केवल हमारी 'पर-भावना' है परन्तु जैसे ही हम यह विश्वास करना शुरू करते हैं कि 'ईश्वर' के बिना पत्ता भी नहीं हिलता, तब हमें साक्षी के रूप में उनकी उपस्थिति का अनुभव होने लगता है | समस्या तो तब पैदा होती है, जब हम इसे भूलकर सांसारिकता में डूब जाते हैं।“
        सम्पूर्ण श्रीमद् भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को इसी जीवन-दर्शन का ज्ञान दिया है | सारथी का अर्थ है- मार्गदर्शक | अर्जुन के लिए सारथी बने श्रीकृष्ण वस्तुतः उसके मार्गदर्शक ही थे | वह स्वयं की सामर्थ्य से युद्ध नहीं कर पा रहा था, लेकिन जैसे ही अर्जुन को परम साक्षी के रूप में भगवान कृष्ण का अनुभव हुआ, वह उस परम तत्व की चेतना में विलीन हो गया | यह एक अनुभूति थी-शुद्ध, पवित्र, प्रेममय, आनंदित परम चेतना की |तत्वमसि यानि तत-त्वम-असि | अर्थात वह परम तत्व तुम ही हो |
          इसके बाद श्री कृष्ण ने उद्धव को जो उपदेश दिया वह “उद्धव गीता” नाम से प्रसिद्ध है | श्री मद्भागवत महापुराण के ग्यारहवें स्कंध में वह उपदेश संकलित है, जो भगवान श्रीकृष्ण ने अपने परम सखा उद्धव को दिया था। उपदेश लेने के उपरांत भगवान श्रीकृष्ण के आदेशानुसार उद्धव बद्रिकाश्रम चले गए, वहीँ तपस्या में लीन होकर उन्होंने अपनी जीवन लीला समाप्त की और परमात्मा के धाम गमन कर गए|
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम्||

Thursday, September 26, 2019

उद्धव-कृष्ण संवाद-6

उद्धव-कृष्ण संवाद-6
                   उद्धव बोले- "कान्हा आपका स्पष्टीकरण प्रभावशाली अवश्य है, किन्तु मुझे अभी भी पूर्ण संतुष्टि नहीं हुई है | क्या मैं एक और प्रश्न पूछ सकता हूँ?"
      भगवान श्रीकृष्ण की अनुमति से उद्धव ने पूछा-
"इसका अर्थ यह हुआ कि आप तभी आओगे, जब आपको बुलाया जाएगा? क्या संकट से घिरे अपने भक्त की मदद करने आप स्वतः नहीं आओगे?"
         कृष्ण मुस्कुराए- "उद्धव इस सृष्टि में प्रत्येक का जीवन उसके स्वयं के कर्मफल के आधार पर संचालित होता है | न तो मैं इसे चलाता हूँ, और न ही इसमें कोई हस्तक्षेप करता हूँ | मैं तो केवल एक 'साक्षी' हूँ | मैं सदैव तुम्हारे नजदीक रहकर जो हो रहा है उसे देखता हूँ | यही ईश्वर का धर्म है |"
        "वाह-वाह, बहुत अच्छा कृष्ण | तो इसका अर्थ यह हुआ कि आप हमारे नजदीक खड़े रहकर हमारे सभी दुष्कर्मों का निरीक्षण करते रहेंगे? हम पाप पर पाप करते रहेंगे, और आप हमें साक्षी बनकर देखते रहेंगे?आप क्या चाहते हैं कि हम भूल पर भूल करते रहें? पाप की गठरी बाँधते रहें और उसका फल भुगतते रहें?" उलाहना देते हुए उद्धव ने पूछा |
       तब कृष्ण बोले-"उद्धव, तुम मेरे शब्दों में छिपे गहरे अर्थ को समझो | जब तुम समझकर अनुभव कर लोगे कि मैं तुम्हारे नजदीक 'साक्षी' के रूप में हर पल हूँ, तो क्या तुम फिर कुछ भी अनुचित या बुरा कर सकोगे? मैं कहता हूँ कि तब तुम निश्चित रूप से कुछ भी बुरा नहीं कर सकोगे | जब तुम यह भूल जाते हो और यह समझने लगते हो कि मुझसे छुपकर कुछ भी कर सकते हो, तब ही तुम मुसीबत में फँसते हो।धर्मराज का अज्ञान यह था कि उसने माना कि वह मेरी जानकारी के बिना जुआ खेल सकता है | अगर उसने यह समझ लिया होता कि मैं प्रत्येक के साथ हर समय साक्षी रूप में उपस्थित हूँ तो क्या खेल का रूप कुछ और नहीं होता?"
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम्||

Wednesday, September 25, 2019

उद्धव-कृष्ण संवाद-5

उद्धव-कृष्ण संवाद-5
       इतने सारे प्रश्न अकेले उद्धव के मन के नहीं हैं | महाभारत पढ़ते समय हर एक के मनो-मस्तिष्क में यही सवाल उठते हैं | आप इतना समझ लीजिये कि उद्धव ने हम लोगों की ओर से ही श्रीकृष्ण से उक्त प्रश्न किए थे | इन प्रश्नों पर भगवान श्रीकृष्ण मुसकुराते हुए बोले-
      "प्रिय उद्धव, मेरे द्वारा सृजित इस सृष्टि का नियम है कि विवेकवान ही जीतता है | उस समय दुर्योधन के पास विवेक था, धर्मराज के पास नहीं | यही कारण रहा कि धर्मराज पराजित हुए |"
      ऐसे अनपेक्षित उत्तर से उद्धव को हैरान परेशान देखकर कृष्ण आगे बोले- "दुर्योधन के पास जुआ खेलने के लिए पैसा और धन तो बहुत था, लेकिन उसे पासों का खेल खेलना नहीं आता था, इसलिए उसने अपने मामा शकुनि का द्यूत-क्रीड़ा के लिए उपयोग किया |उसका यही निर्णय विवेक है | धर्मराज भी इसी प्रकार सोच सकते थे और अपने ममेरे भाई अर्थात मुझसे ऐसा ही अनुरोध कर सकते थे।वे कह सकते थे कि उनकी तरफ से मैं खेलूँगा, परन्तु उन्होंने राजसभा में तो कहना दूर, मेरे से भी आग्रह तक नहीं किया | तुम जरा विचार करो कि अगर शकुनी और मैं खेलते तो कौन जीतता? पासे के अंक उसके अनुसार आते या मेरे अनुसार?
             चलो इस बात को भी जाने दो। उन्होंने मुझे खेल में शामिल नहीं किया, इस बात के लिए उन्हें क्षमा किया जा सकता है | लेकिन उन्होंने विवेक-शून्यता से एक और बड़ी भूल की और वह यह कि उन्होंने मुझसे प्रार्थना की कि मैं तब तक सभा-कक्ष में न आऊँ, जब तक कि मुझे बुलाया न जाए क्योंकि वे अपने ‘दुर्भाग्य का खेल’ मुझसे छुपकर खेलना चाहते थे | वे नहीं चाहते थे, मुझे मालूम पड़े कि वे जुआ खेल रहे हैं | इस प्रकार उन्होंने अपनी एक प्रार्थना से मुझे बाँध दिया | मुझे सभा-कक्ष में आने की अनुमति तक नहीं थी |
इसके बाद भी मैं कक्ष के बाहर इंतज़ार कर रहा था कि कब कोई मुझे बुलाता है | भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव सब के सब मुझे भूल गए | केवल अपने भाग्य और दुर्योधन को कोसते रहे |
      अपने भाई के आदेश पर जब दु:शासन द्रौपदी को बाल पकड़कर घसीटता हुआ सभा-कक्ष में लाया,तब  द्रौपदी भी अपनी सामर्थ्य के अनुसार जूझती रही |  उसने भी मुझे नहीं पुकारा | उसकी बुद्धि तब जागृत हुई, जब दु:शासन ने उसे लगभग निर्वस्त्र ही कर दिया था |
                      जब उसने स्वयं पर निर्भरता छोड़कर, “हरि, हरि ...... अभयम् कृष्णा ...अभयम्”  की गुहार लगाई, तब मुझे उसके शील की रक्षा करने का अवसर मिला |उसने जैसे ही मुझे पुकारा, मैं अविलम्ब वहां पहुँच गया | अब तुम्हीं बताओ, इस स्थिति में मेरी गलती कहाँ थी?"
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम्||

Tuesday, September 24, 2019

उद्धव-कृष्ण संवाद-4

उद्धव-कृष्ण संवाद-4       
     अब आते है उद्धव-कृष्ण के मध्य हुए दूसरे संवाद पर-
           द्वारिका में जब यदुवंश की समाप्ति के बाद भगवान श्री कृष्ण निज धाम को प्रस्थान करने लगे तो उद्धव ने भी उनके साथ जाने की इच्छा प्रकट की | भगवान श्री कृष्ण ने कहा कि आप ‘वासु’ नामक देव के अवतार हैं और आपका यह अंतिम जन्म है | आपको अभी मेरे धाम आने के लिए कुछ प्रतिक्षा करनी होगी।तब उद्धव ने कहा कि केशव ! मेरे मन में कुछ प्रश्न हैं, क्या आप निज धाम गमन करने से पूर्व उनका उत्तर देकर मुझे संतुष्ट करेंगे ? श्री कृष्ण बोले-“ उद्धव!तुम मुझे सबसे प्रिय हो, मैं तुम्हारी प्रत्येक शंका का समाधान करूँगा, पूछो |"
तब उद्धवजी ने पूछना शुरू किया-
       "हे कृष्ण, सबसे पहले मुझे यह बताओ कि सच्चा मित्र कौन होता है ?"
       कृष्ण ने कहा- "सच्चा मित्र वह है जो जरूरत पड़ने पर मित्र की बिना माँगे, सहायता करे। मित्र को जब आवश्यकता हो, मित्र को तत्काल उसकी स्थिति समझकर सहायता करनी चाहिए |"
         उद्धव को श्रीकृष्ण से इसी प्रकार के उत्तर की आशा थी।उन्होंने तत्काल ही एक के बाद एक कई प्रश्न भगवान श्री कृष्ण से कर दिए ।
       "कृष्ण, आप पांडवों के आत्मीयऔर प्रिय मित्र थे | एक भाई के रूप में उन्होंने सदा आप पर पूरा भरोसा किया | कृष्ण, आप महान ज्ञानी हैं | आप भूत, वर्तमान व भविष्य के ज्ञाता भी हैं, किन्तु आपने सच्चे मित्र की जो परिभाषा दी है, क्या आपको नहीं लगता कि आपने उस परिभाषा के अनुसार कार्य नहीं किया? आपने धर्मराज युधिष्ठिर को द्यूत (जुआ) खेलने से रोका क्यों नहीं? चलो, ठीक है कि आपने उन्हें नहीं रोका, लेकिन आपने भाग्य को भी धर्मराज के पक्ष में भी नहीं मोड़ा, जबकि ऐसा करना आपके हाथ में था | आप चाहते तो युधिष्ठिर जीत सकते थे | आप कम से कम उन्हें धन,  राज्य और यहाँ तक कि खुद को हारने के बाद तो रोक ही सकते थे |
       उसके बाद जब उन्होंने अपने भाइयों को दाँव पर लगाना शुरू किया, तब तो आप सभाकक्ष में पहुँच सकते थे | आपने वह भी नहीं किया? उसके बाद जब दुर्योधन ने पांडवों को सदैव अच्छी किस्मत वाला बताते हुए पांचाली को दाँव पर लगाने को प्रेरित किया और जीतने पर हारा हुआ सब कुछ वापस कर देने का लालच दिया, कम से कम तब तो आप हस्तक्षेप कर ही सकते थे |अपनी दिव्य शक्ति के द्वारा आप पांसे धर्मराज के अनुकूल कर सकते थे | यह करने के स्थान पर आपने तब हस्तक्षेप किया, जब द्रौपदी लगभग अपना शील खो चुकी थी, तब आपने उसे वस्त्र देकर द्रौपदी के शील को बचाने का दावा किया | लेकिन आप यह यह दावा भी भला कैसे कर सकते हैं ?द्रोपदी को एक आदमी सरेआम घसीटकर राज सभा में लाता है, और इतने सारे लोगों के सामने निर्वस्त्र करने के लिए छोड़ देता है | भला ऐसे में एक महिला का शील कहां बचा? फिर आपने द्रोपदी का क्या बचाया?
        अगर आपने संकट के समय में अपनों की मदद नहीं की तो आपको आपात-बन्धु कैसे कहा जा सकता है?बताइए, आपने संकट के समय में मदद नहीं की तो फिर उस सहायता का क्या लाभ ?क्या यही धर्म है?"
     इतने सारे प्रश्नों को एक साथ पूछते-पूछते उद्धव का गला रुँध गया और उनकी आँखों से आँसू बहने लगे|
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम्||

Monday, September 23, 2019

उद्धव-कृष्ण संवाद-3

उद्धव-कृष्ण संवाद-3
         उद्धव के इस प्रश्न पर कृष्ण ने मुसकुराते हुए उनके कन्धे पर हाथ रखा और बोले, “प्रिय सखा, वृन्दावन गोकुल में कोई मेरे प्रेम के लिए व्याकुल नहीं है, सब उस आनंद को ढूंढ रहे जो मैंने उनको दिया और जो उन्होंने मेरे साथ बिताए गए समय में पाया | कुछ मेरे बचपन की लीलाओं के आनंद के अनुभव को याद कर तड़प रहे तो कुछ मेरे संग की गयी शैतानियों और क्रीड़ाओं को याद कर विक्षिप्त से दिखते हैं तुम्हें |”
                    श्री कृष्ण ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया  -  “ वास्तविकता तो यह है कि गोपियाँ भी मुझसे प्रेम के कारण व्याकुल नहीं हैं या मुझसे विछोह के कारण व्याकुल नहीं है। वो व्याकुल हैं उस रस के कहीं चले जाने से जो उनको पूर्णता प्रदान करता था | अगर उन्होंने प्रेम किया होता तो वो सभी की सभी अभी भी उस प्रेम का आनंद ले रही होती | प्रेम सिर्फ और सिर्फ आनंदमय है, उसमें व्यथित होने की कोई सम्भावना ही नहीं है | व्यथा या दुःख केवल मुझसे दूरी का है, मेरे इस शरीर से दूरी का है अन्यथा मैं तो प्रत्येक स्थान और प्रत्येक प्राणी में हूँ और वे सभी मुझमें है|”
        “प्रेम समर्पण का नाम है ना कि किसी परआधिपत्य स्थापित करने का | प्रेम जीवन को जीने का नाम है ना कि किसी को प्राप्त कर उस पर अधिकार कर लेने का | प्रेम तो केवल एक भावना है, पारलौकिक है, सर्वज्ञ है, सर्वस्व है,वह केवल किसी एक व्यक्ति विशेष तक सीमित नहीं | अगर आपकी भावना सीमित है तो फिर वह प्रेम नहीं है । आज मुझसे प्रीत को पाने को किये गए जिस त्याग को वो याद कर रोते हैं वो मात्र प्रेम रुपी यज्ञ में एक आहुति थी, जो कि यज्ञवेदी की प्रेमरूपी अग्नि को प्रज्वलित रखने के लिए अति आवश्यक है |”
      “उन्हें मैं निष्ठुर लगता होऊंगा, निर्मोही भी कहते होंगे वो मुझे | पर अब परिस्थितियाँ पहले जैसी नहीं रही, न ही मैं वो ही पहले वाला ग्वाला कान्हा हूँ | अब मैं एक राज्य का उत्तराधिकारी हूँ, अब मेरे ऊपर पूर्ण राज्य की प्रजा के पालन की जिम्मेदारी है | उन्हें जिस कृष्ण से प्रेम था, वो सभी जिम्मेदारियों से मुक्त था | आज का कृष्ण प्रजा पालक है, तब का कृष्ण सिर्फ एक नटखट बालक था |”
        उद्धव चकित थे इस कृष्ण को देख कर | पर कृष्ण अभी भी मुसकुरा रहे थे | कृष्ण ने उद्धव के दोनों कंधों पर अपने दोनों हाथ रखे और मुसकुराते हुए उद्धव को कहा, “मेरे प्रिय सखा उद्धव, जीवन एक उत्सव है, इसके हर पल को अपने हिस्से की जिम्मेदारियों को निभाने के साथ साथ प्रेम पूर्वक हर्षौल्लास से जीना चाहिए | यही जीवन का मूल सार है |”
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम्||

Sunday, September 22, 2019

उद्धव-कृष्ण संवाद-2

उद्धव-कृष्ण संवाद-2
          श्री कृष्ण जब गुरु संदीपन के यहाँ ज्ञानार्जन के लिए गए थे तब रह रहकर उन्हें व्रज की याद सताती थी | वहां यही उद्धव उनका मित्र था जो सदैव रीति-नीति, निर्गुण ब्रह्म और योग की बात करता रहता था | तब श्री कृष्ण को चिंता हुई कि यह संसार केवल मात्र विरक्ति युक्त निर्गुण ब्रह्म से तो चलेगा नहीं, इसके लिए तो विरह और प्रेम की आवश्यकता है | उद्धव से वे उकताने लगे थे जो सदैव कहता रहता था कि कौन माता, कौन पिता, कौन सखा, कौन बन्धु ? इसीलिए प्रेम और विरह का ज्ञान कराने के लिए ही श्री कृष्ण ने सन्देश देकर उद्धव को वृन्दावन भेजा था | ऐसा नहीं है कि श्री कृष्ण को ज्ञान नहीं था कि उद्धव के साथ कैसा व्यवहार होगा? सब पता था कृष्ण को परन्तु वे अपने मित्र को उस प्रेम और विरह से परिचित करना चाहते थे जो समस्त ज्ञान के ऊपर है | इस प्रकार सूरदासजी ने अपने ‘भ्रमर-गीत’ में इसका वर्णन बड़े ही सुन्दर रूप से किये है |
 उधो ! तुम अपनी जतन करौ
हित की कहत कुहित की लागै,किन बेकाज ररौ ?
जाय करौ उपचार आपनो,
हम जो कहति हैं जी की।
कछू कहत कछुवै कहि डारत,
धुन देखियत नहिं नीकी।
          भ्रमर-गीत के बारे में विस्तार से चर्चा फिर कभी, अभी तो हम उद्धव के साथ श्री कृष्ण के पास लौट चलते हैं |
                  वृन्दावन से सब प्रकार से हतोत्साहित होकर उद्धवजी को आखिर लौटना ही पड़ा | वे समझ नहीं पा रहे थे कि मेरा ज्ञान, साधारण सी दिखने वाली गोपिकाओं के सामने आकर, आखिर असफल क्यों हो गया ?  वृन्दावन से उद्धव बड़े उद्विग्न होकर लौटे और साथ ही कई प्रश्न उनके साथ वहाँ से आये जिनका बोझ उद्धव से उठाये नहीं जा रहा था | वे सीधे कृष्ण के पास उनके विश्राम गृह में गए और उनके चरणों के पास बैठकर अपना सर झुका कर बैठ गए |
           कृष्ण उद्धव को देखकर प्रसन्न हुए और उन्होंने उठाकर उद्धव को अपने सीने से लगाया | फिर अपने पास बैठाकर उनसे माता यशोदा, नन्द बाबा और अपने सभी मित्रों का कुशल क्षेम पूछा | उन्होंने उद्धव की आवाज में एक ठहराव सा पाकर उद्धव से उन सबके कुशल क्षेम की जानकारी ली |
           उद्धव उदास मन से कृष्ण से बोले, “हे कृष्णा,  तुम्हारे लिए मैंने वृंदावन के कण कण में अविरल, असीमित, निर्विकार और शाश्वत प्रेम पाया | मैंने गोपियों की वेदनाएं भी सुनी। सब के सब तुम बिन ऐसे तड़पते हैं जैसे जल बिन मछली और तुम यहाँ मुसकुराते हुए राजपाट का आनंद भोग रहे हो, राजसी कन्याओं के साथ अठखेलियाँ और क्रीडा कर रहे हो, रास कर रहे हो | तुम तो बड़े निर्मोही ठहरे, इतने निर्मम और निर्दयी कैसे बन गए तुम ?”
क्रमशः
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम्||

Saturday, September 21, 2019

उद्धव-कृष्ण संवाद-1

उद्धव-कृष्ण संवाद-1 
       महाभारत काव्य के एक पात्र हैं, उद्धव | उद्धव भगवान श्री कृष्ण के चचेरे भाई थे | गुरुकुल में उनके साथ पढ़े भी थे और उससे भी बड़ी बात कि वे भगवान के परम सखा थे | जब भगवान श्री कृष्ण मथुरा में कंस का वध कर चुके थे, तब उद्धव को उन्होंने अपना सारथी बनाया था | उद्धव ज्ञान को भक्ति पर अधिक महत्त्व देते थे | उनका कहना था कि ज्ञान से परमात्मा को तत्व रूप से जानना ही मानव जीवन का एक मात्र उद्देश्य है | भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि हाँ, तात्विक ज्ञान आवश्यक है परन्तु सर्वोपरि तो प्रेम और भक्ति है | उद्धव ने इस बात को सहजता से स्वीकार नहीं किया क्योंकि वे ज्ञान को अधिक महत्वपूर्ण समझ रहे थे | तब भगवान ने उन्हें समझाने के लिए अपना सन्देश देकर व्रज में भेजा | भगवान श्री कृष्ण जानते थे कि प्रेम के प्रभाव को ज्ञान से दबाना कितना कठिन है ?
        उद्धव जी अपने ज्ञान की गठरी बांधे चल देते हैं, व्रज की ओर | उनका एक ही उद्देश्य है कि वे जाकर गोपियों को समझाए कि वे क्यों कृष्ण के विरह में इतनी व्याकुल हैं ? जब वे गोकुल पहुंचते हैं तो यह देख कर दंग रह जाते हैं कि केवल गोपियाँ ही नहीं बल्कि सभी निवासी, गायें, यमुनाजी,  यहाँ तक कि पेड़ पौधे तक सभी मुरझाये हुए से हैं | जब उद्धव ने यह दृश्य देखा तो वे सभी को अपने ज्ञान के प्रकाश में समझाने लगे कि कृष्ण एक साधारण मनुष्य और मेरे मित्र से अधिक कुछ भी नहीं है | तुम उसके वियोग में इतना क्यों पगला रही हो ? इस पर गोपियाँ कहती हैं कि हे उधो, यह मन एक ही है, कोई दस बीस तो है नहीं | उस कृष्ण के बिना एक पल के लिए जीना हमारे लिए संभव ही नहीं है | उस एक के बिना सब कुछ सूना है | उद्धव फिर भी अपने ज्ञान से उन्हें समझाने का अंतिम प्रयास करते हैं परन्तु वे कुछ भी सुनने से इनकार कर देती है | अंततः उद्धव जी को अपनी ज्ञान की गठरी समेट कर वापिस लौटना पड़ा | उन गोपिकाओं पर उद्धव जी के ज्ञान का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा | लाख ज्ञान देकर भी वे उन गोपिकाओं के श्री कृष्ण के विरह में बह रहे आंसुओं को रोक नहीं पाए | महान कवि सूरदासजी ने इस पर एक काव्य लिखा है, “भ्रमर गीत” | भ्रमर गीत में गोपिकाएं उद्धव को कहती हैं –
उधौ मन ना भये दस-बीस
एक हतो सो गयौ स्याम संग, कौ आराधे ईस |
    भ्रमर गीत में सूरदासजी ने उन पदों को समाहित किया है जिनमें मथुरा से कृष्ण द्वारा उद्धव को व्रज सन्देश देकर भेजा जाता है और उद्धव जो हैं, योग और ब्रह्म के ज्ञाता, प्रेम से दूर तक उनका कोई सरोकार नहीं है | जब वे गोपिकाओं से योग और ब्रह्म की बातें करते हैं, तब वे बातें उन्हें रास नहीं आती और गोपिकाएं उन्हें काले भंवरे की उपमा दे देती है | भ्रमर गीत में 100 से अधिक पदों का संकलन है |
क्रमशः
प्रस्तुति-प्रकाश काछवाल
||हरिः शरणम्||